देश-समाज से जुड़े ऐसे मुद्दे जिन पर या तो बात होती नहीं या फिर कम होती है, उन पर फिल्में बनाना और उनके जरिए बहस उत्पन्न करना अनुभव सिन्हा को ‘मुल्क’ से भाने लगा है. ‘मुल्क’, ‘आर्टिकल 15, ‘थप्पड़’ के बाद अब उन्होंने देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से की समस्याओं को पकड़ने-दिखाने की कोशिश की है. पर क्या अपनी इस कोशिश में वह कामयाब और धारदार हो पाए हैं?
यह फिल्म दिखाती है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों पर ‘इंडिया’ की सरकार और ‘इंडिया’ के सैनिक अत्याचार कर रहे हैं. इन राज्यों में न तो विकास है, न ही शांति. न यहां के लोगों को ‘इंडिया’ में सम्मान मिलता है और न ही ये लोग खुद को ‘इंडियन’ मानते हैं. यहां के युवाओं ने दशकों पहले हथियार उठा लिए थे और आज भी यहां कई गुट सक्रिय हैं. सरकार यहां शांति कायम करना चाहती है. इसके लिए वह किसी से बात करने तो किसी को शांत करने तक को तैयार है. सरकार ने इसके लिए अंडर कवर एजेंट्स से लेकर पुलिस, सेना, राजनेता, अफसर, बिचौलिए आदि यहां तैनात कर रखे हैं. पर क्या सचमुच ये लोग शांति चाहते हैं या फिर उनके ये प्रयास दिखावा मात्र हैं?
उत्तर-पूर्व के सात राज्यों की बातें हिन्दी फिल्मों में कम हुई हैं. खासतौर से वहां की अशांति और हिंसा पर तो कायदे से कोई बात कभी हुई ही नहीं. बाकी भारत के लिए भी ये राज्य तस्वीरों में खूबसूरत और खबरों में डरावने मात्र ही रहे हैं. ऐसे में अनुभव का इस विषय को छूना, पकड़ना, कुरेदना सराहनीय है. लेकिन दिक्कत यह रही कि एक साथ अनेक बातों को पकड़ने के चक्कर में उनकी पकड़ हर बात पर दमदार नहीं बन पाई.
चाहें तो इसे इस फिल्म की खूबी कह सकते हैं कि यह एक ही बार में उत्तर-पूर्व के सारे मुद्दों को छू लेना चाहती है. वहां के लोगों के साथ भारत के दूसरे हिस्सों में होने वाले सौतेले बर्ताव से लेकर उनके साथ उनके अपने ही राज्यों में हो रहे दुर्व्यवहार तक पर बात की गई है. लेकिन फिल्म की यही खूबी इसके खिलाफ तब आ खड़ी होती है जब आप समस्या की जड़ में न जाकर उस पर ऊपर से हाथ फिराते हैं. क्या-क्या पकड़े और क्या न छोड़ें का मोह अक्सर रचनात्मक लोगों की दृष्टि मंद कर देता है. यहां भी यही हुआ है.
लेखकों और निर्देशक ने मिल कर जो रचा उसे पर्दे की भाषा के अनुरूप ढालना और सहज बनाना उनके लिए आसान नहीं रहा होगा क्योंकि इन लोगों को बहुत कुछ कहना था और बीच-बीच में उस ‘कहने’ में अपने निजी विचारों को भी ‘घुसाना’ था. ऐसे में इन्होंने फिल्म में नैरेशन देने और बार-बार बहुत सारी बातें किरदारों के मुंह से कहलवाने का बोरियत भरा रास्ता अपनाया लेकिन इस चक्कर में कहानी का प्रवाह रह-रह कर अपनी सहजता खो बैठा और यह फिल्म एक ऐसा भारी-भरकम राजनीतिक-कूटनीतिक ड्रामा बन कर रह गई जिसमें ढेरों बोरियत भरी घुमावदार बातें हैं जो कभी दिल पर लगती हैं तो कभी बिना छुए गुजर जाती है, कभी-कभार आते कुछ बढ़िया सीन हैं, कुछ अच्छे संवाद हैं और ढेर सारी उलझनें हैं जो दर्शक को यह बता ही नहीं पातीं कि उत्तर-पूर्व की असल समस्या है क्या, उस समस्या की जड़ कहां है, उस समस्या को उपजाने का काम किन लोगों ने किया, क्यों इतने दशकों तक वह समस्या, ‘समस्या’ बनी रही और सबसे बड़ी कमी यह कि यह फिल्म आज के उत्तर-पूर्व की बदलती, उजली तस्वीर को दिखा ही नहीं पाती. फिल्म देखते हुए यह अहसास होता है कि इन सात राज्यों के लोग बेहद त्रस्त हैं और यह ग्लानि भी कि उनके इस त्रस्त होने के पीछे ‘हम भारत के लोगों’ का बहुत बड़ा हाथ है.
फिल्म में ऐसी ढेरों बातें और दृश्य हैं जो जतलाते हैं कि इसे बनाने वाले असल में एक तरफ को झुके हुए हैं. यही झुका हुआ पक्ष इस फिल्म की कुछ एक अच्छी बातों पर भारी पड़ कर इसे एक ऐसी उलझी हुई कमजोर फिल्म बना देता है जिसमें एक्टिंग सबकी जोरदार है लेकिन किरदार किसी का भी नहीं.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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