‘छोटी सी बात’ में एक सीन है जिसमें अरुण (अमोल पालेकर) खंडाला की एक पहाड़ी पर चढ़ता, घुटने तक पानी भरी हुई नदी में चलकर लगभग हांफता हुआ सा एक आदमी के पास पहुंचता है, जिस पर उसे इस बात का यकीन है कि वो उसकी प्रेम की नैय्या को पर लगा देगा. उसे भरोसा है कि वही व्यक्ति उसे इस बात की भी हिम्मत देगा कि वो प्रभा (विद्या सिन्हा) के सामने अपनी चाहत का इज़हार कर सके और आशा करता है कि प्रभा मान भी जाए.
आजकल के डेटिंग एप वाले ज़माने में, जहां आप सेकंड्स में किसी को स्वाइप करके पसंद या नापसंद कर सकते हो, ये देखना थोड़ा अजीब लग सकता है. एक तरफ वो इंसान है जो काम से एक महीने की छुट्टी लेकर एक भरोसेमंद और आत्मविश्वासी प्रेमी बनाना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ हमारी थकेली-पकाऊ सी पीढ़ी जो डेटिंग एप पर ये भी तय नहीं कर पाती कि डिनर किस के साथ किया जाए.
यही वजह है की 1976 की ये बासु चटर्जी की फिल्म आज भी प्रासंगिक लगती है. ये सिर्फ एक रोमांटिक कॉमेडी नहीं है, बल्कि उस सुनहरे समय की साक्षी है जब प्यार और डेटिंग का मतलब धीरज रखना और जल्द हार न मानना होता था.
जहां बम्बई भी है मुख्य भूमिका में
फिल्म की शुरुआत होती है जैक्सन तोलाराम के परिचय से जहां अरुण एक ग्रेड-2 सुपरवाइजर है और दबंगों के अलावा उसपर कोई ध्यान नहीं देता है. पर बम्बई शहर के पुराने शानदार बंगले, चौल की चहल पहल, व्यस्त ऑफिस कर्मी, कॉस्मोपॉलिटन मेकअप और विविध भारतीयता (पारसी, मलयाली और गुजरती) होने से इस शहर की सच्ची खूबसूरती फिल्म में साफ़ झलकती है.
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स्वाभाव से शर्मीला अरुण रोज़ सुबह नौ बजकर पांच मिनट की बेस्ट बस का इंतज़ार किया करता है ताकि उसे प्रभा के बगल में बैठने का और फिर उसका ऑफिस तक पीछा करने का मौका मिले. हालांकि ये बात अलग है कि प्रभा के बगल में कोई और बैठ जाया करता है और वो इस जद्दोजहद में खुद के ऑफिस के लिए लगभग रोज़ ही लेट हो जाता है. देखा जाए तो ये पीछा करने वाली बात घृणित लग सकती थी, पर अमोल पालेकर ने इसे इतनी मासूमियत से निभाया है की हम इसे समस्या के तौर पर नहीं देखते हैं, पर न ही इसकी सराहना करते हैं. दूसरी अहम बात ये है कि फिल्म में शुरू में ही दिखा दिया गया है कि प्रभा भी दरअसल उसकी इन हरकतों का आनंद लेती है और उसे शायद पसंद भी करती है. वो खुद ही किसी काम के बहाने अरुण के ऑफिस आती-जाती रहती है और इसी तरह उनकी दोस्ती की शुरुआत होती है.
इसी दौरान प्रभा का सहकर्मी नागेश (असरानी) अपने टूर से लौट आता है और अरुण के लिए चीज़ें और मुश्किल कर देता है. नागेश आत्मविश्वासी है, घमंडी है और बातें बनाने में लाजवाब है. उसके पास एक स्कूटर भी है जिस से वो प्रभा को हर रोज़ लिफ्ट देने की कोशिश किया करता है ताकि अरुण को उसके साथ ज्यादा वक़्त बिताने का मौका न मिले.
इसी के साथ फिल्म पूरी तरह से बम्बईया रोमांटिक कॉमेडी में बदल जाती है. शहर के मशहूर रेस्तरां फ्लोरा और समोवार में नागेश और अरुण का प्रभा का ध्यान आकर्षित करने के लिए लड़ना, गेटवे ऑफ़ इंडिया की काल्पनिक कॉफ़ी डेट्स और बांद्रा और खार की गलियों में चहलकदमी- ये सब बम्बई शहर की खूबसूरती से साथ ही साथ रूबरू करवाते हैं.
पूरी फिल्म में परिवारों का ज़िक्र नहीं है. ये स्वाभाविक है क्योंकि बम्बई ऐसे शहर के तौर पर जाना जाता है जिसने काम की तलाश में आने वाले जवान लड़के लड़कियों को अपनाया है और उन्हें आत्मनिर्भर होकर रहने की हिम्मत दी है.
फिल्म में एक खंडाला की ट्रिप भी है, जिसके बाद से फिल्म की जटिलताएं और समस्याएं सामने आती हैं.
‘लड़की को कैसे पायें’ का विचार एक समस्या है
जब अरुण को अंदाज़ा होता है की उसका पलड़ा हल्का है और प्रभा को पाने की उसकी कोशिशें कोई रंग नहीं ला रहीं, ऐसे में वो ज्योतिषियों और बाबाओं के पास जाना शुरू कर देता है, इसी सिलसिले में खंडाला में एक रिटायर्ड कर्नल के पास पहुंचता है, जो लोगों की समस्याओं का निवारण करने में मशहूर है.
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कर्नल जुलियस नागेन्द्रनाथ विल्फ्रेड सिंह (अशोक कुमार) को अपनी जवानी में जिस लड़की से प्यार था, वो उन्हें नहीं मिली, तब से उन्होंने प्यार में परेशान नौजवानों को रास्ता दिखाना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. तो अब कर्नल अरुण को न सिर्फ प्रभा से बात करना सिखाएगा, बल्कि ये भी सिखाएगा कि चौपस्टिक से कैसे खाना है और टेबल टेनिस में तरकीबें लगाकर कैसे जीतना है.
कर्नल सिंह वैसे तो एक अच्छे इंसान नज़र आते हैं, पर उनके तरीके बड़े डरावने और अफ़सोसजनक हैं. कर्नल के पास रोल प्ले के लिए दो लड़कियां भी मौजूद है. वो अरुण को बड़े अजीब तरीके सिखाता है- जैसे कि ‘गलती’ से प्रभा की साड़ी जला देना, हालांकि, उसके कमरे में एक साड़ी और रखी होगी, पर तब तक वो अपनी चाल चल चुका होगा.
शुक्र है कि अरुण कर्नल के झांसे में नहीं आया और प्रभा को बताने के लिए उसने साधारण तरीका चुना- बस उसके सामने जाकर बोल दिया कि वो उस से प्यार करता है और वाकई इस बात ने जादू की तरह काम किया.
हलकी पर मजेदार फिल्म
दो घंटे की होने के बावजूद फिल्म लंबी नहीं लगती है. इसका श्रेय चटर्जी के कुशल निर्देशन और उनके और शरद जोशी के कसे हुए लेखन को जाता है. सलिल चौधरी के गाने बिलकुल ठीक जगहों पर कहानी को आगे बढ़ने के लिए इस्तेमाल किये गए हैं.
जब अरुण एक फिल्म देखते समय प्रभा के बारे में सोच रहा है, तब ‘जानेमन जानेमन तेरे दो नयन’ बड़ी चतुराई से फिल्म में रखा गया है- जिसमें हेमा मिलनी और धर्मेन्द्र का कैमियो है. गाना उसी वक़्त उसके आगे फिल्म में चल रहा है. अमिताभ बच्चन भी अप्रत्याशित तौर पर फिल्म में एक छोटी सी भूमिका में नज़र आते हैं, जब वो कर्नल के पास एक सलाह लेने आते हैं
बाद में अरुण जब महीने भर के लिए खंडाला जाता है तो प्रभा के मन में उसके लिए जो भाव हैं, वो ‘न जाने क्यूं’ गाने के ज़रिये खूबसूरती से बयां होते हैं.
सादी सूती और शिफोन सदियों में लिपटी विद्या सिन्हा की चमकती आंखे, अमोल पालेकर द्वारा निभाया हुआ अरुण का किरदार जो सच्चो कोशिशों के ज़रिये प्रभा को पाने में लगा है, असरानी की कॉमिक टाइमिंग, खूबसूरत संगीत और बम्बई शहर का जादू इसे कई मायनों में एक यादगार फिल्म बन देता है. इस हफ्ते विद्या सिन्हा और सलिल चौधरी की जयंती है, तो आप इसे देख ही सकते हैं.
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