अनुभव सिन्हा संवेदनशील फिल्म निर्माता माने जाते हैं, जिन्होंने इससे पहले मुल्क जैसी फिल्म बनाई थी, जिसको फिल्म समीक्षकों की खूब तारीफें मिली हैं. उनकी अगली फिल्म आर्टिकल 15 है, जो 28 जून, 2019 को रिलीज होगी. फिल्म से पहले यूट्यूब पर फिल्म का टीजर और ट्रेलर आया है, जिसे लाखों लोग देख चुके हैं, और फिल्म समीक्षक एक बार फिर से अनुभव सिन्हा पर लहालोट हैं.
फिल्म देखने से पहले ही कोई इसे जाति की क्रूरता को उजागर करने वाली फिल्म बता रहा है, तो किसी की राय में इसने भारतीय जाति व्यवस्था की सच्चाई को सामने ला दिया है, तो किसी को लगता है कि ये फिल्म जातिभेद का मुकाबला करती है. एक फिल्म समीक्षक इसे जरूर देखने की सलाह दे डालते हैं और कहते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों में सामाजिक असमानता से जिनका दम घुट रहा है, ये फिल्म उनकी आवाज है.
वैसे तो किसी फिल्म की समीक्षा फिल्म देखने के बाद होनी चाहिए, लेकिन चूंकि फिल्म को लेकर ट्रेलर के बाद ही जिस तरह से मीडिया में चर्चा छिड़ गई है, उसे देखते हुए ही ये लेख बिना फिल्म देखे ही लिखा जा रहा है. इस लेख का आधार वही ट्रेलर है, जिसे देखकर फिल्म की तारीफें लिखी जा रही हैं.
सबसे पहली बात तो ये है कि जाति व्यवस्था और जाति भेद के अस्तित्व को स्वीकार करना अपने आप में एक प्रगतिशील और क्रांतिकारी बात है क्योंकि जाति के जो सबसे शातिर समर्थक हैं, वो जाति में आकंठ डूबे होने के बावजूद जाति की बात नहीं करते और जाति के अस्तित्व से इनकार करते हैं. जाति को समाप्त करने के लिए जाति को देखना और उसके अस्तित्व को स्वीकार करना जरूरी है. बाबा साहेब डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने एनिहिलेशन ऑफ कास्ट भाषण में लिखा था कि जाति एक ऐसा दैत्य है, जिससे आप चाहे जिस भी दिशा में जाएं, बच नहीं सकते. इस दैत्य को मारे बिना आप न तो राजनीतिक सुधार कर सकते हैं और न ही आर्थिक सुधार.
अनुभव सिन्हा का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए कि उन्होंने माना कि जाति एक समस्या है और इसे लेकर वे एक फिल्म बना रहे हैं. लेकिन अगर ट्रेलर को देख कर अनुमान लगाने को कहा जाए, तो मैं ये कहना चाहूंगा कि ये फिल्म जाति से भिड़ने की कोशिश नहीं है. बल्कि ये जाति संबंधी धारणाओं और सोच को ही पुष्ट करेगी. आइए जानते हैं कि ऐसा क्यों है.
1. फिल्म का ट्रेलर हमें बताता है कि इस फिल्म का मुख्य रोल ब्राह्मण आईपीएस अफसर बने आयुष्मान खुराना ने निभाया है. अफसर की जाति छिपी भी है और जाहिर भी है. यही अफसर दलितों के बीच मसीहा के तौर पर है और उन्हें उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने की कोशिश करता है. यानी जो दलित सैकड़ों साल से जाति से मुक्ति की अपनी लड़ाई पसीना और खून बहाकर लड़ रहे हैं और जिन्होंने इस क्रम में कई जीत भी हासिल की है, वो इस फिल्म में निरीह प्राणी हैं और उनकी लड़ाई कोई और लड़ रहा है. उनका मुक्तिदाता उस ब्राह्मण समुदाय से, जिनके बारे में बाबा साहेब ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी के सोशियोलॉजी विभाग में पेश किए गए सेमिनार पेपर में लिखा था कि जाति ब्राह्मणों ने बनाई है. ये कुछ वैसी ही बात हो गई, जिसे मोहम्मद रफी और गीता दत्त ने गाया है- तुम ही ने दर्द दिया है, तुम ही दवा देना!
2. फिल्म का ट्रेलर बताता है कि जातिवाद गावों में है. गरीब, असभ्य और कम पढ़े-लिखे लोग ही जातिवाद को मानते हैं. शहरों में पला-बढ़ा हीरो पहली बार जाति को गांव में जाकर ही देखता है. इससे पहले उसे पता भी नहीं था कि जाति क्या होती है. इस फिल्म के शहरी दर्शकों को ये जानकर बहुत अच्छा लगेगा कि जाति की समस्या उनमें नहीं, किसी और तरह के लोगों में है. फिल्म में मुक्तिदाता का ये रोल एक शहरी ब्राह्मण पात्र से कराया गया है.
3. फिल्म में जो हीरो है, उसकी जाति तो है, लेकिन उसे अपनी जाति का पता नहीं है. वह अपने जूनियर पुलिसकर्मियों से पूछता है कि – मैं किस जाति का हूं. तब जाकर एक पुलिसवाला उसे बताता है कि वह ब्राह्मण है. वही मौजूद जाटव पुलिसवाले को पता है कि वह जाटव है, यहां तक कि कायस्थ को पता है कि वह कायस्थ है, लेकिन ब्राह्मण आईपीएस को पता नहीं है कि वह ब्राह्मण है. जबकि वास्तविक जीवन में ऐसे किसी किरदार को तमाम तरह के विशेषाधिकार जन्म के संयोग से प्राप्त होते हैं. जातिमुक्त होने की बात करना (कास्टलेसनेस) या जाति को न देखना (कास्ट ब्लाइंड) जैसी सुविधाओं का उपभोग सवर्ण ही कर सकते हैं.
जाति उनकी समस्या नहीं, सुविधा है, इसलिए जाति से उन्हें कोई शिकायत नहीं है और वे जाति का जिक्र किए बगैर भी रह सकते हैं, क्योंकि इससे जुड़े विशेषाधिकार तथा सांस्कृतिक तथा सामाजिक पूंजी तो उन्हें मिलती ही रहती हैं.
4. ट्रेलर देख कर ऐसा लगता है कि यह फिल्म इस बात की अनदेखी कर रही है कि जाति ने अपना ठिकाना अब बदल लिया है. रोहित वेमुला के केस में हमने देखा कि जाति देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में रहती है. डॉ. पायल तडवी केस में हमने देखा कि जाति डॉक्टरों के बीच और मेडिकल कॉलेजों में रहती है और सवर्ण महिलाएं जाति उत्पीड़न में शामिल हो सकती है. एम्स में दलित छात्रों के जाति उत्पीड़न को देखकर हमें पता चला कि जाति देश के शीर्ष शिक्षा संस्थान में रहती है. उच्च न्यायपालिका में एससी-एसटी-ओबीसी जजों की लगभग अनुपस्थिति के सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि जाति न्याय के शिखर पर मौजूद है. शीर्ष नौकरशाही और राष्ट्रीय मीडिया में दलितों और आदिवासियों की अनुपस्थिति से पता चलता है कि जाति नौकरशाही और मीडिया में है.
जाति सवर्णों को सिर्फ तब नजर आती है जब उन्हें रिजर्वेशन से कोई आगे बढ़ता दिखता है या दलित या पिछड़ी जाति के किसी नेता की अगुवाई में कोई राजनीतिक दल काम करता दिखता है. इसलिए जाति को खत्म करने का सवर्णों का फार्मूला है कि आरक्षण और सामाजिक न्याय की बात करने वाले राजनीतिक दलों की वजह से ही जातिवाद है और इन दोनों के खत्म होने से जातिवाद मिट जाएगा. जातिवाद विरोधी आंदोलन और उपाय ही सवर्णों के लिए जातिवाद हैं.
5. फिल्म का ट्रेलर इस डायलॉग से शुरू होता है कि – कभी हम हरिजन बने, कभी बहुजन, हम कभी जन नहीं बन सके. जहां हरिजन वह पहचान है जो दलितों को गांधी ने दी थी, और जिसे उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया, वहीं बहुजन पहचान दलितों ने अपने लिए खुद बनाई है और इसमें यह ध्वनि है कि पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के साथ मिल कर वे बहुजन हैं और वे सत्ता में आ सकते हैं. इसी बहुजन पहचान ने उत्तर भारत में साइलेंट रिवोल्यूशन में प्रमुख भूमिका निभाई और दलितों के नेतृत्व वाले एक संगठन की नेता को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया. इस मायने में बहुजन एक सक्रिय, आंदोलनात्मक पहचान है, जबकि हरिजन एक निष्क्रिय और कई लोगों की दृष्टि में एक अपमानजनक पहचान है. कहना मुश्किल है कि ये फिल्म बहुजन पहचान को हरिजन के बराबर क्यों रख रही है?
6. कम से कम ट्रेलर देख कर तो यही लगता है कि ये फिल्म संविधान के आर्टिकल 15 में से उसके सिर्फ एक क्लाज यानी 15(1) की बात कर रही है जिसमें लिखा है कि राज्य किसी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्मस्थान इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा. लेकिन आर्टिकल 15 में तीन और क्लॉज भी हैं. 15(3) बताता है कि – यह आर्टिकल राज्य को महिलाओं और बच्चों के बारे में विशेष प्रावधान करने से नहीं रोकेगा. वहीं 15(4) में लिखा है कि यह आर्टिकल या 29(2) सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए विशेष प्रावधान करने से राज्य को नहीं रोकेगा. यानी संविधान सिर्फ समानता (इक्वलिटी) ही नहीं समता (इक्विटी) की भी बात साथ-साथ करता है. इसमें एक तरफ समानता का अधिकार है तो दूसरी तरफ वंचितों के लिए विशेष अवसर का सिद्धांत.
कुल मिलाकर, यह फिल्म सवर्ण संवेदना के साथ बनाई गई लगती है. इसमें जाति की समस्या को सवर्ण नजरिए से देखा गया है. इस मायने में सवर्ण दर्शकों को ये फिल्म पसंद आनी चाहिए. उन्हें ये देखकर अच्छा लगेगा कि उनमें से ही एक आदमी दलितों का उद्धारक है. लेकिन ये बात उन्हें जाति का प्रिविलेज लेते रहने या जाति उत्पीड़न करने से रोकने के लिए प्रेरित नहीं करेगी. उन्हें इस बात को देख कर बुरा लगेगा कि गांव के लोग किस तरह जातिवाद करते हैं. इस फिल्म को देखते हुए उनके पॉपकॉर्न का जायका खराब नहीं होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेखक के निजी विचार हैं. )