scorecardresearch
Thursday, 26 December, 2024
होमसमाज-संस्कृति‘दलित पैंथर: एक आधिकारिक इतिहास’ पुस्तक जिसके पन्नों पर भयावह उत्पीड़न और तीखा प्रतिवाद मिलता है

‘दलित पैंथर: एक आधिकारिक इतिहास’ पुस्तक जिसके पन्नों पर भयावह उत्पीड़न और तीखा प्रतिवाद मिलता है

दलित पैंथर आंदोलन की गतिविधियों की दृष्टि से मई 1972 से लेकर जून 1975 तक की अवधि सबसे महत्वपूर्ण थी. इस काल में दलित पैंथर आंदोलन ने तूफान-सा बरपा दिया था.

Text Size:

सन 1975 में सारिका के दलित साहित्य विशेषांक में कही गई ये बात सच है कि बंबई में दलित युवकों के क्रांतिकारी संगठन ‘दलित पैंथर्स’ के उद्भव ने महाराष्ट्र की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी. इस संगठन के जरिए महाराष्ट्र की दलित युवा पीढ़ी ने लोगों का ध्यान अपनी राजनीति, विचारधारा एवं साहित्यिक आंदोलन की ओर खींचा. नवंबर, 1973 में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने दलित साहित्य पर विशेष परिशिष्ट निकाला था. इस परिशिष्ट ने अंग्रेजी भाषी लोगों को मराठी के दलित साहित्य और उनके सामाजिक-साहित्यिक विद्रोह से परिचित कराया. इससे मराठी दलित साहित्य और आंदोलन की गूंजती आवाज का लोगों को अहसास हुआ.

‘दलित पैंथर: एक आधिकारिक इतिहास’ पुस्तक के बहाने मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए 70 के दशक में शुरू हुए एक महान ऐतिहासिक संघर्ष पर मेरे लिये लिखना, उन जुझारू साथियों को फिर से याद करना है, जिन्होंने दलितों और महिलाओं की अस्मिता बचाने के लिए जातिवादी गिरोहों से लड़ते-लड़ते अपने करियर और जीवन का बलिदान किया था.

दलित पैंथर का दस्तावेजीकरण

ज.वि. पवार लिखित और फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘दलित पैंथर: एक आधिकारिक इतिहास’ पुस्तक को पढ़ते हुए शासन और प्रशासन के निर्णायक केंद्रों पर विराजमान जातिवादी लोगों की दलित विरोधी मानसिकता का परिचय तो मिलता ही है, उस सामाजिक संरचना की अमानवीयता का भी गहरा अहसास होता है, जो दलित विरोधी मानसिकता पर टिकी हुई है.

उसी अमानवीय मनुवादी संरचना को तोड़ने का साहस किया था ‘दलित पैंथर’ से जुड़े मराठी दलित युवकों ने. कहना न होगा कि आजादी के पश्चात जैसे-जैसे दलित समाज के भीतर अपने इतिहास, साहित्य, अस्मिता के प्रति सजगता बढ़ी, वैसे-वैसे सवर्णों द्वारा उनके उत्पीड़न की घटनाओं में भी बढ़ोतरी हुई.

दलित शब्द की परिभाषा

‘दलित पैंथर्स’ ने जो घोषणापत्र प्रकाशित किया, उसमें ‘दलित कौन?’ उपशीर्षक में ‘दलित’ शब्द की परिभाषा दी गई है. इसी घोषणापत्र में ‘दुनिया के दलितों से हमारा रिश्ता’ शीर्षक में दलित पैंथर्स लिखते हैं ‘अमेरिका के मुट्ठी भर प्रतिक्रियावादी गोरे लोगों के अत्याचारों के विरुद्ध ‘ब्लैक पैंथर’ आंदोलन ने संघर्ष की चिंगारी सुलगाई. इन्हीं सुलगती चिंगारियों से भड़के आंदोलन से हमारा रिश्ता है.’

घोषणापत्र के मुताबिक दलित का मतलब है- अनुसूचित जाति, बौद्ध, कामगार, भूमिहीन मजदूर, कृषि-मजदूर, गरीब किसान, खानाबदोश जातियां, आदिवासी और नारी समाज.’ इतने व्यापक दायरे को अपने भीतर समेटने वाला दलित पैंथर आंदोलन कोई संकुचित आंदोलन नहीं था. यह विश्व मानवता की एकता में विश्वास करता था.

ज.वि. पवार स्वयं राजा ढाले, दयानंद म्हस्के, उमाकांत रणधीर, रामदास आठवले, अरुण कांबले, केवी गमरे, गंगाधर गाड़े, नामदेव ढसाल, अविनाश महातेकर के साथ दलित पैंथर के अग्रिम पंक्ति के व्यक्तित्वों में रहे हैं. वे नामदेव ढसाल के साथ दलित पैंथर के सह-संस्थापक भी हैं. उन्होंने घर-घर जाकर आरंभिक चरण में बंबई के मराठी दलित युवकों को दलित पैंथर से जोड़ने का अभियान चलाया था.


यह भी पढ़ें : भारत में क्या जाति के आधार पर शरणार्थियों को सुविधा मिलेगी, दलितों के लिए मॉडल टाउन होगा या रैगरपुरा


इस जुझारू संगठन का जन्म 29 मई, 1972 को हुआ था. दलित पैंथर आंदोलन की गतिविधियों की दृष्टि से मई 1972 से लेकर जून 1975 तक की अवधि सबसे महत्वपूर्ण थी. इस काल में दलित पैंथर आंदोलन ने तूफान-सा बरपा दिया था. विशेष रूप से शोधार्थियों के लिए पवार ने इस पुस्तक में महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए हैं.

दलित पैंथर का महासचिव होने के चलते दलित पैंथर से सम्बन्धित दस्तावेज उनके पास उपलब्ध थे. साथ ही, महाराष्ट्र सरकार के शासकीय अभिलेखागारों, पुलिस तथा गुप्तचर विभाग से भी महत्वपूर्ण कागजात उन्होंने जुटाए. उन्होंने मराठी में ‘डॉ. आंबेडकर के बाद आंबेडकरी आंदोलन’ पर पुस्तकों की एक श्रृंखला शुरू की थी. यह किताब उसी श्रृंखला की एक कड़ी है. आंदोलनकारी के साथ वे उच्च कोटि के लेखक भी हैं.

दलित पैंथर के जन्म की कहानी

दलित पैंथर के गठन की पृष्ठभूमि को यदि हम देखें तो, इसके गठन के पीछे 10 अप्रैल, 1970 को संसद में प्रस्तुत की गई इल्यापेरुमल समिति की रिपोर्ट है. रिपोर्ट में दलितों पर देश भर में हो रहे अत्याचारों के विस्तृत विवरण ने संसद को हिला कर रख दिया था. इल्यापेरुमल स्वयं सांसद थे, जिन्हें 1965 में समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था.

इसके अलावा सन 1972 में महाराष्ट्र में दलितों पर अत्याचार की दो घटनाओं ने दलित युवकों को आगबबूला कर दिया. पहली घटना पुणे जिले के बावड़ा गांव में हुई. दूसरी घटना महाराष्ट्र के परभणी जिले के ब्राह्मणगांव में दो दलित महिलाओं को नंगा कर घुमाने की थी. तब कुछ दलित नेतृत्वकारी युवाओं के बीच एकमत से निर्णय हुआ कि सरकार को चेतावनी देते हुए एक वक्तव्य जारी करना चाहिए. वक्तव्य तैयार किया गया, जिस पर राजा ढाले, चिंतामान जावले, वसंत कांबले, भगवान जारेकर और विनायक रानजने ने हस्ताक्षर किए.

इसके बाद दलितों पर अत्याचारों के विरोध में प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ. ऐसे प्रदर्शन बंबई, नागपुर, औरंगाबाद, परभणी आदि से होते हुए दिल्ली, आगरा, कानपुर, हरियाणा आदि में हुए. इसी दौर में राजा ढाले का आलेख चर्चित लेख ‘काला स्वतन्त्रता दिवस’ प्रकाशित हुआ, जो अगस्त, 1972 को पुणे से निकलने वाली साधना पत्रिका के विशेष अंक में छपा.

उच्च जातियों के लोगों ने आरोप लगाया कि यह लेख राष्ट्रध्वज का अपमान करता है. इस लेख में राजा ढाले ने लिखा- ‘ब्राह्मणगांव में किसी ब्राह्मण महिला को नंगा नहीं किया जाता. वहां एक बौद्ध महिला को नंगा किया जाता है. और इसकी सजा क्या है? एक माह की कैद या 50 रुपये जुर्माना. अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रध्वज के सम्मान में खड़ा नहीं होता, तो उस पर 300 रुपए का जुर्माना लगाया जाता है. राष्ट्रध्वज केवल कपड़े का एक टुकड़ा है. वह कई रंगों से बना एक प्रतीक है. परन्तु उसका असम्मान करने पर व्यक्ति को भारी जुर्माना चुकाना पड़ता है और अगर एक जीती जागती दलित महिला, जो अनमोल है उसे नंगा कर दिया जाता है तो उसके लिए केवल 50 रुपए का जुर्माना निर्धारित है. ऐसे राष्ट्रध्वज का क्या मतलब है? कोई भी राष्ट्र उसके लोगों से बनता है. क्या राष्ट्र के प्रतीक के अपमान को उसके लोगों के अपमान से अधिक गंभीर माना जा सकता है?’


यह भी पढ़ें : आंबेडकर ‘दलितस्तान’ बनाना चाहते थे लेकिन हम सब एकजुट रहे: मनोहर अजगांवकर


इस लेख पर महाराष्ट्र विधान सभा के साथ संसद में भी सवाल उठाए गए. राजा ढाले को सजा देने की बात भी की गई. इसके बाद दलित पैंथर्स की ताबड़तोड़ तरीके से गिरफ्तारी होने का सिलसिला शुरु हुआ. दलित उत्पीड़न की घटनाएं भी बढीं. इसी बीच नामांतर आंदोलन भी चला. मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के नाम पर रखना अधिकांश सवर्णों को स्वीकार नहीं था, जबकि दलित समुदाय इसके लिए सड़कों पर उतर चुका था. दलित पैंथर ने भी इसमें सक्रिय हिस्सेदारी की. इस दौरान महाराष्ट्र के गांव, कस्बों में भयंकर दलित उत्पीड़न हुए थे.

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ‘दलित पैंथर: एक आधिकारिक इतिहास’ पुस्तक निश्चित ही एक ऐसा दस्तावेज है, जिसके पन्नों पर लोमहर्षक (रोंगटे खड़ा करने वाला, भयावह) उत्पीड़न की घटनाएं मिलती हैं, तो दूसरी ओर उसमें उसके तीखा प्रतिवाद और प्रतिरोध का इतिहास भी दर्ज है. एक ओर दलित सर उठा रहे थे, दूसरी तरफ उनके सरों को कलम करने के लिए सवर्णों के साथ पुलिस प्रशासन भी मुस्तैद था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दलित साहित्य आंदोलन की प्रमुख शख्सियत हैं.)

share & View comments