अमेरिका के प्रतिष्ठित सनडान्स फिल्म समारोह में चुनी गई, दिखाई गई और ढेरों तारीफें पा चुकी निर्देशक अजितपाल सिंह की हिंदी फिल्म ‘फायर इन द माउनटेंस’ अब भारत में सोनी लिव ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई है.
अजितपाल सिंह, पवन मल्होत्रा अभिनीत वेब सीरिज ‘टब्बर’ से काफी सम्मान पा चुके हैं. अपनी इस फिल्म में वह उत्तराखंड के एक सुदूर गांव के चंद किरदारों के बहाने से हमारे समाज के खोखलेपन को दिखाने की चेष्टा कर रहे हैं.
उत्तराखंड के धारचूला के एक सुदूर गांव की चंद्रा दिन-रात खट कर किसी तरह से अपना घर चला रही हैं. पति कोई काम नहीं करता और अधिकांश पहाड़ी मर्दों की तरह शराब पीता रहता है. चंद्रा ने अपने घर के एक कमरे को पर्यटकों को देने के लिए ‘स्विट्जरलैंड होम स्टे’ खोला हुआ है जिसे उसे काफी कम दाम में देना पड़ता है, क्योंकि मुख्य सड़क से उसके घर तक सड़क नहीं है. चंद्रा का बेटा अपाहिज है जिसके इलाज पर वह बहुत पैसे खर्च रही है, लेकिन उसका पति मानता है कि स्थानीय देवताओं की पूजा यानी जागर करवाने से उनकी मुसीबतों का अंत होगा.
चंद्रा की कहानी के बहाने से यह फिल्म असल में उस विकास को चिन्हित करने का काम करती है जिसके बारे में बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन उसकी गति बहुत धीमी है. हालांकि, हर कोई विकास चाहता भी तो नहीं है. गांव के प्रधान का होटल मुख्य सड़क पर है और गांव तक अगर सड़क बन गई तो उसके यहां कौन ठहरेगा. बीच-बीच में रेडियो पर आते भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र में सुपर पॉवर बनने की खबरों के बहाने से फिल्म इस बात को भी इंगित करती है कि जहां सचमुच आवश्यकता है, वहां यह पॉवर नहीं पहुंच पा रही है.
साथ ही यह फिल्म पहाड़ी परिवारों में पुरुष की दबंगई की ओर भी इशारा करती है जहां मर्द को यह गुमान है कि घर का मालिक वह है, भले ही वह कोई जिम्मेदारी न उठा पाता हो. चंद्रा के अपाहिज बेटे का भी अपना एक अलग रहस्य है जिसके बहाने से फिल्म एक अलग ही गूढ़ बात कहना चाहती है. उधर चंद्रा की युवा बेटी कंचन के अपने सपने, अपनी उड़ान हैं. चंद्रा के ही घर में रह रही उसकी युवा विधवा ननद का किरदार भी ज्यादा कुछ न कह कर कहानी में अपना पक्ष रखता है. फिल्म का अंत वैसा ही जटिल है जैसा इस किस्म की ऑफबीट फिल्मों का होता है.
चंद्रा की भूमिका में विनम्रता राय अपने अभिनय से खासा असर छोड़ पाती हैं. चंदन सिंह, हर्षिता तिवारी व अन्य तमाम कलाकार भी फिल्म को प्रभावी बनाने में कामयाब रहे हैं. कैमरा व पार्श्व संगीत फिल्म को अलग लुक देते हैं. इस किस्म की फिल्मों को ‘फेस्टिवल सिनेमा’ कहा जाता है. इस तरह के सिनेमा में रूचि हो तो इस फिल्म को अवश्य देखें.
(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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