‘दुकानें बंद हैं, सड़कें वीरान हैं, दूसरे शहर में पड़ी माओं की रातें करती हैं सांय-सांय, कोई घर नहीं आता, दोस्तों को भींच लेने को तरसती हैं बाज़ुएं, बूढ़ी दादी कहती हैं मुल्क को किसी की नज़र लग गई, डर लगता है न, पर वो बता रहे हैं कि सफेद कोट पहनने वाले कुछ पढ़ाकुओं ने प्रयोगशालाओं में जान दे रखी है, वो बता रहे हैं कि महज़ कुछ हफ्तों की क़ैद के बाद, कई दिशाओं से आ रही है राहत की महक…’
पेशे से पत्रकार कुलदीप मिश्र की इस कविता ने पिछले दिनों न जाने कितने लोगों की फेसबुक टाइमलाइन पर उम्मीद और विश्वास के बीज बोये. फिर रेडियो के लिए लिखी और पढ़ी गई इस कविता को कथक नृत्यांगना मृणालिनी ने एक नृत्य के रुप में प्रस्तुत किया और इसके शब्दों को जैसे पंख लग गए. कुलदीप कहते हैं, ‘इस घबराहट से भरे दौर में मैं लोगों को अपनी कविता के ज़रिए उम्मीद से भर देना चाहता था और ये इस दौर की ज़रूरत ही है जिसने इस कविता को इतना वायरल कर दिया. पिछले कुछ दिनों में मुझे बहुत से लोगों के फोन आए कि कविता सुनकर उन्होंने बहुत बेहतर महसूस किया. उन्हें गलियों में दौड़ते बच्चों और बैठक लगाए बुज़ुर्गों के दृश्य इस कविता में दिखाई दिए और उन्हें विश्वास है कि वो दिन फिर से लौटेंगे.’
जब लगभग पूरी दुनिया कोरोनावायरस के शिकंजे से निकलने के लिए छटपटा रही है, कला एक बानगी है उस ताकत की जिससे उम्मीद की एक गुंजाइश पैदा हो. कला हमें ध्यान दिलाती है कि मुश्किल और बेबस दौर में भी सृजनात्मकता खत्म नहीं होती. वो हमें ये भूलने नहीं देती कि समय बदलेगा और अपने साथ सब कुछ बहा ले जाएगा.
शब्द और कविताएं कला के इस हस्तक्षेप में भले ही आगे हों लेकिन कोशिशें उन तक सीमित नहीं. पिछले कुछ हफ्तों में कला और कला-क्षेत्र से जुड़ी कई ऐसी पहल सामने आई हैं जो अपने-अपने ढंग से कोविड के खिलाफ लड़ाई में आम लोगों की भागीदार बन रही हैं.
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राजस्थान, भीलवाड़ा के फड़ चित्रकार विजय जोशी ने लोक-देवों और उनकी कलाकृतियों के ज़रिए कोरोनावायरस के संक्रमण, बचाव और सरकारी प्रयासों पर एक फड़ चित्र तैयार किया. विजय जोशी का मानना है कि किस्सागोई और पट चित्रों का मिलाजुला रुप लिए लगभग छह सौ साल पुरानी ये कला-शैली गांव-कस्बों में वायरस संबंधी जागरुकता फैलाने का माध्यम बन सकती है. कुछ ऐसी ही कोशिश कुमाऊं और राजस्थान के लोक गायकों ने भी की है. राजस्थानी लोक गायक लक्ष्मण लाल गुर्जर और थावरचंद खांडेरा ने जहां लोगों से सरकार की बात मानने और 14 अप्रैल तक घरों में रहने की अपील की, वहीं कुमाऊंनी लोक-गायक भुपेंद्र बसेड़ा ने ‘नमस्ते’ के ज़रिए लोगों को सोशल-डिस्टेंसिंग का पाठ पढ़ाया.
छोटी या बड़ी ये कोशिशें भारत के हर कोने में हो रही हैं. मोहिनीअट्टम में पारंगत प्रसिद्ध नृत्यांगना मेथिल देविका ने कोरोना से उपजी त्रासदी पर एक प्रस्तुती की. डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों तक पहुंच चुकी इस वीडियो का मकसद केवल वायरस संबंधी जागरुकता नहीं. मूल रुप से देविका ने अपनी कला का इस्तेमाल प्रकृति और मनुष्य के बीच तालमेल को समझाने के लिए किया है. वो कहती हैं, ‘इंसान पर आने वाली किसी भी विपत्ति के तीन स्रोत हैं- प्रकृति, कोई अन्य व्यक्ति और स्वयं यानि हम खुद. इस वायरस को अगर हम प्रकृति से जनित मानें तो भी इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इसके लिए बहुत हद तक इंसान खुद भी ज़िम्मेदार है. अपनी इस परफॉर्मेंस के ज़रिए मैं ये कहना चाहती हूं कि हमें निडर होकर इस विपत्ति का सामना करना है लेकिन अपने अस्तित्व की सीमाओं का आदर करते हुए.’
कला का दखल हमारे जीवन और समाज में हमेशा से रहा है. चित्र, संगीत, कविता, कहानी, कार्टून, नृत्य या नाटक, कला किसी भी रूप में व्यक्ति को उसके आसपास की ज़िंदगी से जोड़ने का काम करती है. कलाकार उन मुश्किल भावनाओं और मानसिक स्थितियों को समझने में हमारी मदद करते हैं जिन्हें हम महसूस तो कर सकते हैं लेकिन बयां नहीं कर पाते.
नए ज़माने के मशहूर दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी इन दिनों अपने फेसबुक पन्ने पर शायरों, लेखकों और संगीतकारों को लेकर लगातार वर्चुअल बैठकें कर रहे हैं. वो कहते हैं, ‘इस तरह के वक्त में इंसान आमतौर पर अपने करीब जाता है. वो अपने आसपास को नए नज़रिए से देखता है, इसलिए मेरा मकसद है कि इस दौरान जब लोगों के पास वक्त है तो उनके साथ उन शायरों और कलाकारों पर बात की जाए जिन्हें या तो वो जानते नहीं या भूल गए हैं. वो लोग जो पॉपुलर नैरेटिव से बाहर हैं.’
लेकिन एक कलाकार के तौर पर वो इस बात को भी समझते हैं कि ये खाली वक्त और ये बैठकें उन लोगों के लिए शायद कोई मानी न रखें जो दो वक्त की रोटी, दवाओं या ज़रूरी सामान के लिए जूझ रहे हों. इन लोगों की सुध लेना भी कला की ज़िम्मेदारी है.
वो कहते हैं, ‘कलाकार बुनियादी रुप से संवेदनशील होते हैं और ये मुमकिन नहीं कि वो अपने समय के सच से प्रभावित न हों. यही वजह है कि क्राइसिस के दौर में कला और कलाकार की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है. कलाकार की अपनी चेतना का निर्माण किस तरह हुआ है यही तय करता है कि वो किसकी बात कहता है और किसका पक्षधर है.’
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हिमांशु जिस पक्षधरता का ज़िक्र करते हैं उसकी एक झलक कार्टूनिस्ट हासिफ खान के उस हालिया कार्टून में दिखती है जो बालकनी में थाली बजाते लोगों और उनके सामने लाखों की संख्या में गांवों को लौटते बेघर मज़दूरों का दर्द बयां करता है. तमिल पत्रिका आनंद विकटन में छपे इस कार्टून को भारतभर में हज़ारों लोगों ने शेयर किया. हासिफ कहते हैं, ‘उस कार्टून का असली मर्म दो शब्दों के कैप्शन: सोशल-डिस्टैंसिंग, में था, लेकिन जो मेरी भाषा नहीं समझते उन्होंने भी मेरी अभिव्यक्ति को समझा. मेरे लिए कार्टून का मतलब है वो एक भाव जो मुझे भुलाए नहीं भूलता. जिसे मैं एक सीधे और सादे चित्र के ज़रिए लोगों तक पहुंचा सकूं. जरूरत पड़े तो कुछ शब्दों के साथ.’
कला न केवल समय की साक्षी है बल्कि वो हमें उम्मीद और भावनाओं से भरे एक संवेदनशील इंसान बनने की दिशा में ले जाती है. शायद इसीलिए हिमांशु कहते हैं, ‘आर्ट की ज़रूरत और उसकी गहराई को समझना एक धीमी प्रक्रिया है और रोज़ी-रोटी की उधेड़बुन में लगे लोग, शायद आमतौर पर कला को इतना समय नहीं दे पाते. खासकर भारत जैसे देश में. अब जब इस परिस्थिति ने हममें से कईयों को ये समय मिला है तो इसका इस्तेमाल उन लोगों और उन बातों को समझने के लिए किया जा सकता है जो ज़िंदगी के प्रति हमारा नज़रिया बदल सकते हैं.’ यही इस वक्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है.
(पारुल अग्रवाल स्वतंत्र पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)