गुजरात चुनाव के बीच ही आडवाणी प्रधानमंत्री उम्मीदवार हो गए थे. दिसंबर 2007 में जब नतीजे आए तो मोदी की भी छवि बदलती दिखी. मोदी तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की तैयारी में थे, सो विधायक दल की बैठक के बाद पॉलिटिक्स एंड मीडिया ट्रॉयल से आहत मोदी की भावना उमड़ पड़ी. भावुक होते हुए मोदी ने कहा था, ‘भाजपा मेरी मां है. कोई बेटा अपनी मां से बड़ा नहीं हो सकता. जो जन संघ और भाजपा का इतिहास नहीं जानते, वही मुझे मेरी पार्टी से बड़ा बता रहे हैं. लेकिन मेरी छवि इसलिए बड़ी लगती है, क्योंकि आपका लेंस सीमित है. आप अपना फोकस बढ़ा लें तो हजारों कार्यकर्ता दिखेंगे, जिन्होंने मुझे अपने कंधों पर उठाया है.’
मोदी इस चुनाव में केंद्र-बिंदु थे और अब उनका फोकस भी राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर था और आडवाणी के विजन-2009 का हिस्सा भी थे. इसलिए तैयारी शुरू हो गई. यानी मोदी ब्रांड तो हो चुके थे. साथ ही, भाजपा में आडवाणी के ‘अटल’ बनने के बाद कौन? इसकी हलचल भी शुरू हो गई थी, जिसमें मोदी तभी से सबसे आगे दिख रहे थे. संघ में भी बदलाव की आहट होने लगी थी और तब 28 दिसंबर, 2009 को मैंने दैनिक ‘नवज्योति’ के अपने ‘इंडिया गेट से’ कॉलम में लिखा था— ‘गुजरात चुनाव के बाद यह मंथन हो रहा है कि विचार परिवार की टीम ऐसी क्यों न हो, जो एक धारा में चले और केंद्र की सत्ता पर काबिज हो, यानी संघ में भी चेहरा बदलने की रस्साकशी, तो सुदर्शन की जगह मोहन भागवत को संघ की कमान सौंपने पर मंथन चल रहा था.’
भागवत ने ही आडवाणी को 2009 में आखिरी मौका देने की दलील दी थी, यानी अब भाजपा के लिए मिशन और विजन-2009 का आम चुनाव था, जिसकी तैयारी जोर-शोर से होने लगी.
मोदी के शपथ-ग्रहण के दिन ही संघ नेता सुरेश सोनी और राजनाथ सिंह के बीच चर्चा हुई और आने वाले चुनावी राज्यों के संगठन को दुरुस्त करने की रणनीति बनी. लेकिन संगठन के स्तर पर इसकी चर्चा 29 दिसंबर की बैठक में हुई, जिसमें मोदी भी मौजूद थे, जिसके बाद महेश शर्मा की जगह 1 जनवरी, 2008 को राजस्थान में मोदी के करीबी माने जाने वाले ओमप्रकाश माथुर को राजस्थान भाजपा की कमान सौंपने की रणनीति बनी. लेकिन टकराव भाजपा की रणनीति का जैसे हिस्सा हो गया हो, पहले वसुंधरा राजे ने विरोध किया और फिर खबरें आने लगीं कि आडवाणी भी महेश शर्मा को हटाने के खिलाफ हैं.
इस पर 3 जनवरी को राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा था, ‘यह काल्पनिक बात है. आडवाणीजी हमारे पी.एम. उम्मीदवार और राजनाथ सिंह संगठन के मुखिया. दोनों नेताओं में टकराव की बात नहीं है.’ लेकिन टकराव से इतर इसी बैठक में सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, अनंत कुमार और विनय सहस्रबुद्धे की कमेटी बनी, जिसे वर्ष 2009 के लिहाज से भविष्य का ऐक्शन प्लान बनाना था. पांचों सदस्यों ने 2 जनवरी को बैठक की और 7 जनवरी को आडवाणी-राजनाथ को रिपोर्ट सौंप दी. इस प्लान पर तत्काल अमल हुआ और 9 जनवरी, 2008 को राजनाथ सिंह के नेतृत्व में 19 सदस्यीय चुनाव प्रबंधन समिति का भी ऐलान हो गया. इसमें राजनाथ सिंह के अलावा मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, वेंकैया नायडू, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, विजय कुमार मल्होत्रा, बाल आप्टे, अनंत कुमार, गोपीनाथ मुंडे, थावरचंद गहलोत, विनय कटियार, यशवंत सिन्हा, रामलाल, मुख्तार अब्बास नकवी, अरुण शौरी, रविशंकर प्रसाद, बलबीर पुंज और विनय सहस्रबुद्धे शामिल थे.
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रणनीति के तहत उसी दिन आडवाणी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखी चिट्ठी भी सार्वजनिक कर दी, जो उन्होंने 5 जनवरी को लिखी थी, जिस पर मनमोहन मौन साधे थे. आडवाणी ने चिट्ठी लिखकर वाजपेयी के लिए ‘भारत रत्न’ की मांग की थी. यानी वाजपेयी को ‘भारत रत्न’ मिलता तो श्रेय आडवाणी को जाता लेकिन नहीं मिला तो उनकी आदर्श छवि को सामने रख सरकार को घेरने की रणनीति को अंजाम देना स्वाभाविक था. हर रणनीति को अंजाम दिया जा रहा था.
पोंगल के मौके पर नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु में जयललिता से मुलाकात कर भविष्य की संभावनाओं को मजबूती दी तो सूर्य उत्तरायण होते ही 15 जनवरी को चुनाव प्रबंधन समिति की पहली बैठक हुई, जिसमें घोषणा-पत्र, विज्ञापन-पोस्टर, मीडिया, राज्यवार मीटिंग का खाका तैयार करने वाली टीम, योजनाओं को अमल में लाने के लिए टीम, यानी कई टीमें गठित कर दी गईं. पार्टी ने यह भी चिह्नित कर लिया था कि 297 सीटें ऐसी हैं, जिन पर वर्ष 1989 से 2004 तक कभी-न-कभी कमल खिला था. मिशन 297 का लक्ष्य अंदरखाने तय हो चुका था. 22 जनवरी को एनडीए की बैठक हुई और प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें तीन अहम बातें थीं— एनडीए आगामी लोकसभा चुनाव में निर्णायक जनादेश के लिए जुटेगा; आडवाणी के नेतृत्व में साझा रणनीति एवं कार्यक्रम के साथ लड़ेगा और वाजपेयी ही एनडीए के चेयरमैन रहेंगे. लेकिन जिस तरह से एनडीए. ने प्रस्ताव रखा, उसका संकेत था कि सन् 1999 की तरह ही भाजपा के कोर एजेंडे को किनारे रखना होगा. तब सुषमा स्वराज ने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘भाजपा की अपनी सीटें चाहे 272 या 291 भी आ जाएं, तो भी हम एनडीए की ही सरकार बनाएंगे,भाजपा की नहीं.’ एनडीए का दायरा भाजपा समेत सिमटकर पांच दलों—जेडीयू, शिवसेना, बीजेडी और अकाली दल तक आ गया था. ऐसे में, वर्ष 2009 के लिहाज से एनडीए का दायरा बढ़ाने की कवायद आगे बढ़ी.
27 जनवरी को भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक में मोदी फिर से छाए रहे. राजनाथ ने तो मोदी को रोल मॉडल बता बाकी मुख्यमंत्रियों को सीखने की नसीहत भी दी. इसके बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में दो दिन की राष्ट्रीय परिषद् की बैठक होनी थी. इस बैठक में वाजपेयी ने आडवाणी के लिए शुभकामनाएं भेजीं. मोदी ने भी परिषद् को संबोधित किया तो राष्ट्रीय छवि वाला अंदाज था. उन्होंने भी वाजपेयी की प्रशंसा कुछ इस तरह की, ‘सही नेता वही होता है, जो अपना सही उत्तराधिकारी बनाकर जाए.’ यानी वाजपेयी ने आडवाणी को बनाया तो अब बारी आडवाणी की थी. ऐसा लग रहा था कि आडवाणी अभी चुनावी रणनीति के लिए बैठक कर रहे हैं, लेकिन मोदी उनके उत्तराधिकारी के तौर पर दिख रहे थे. तभी तो आडवाणी ने गुजरात की जीत को हिंदुत्व से ज्यादा ‘सुशासन की जीत’ करार दिया.
(प्रभात प्रकाशन से छपी किताब ‘संघ और सरकार’ को पत्रकार और लेखक संतोष कुमार ने लिखा है)
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