दुनिया के बेहद खुशहाल देशों में नॉर्वे को काफी ऊपर गिना जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां एक आम इंसान के रोजमर्रा के जीवन में भी सरकार की दखलअंदाज़ी रहती है. वहां की सरकार यह सुनिश्चित करती है कि उसके नागरिक हर तरह से बेहतर जीवन जिएं. यहां तक कि वहां ऐसी एजेंसियां भी हैं जो ये देखती हैं कि मां-बाप अपने बच्चों का ठीक से पालन कर भी पा रहे हैं या नहीं और अगर नहीं तो उन बच्चों को उठा कर किसी संस्था में या किसी अन्य परिवार के पास भेज दिया जाता है जिसका खर्चा सरकार ही उठाती है. पर क्या ऐसा होना हर मामले में सही होता है? क्या बच्चों को उनके असली माता-पिता से दूर करना उन दोनों के ही साथ अन्याय नहीं है?
करीब 10 बरस पहले कोलकाता की सागरिका चक्रबर्ती के साथ ऐसा ही मामला हुआ था जब उनके दोनों बच्चों को नॉर्वे की सरकार ने जबरन उनसे छीन लिया था. सागरिका ने दोनों देशों में एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी थी. दोनों देशों की सरकारों को भी बीच में कूदना पड़ा था और आखिर उन्हें उनके बच्चों की कस्टडी मिली थी.
सागरिका ने इस पर ‘द जर्नी ऑफ ए मदर’ नाम से एक उपन्यास लिखा जिस पर आशिमा छिब्बर ने यह फिल्म बनाई है. लेकिन क्या हर उपन्यास पर्दे पर जानदार तरीके से उतर कर दर्शकों के दिलों में जगह बना सकती है?
मिस्टर एंड मिसेज चटर्जी नॉर्वे में रहते हैं. मिस्टर चटर्जी इंजीनियर हैं और उन्हें वहां की नागरिकता बस मिलने ही वाली है. मिसेज चटर्जी घर पर रह कर अपने दो छोटे बच्चों को संभालती हैं, उन्हें खूब प्यार करती हैं, अपने हाथों से खाना खिलाती हैं. लेकिन उनकी यही ‘हरकतें’ नॉर्वे में बच्चों की देखभाल पर नज़र रखने वाली एजेंसी को खलती हैं और एक दिन उस एजेंसी के कर्मचारी इनके दोनों बच्चों को उठा कर ले जाते हैं.
मिसेज़ चटर्जी के लिए यह सीधे-सीधे उनके बच्चों की किडनैपिंग है लेकिन वहां का कानून उनके पक्ष में नहीं है. अदालत से उन्हें राहत नहीं मिलती, पति और परिवार वाले भी छिटकने लगते हैं. किसी तरह से वे भारत लौटती हैं तो यहां भी कानूनी दांव-पेंच उनके रास्ते में रोड़े अटकाने लगते हैं. आखिर एक लंबी लड़ाई के बाद एक मां को उसके बच्चे वापिस मिलते हैं.
आशिमा छिब्बर, राहुल हांडा और समीर सतीजा ने मूल उपन्यास की कहानी को भरसक यथार्थ रखते हुए उसे जिस तरह से एक फिल्म की पटकथा के तौर पर ढाला है, उसके लिए उनकी तारीफ बनती है. ये लोग चाहते तो इस कहानी में ढेरों मसाले, ड्रामा, उतार-चढ़ाव डाल कर इसे और अधिक ‘फिल्मी’ बना सकते थे जिससे यह आम दर्शक का मनोरंजन करते हुए सफलता की राह पकड़ लेती, लेकिन इन्होंने इससे परहेज किया और इनका यही परहेज इस फिल्म की कमजोरी बन गया.
इस कहानी में नाटकीयता की कमी इसे एक ‘बोर’ फिल्म का दर्जा देती है. इसे देखते हुए आप उस मां के संघर्ष से खुद को जोड़ पाने में भी ज्यादा सफल नहीं हो पाते जिसके बच्चे उससे जबरन दूर किए जा चुके हैं. इस फिल्म को देखते हुए जो कसक, जो हूक उठनी चाहिए, वह नहीं उठती.
इस बहुत लंबी, लगभग सपाट फिल्म को देखते हुए दर्शक को संतुष्टि नहीं मिलती और यही इस फिल्म की नाकामी है. संवादों में बहुत सारी अंग्रेज़ी, बांग्ला और नॉर्वे की भाषा का इस्तेमाल भी फिल्म की राह में बाधा बनता है.
आशिमा छिब्बर का निर्देशन प्रभावी है. कई जगह उन्होंने अच्छे सीन दिए हैं. अंत में भारतीय अदालत के दृश्यों में वह खासा असर छोड़ती हैं, लेकिन कई जगह यह भी लगता है कि रानी के किरदार की हरकतों को थोड़ा कंट्रोल किया जाना चाहिए था.
वैसे रानी का काम जानदार रहा है. उनके पति बने अनिरबान भट्टाचार्य प्रभावी रहे. जिम सरभ को देख कर तो हैरानी होती है कि कोई कलाकार कैसे अपने हर किरदार में इतना सहज, स्वाभाविक, सच्चा हो सकता है. बाकी के कलाकार भी ठीक रहे. गाने साधारण हैं और आकर कहानी के प्रवाह को रोकते ही हैं.
यह भी पढ़ें: ‘रंगीन माहौल के बीच खोखली कहानी’, रंगीनियों में डूबी एक हल्की फिल्म है ‘तू झूठी मैं मक्कार’