लेखक हिमांशु शर्मा और निर्देशक आनंद एल. राय मिल कर जिस किस्म का रंग-बिरंगा माहौल पर्दे पर बनाते आए हैं, वह इस फिल्म में पहले सीन से अंत तक छाया हुआ है. दिल्ली के चांदनी चौक में रहने वाले लाला केदार नाथ की मां मरते समय उससे वचन ले गई थी कि जब तक चारों बहनों की शादी न हो जाए, घोड़ी पर मत चढ़ना. लाला अपने बचपन की दोस्त सपना से शादी करना चाहता है. सपना का बाप भी इस शादी के लिए राजी है और चाहता है कि कुछ महीने बाद हो रही उसकी रिटायरमैंट से पहले उसकी बेटी की शादी केदार नाथ से हो जाए. इसके लिए वह बाकायदा अपने होने वाले दामाद को उलाहने, ताने, गालियां देकर पूरी बदतमीजी से जताता भी रहता है कि जल्दी करो नहीं तो बेटी कहीं और ब्याह दूंगा.
लाला की पुश्तैनी दुकान पर गर्भवती औरतें लड़के की आस में लाइन लगा कर गोलगप्पे खाती हैं. पैसा खूब कमाता है लाला लेकिन उसके पुरखों ने आजादी से पहले कोई लोन लिया था जिसकी किस्तें वह अब तक चुका रहा है. किसी तरह से दहेज का इंतजाम करके वह एक सुंदर, सुशील बहन की शादी करवा देता है. लेकिन बाकी की तीन तो टेढ़ी-बांकी हैं, उन्हें कौन ब्याह ले जाएगा? और इतना दहेज लाला कहां से लाएगा?
यह फिल्म लड़के की आस में ऊल-जलूल हरकतें करते लोगों पर कटाक्ष करती है, दहेज की मांग करने वाले परिवारों पर वार करती है, लड़कियों को पढ़ा-लिखा कर काबिल बनाने की बात भी करती है. लेकिन यह सब बहुत ही फिल्मी ढंग से करती है. हालांकि फिल्म बहुत छोटी है, दो घंटे से भी कम और इसकी रफ्तार भी बहुत तेज है जिसके चलते घटनाक्रम फटाफट आगे बढ़ता चलता है और सारे किरदार जिस तेज रफ्तार से बातें करते हैं, उससे भी पता नहीं चलता कि असल में जो हम देख रहे हैं वह उतना प्रभावशाली है नहीं जितना उसे बनाने की कोशिशें की जा रही हैं.
दरअसल इस फिल्म को दो तरीकों से देखा जा सकता है. पहला तरीका तो बिल्कुल आम दर्शक वाला है जिसमें दिखता है कि एक भाई अपनी मरी हुई मां को दिए वचन को निभाने के लिए अपनी चारों बहनों की शादी करवाने की जुगत में लगा हुआ है. वह रात-दिन परेशान है, धक्के खाता है, ज्यादा नोट कमाने के लिए माता के जागरण में गाता है, मैरिज ब्यूरो के चक्कर लगाता है लेकिन फिर भी न तो अपनी बहनों के लिए अच्छे लड़के तलाश पाता है और न ही उनके दहेज के लिए पूरे पैसे जुटा पाता है. फिल्म देखने का यह तरीका सुरक्षित भी है और मनोरंजक भी.
इस तरीके से फिल्म देखते हुए दिमाग पर जोर नहीं लगाना पड़ता कि सामने पर्दे पर जो हो रहा है वह कितना बनावटी या अतार्किक है. आप यह भी नहीं सोचते कि पुरानी दिल्ली के ये शरीफ लोग क्यों इतने वाहियात और बेहूदे ढंग से एक-दूसरे से बात कर रहे हैं. आप के दिमाग में सवाल भी नहीं आते. इस तरीके से फिल्म देखते हुए आप सामने चल रही हरकतों को एन्जॉय करते हैं, चीख-चिल्ला कर बोले गए संवादों पर हंसते हैं, इमोशनल सीन पर भावुक होते हैं और हैप्पी एंडिंग पर खुश होते हैं.
दिक्कत तब आती है जब आप इस फिल्म को देखते हुए थोड़ा-सा भी दिमाग लगाने लगते हैं. तब आपको महसूस होता है कि असल में यह फिल्म कोई कहानी नहीं परोस रही बल्कि यह कुछ कलाकारों, कुछ घटनाओं, कुछ फार्मूलों को लेकर बनाया गया एक ऐसा प्रपोजल है जो दर्शकों को फौरी तौर पर मनोरंजन देकर बस नोट कमाने आया है.
इस दूसरे तरीके से फिल्म देखते समय आपका ध्यान स्क्रिप्ट के छेदों की तरफ जाएगा, दहेज के बारे में दिए ऊल-जलूल उपदेशों पर जाएगा, किरदारों की भाषा पर जाएगा, किरदारों के घटिया ढंग से उड़ाए गए मजाक पर जाएगा और फिर आप ही का सिर भन्नाएगा.
इस फिल्म का गीत-संगीत लंबे समय तक याद भले न रहे, देखने-थिरकाने तो है ही. अक्षय कुमार, भूमि पेडनेकर अपने किरदारों में विश्वसनीय रहे हैं. सादिया खतीब प्यारी लगती हैं. बाकी की तीनों बहनों के किरदार में दीपिका खन्ना, समृद्धि श्रीकांत, सहजमीन कौर भी ठीक रहीं. नीरज सूद और सीमा पाहवा ने जम कर असर छोड़ा. लेकिन सबसे बढ़िया काम रहा लाला की दुकान पर काम करने वाले गफ्फार यानी साहिल मेहता का. वैसे, असर तो यह पूरी फिल्म भी छोड़ सकती है, बशर्ते कि इसे पहले वाले तरीके से देखा जाए, दिमाग एक तरफ रख कर.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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