नई दिल्ली: इस हफ्ते उर्दू अखबारों में चुनाव की खबरों का दबदबा रहा, लेकिन छत्तीसगढ़ के बस्तर में सुरक्षाबलों के साथ कथित मुठभेड़ में 29 माओवादियों की मौत की काफी प्रशंसा की गई, एक संपादकीय में इसे “शांति की दिशा में सराहनीय कदम” बताया गया.
18 अप्रैल को रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय में कहा गया कि भारत दशकों से नक्सलवाद से जूझ रहा है और बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सक्रिय “खूनी नक्सलियों को खत्म करना ज़रूरी है”.
‘बंदूकों और धमाकों से इंकलाब नहीं आता’ शीर्षक वाले संपादकीय में कहा गया, “हाल ही में छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों ने 29 नक्सलियों को मार गिराकर महत्वपूर्ण सफलता हासिल की, जो एक बड़ी जीत है. डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड और सीमा सुरक्षा बल ने ऑपरेशन चलाया, जो इस दशक में नक्सलियों के खिलाफ सबसे बड़े ऑपरेशनों में से एक था.”
इस बीच, चुनावी उन्माद चरम पर पहुंच गया, सभी तीन प्रमुख उर्दू अखबारों — सियासत, इंकलाब और सहारा — ने अपना अधिकांश स्थान विभिन्न राजनीतिक शिविरों की गतिविधियों के लिए समर्पित कर दिया.
इसके अलावा, संपादकीय में ईरान के इज़रायल पर मिसाइल हमले पर भी टिप्पणी की गई, जिसमें दोनों देशों से तनाव कम करने का आग्रह किया गया.
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लोकसभा चुनाव
19 अप्रैल को अपने संपादकीय में सियासत ने कहा कि पिछले 10 साल में अपने काम पर रिपोर्ट पेश करने के बजाय, भाजपा और उसके उम्मीदवार जनता को “तुच्छ मुद्दों” में “फंसाने” की कोशिश कर रहे हैं.
इसने लिखा, “अपमानजनक टिप्पणियों से चुनावी प्रक्रिया को राजनीतिक कीचड़ उछालने में बदल दिया गया है. व्यक्तिगत टिप्पणियों से चुनावी प्रक्रिया के महत्व को कम करने की कोशिश की गई. विपक्षी नेताओं के खिलाफ जघन्य आरोपों की कोई मिसाल नहीं है.”
संपादकीय में कहा गया है कि इस बीच, बेरोज़गारी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे अनसुलझे रहे.
इसमें कहा गया, “इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि 10 साल पहले किया गया सालाना 20 मिलियन नौकरियां प्रदान करने का वादा पूरा क्यों नहीं किया गया. इस बारे में कोई जवाब नहीं दिया गया कि रोज़गार के पिछले स्तर को क्यों बरकरार नहीं रखा गया है.”
19 अप्रैल को — मतदान के पहले चरण के दिन — सहारा ने युवा मतदाताओं द्वारा निभाई जाने वाली महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में लिखा, इस बात पर जोर दिया कि कैसे उनकी भागीदारी चुनाव परिणामों को निर्धारित कर सकती है.
इस बीच, उस दिन इंकलाब के संपादकीय ने अपना ध्यान भाजपा की चुनावी रणनीति पर केंद्रित किया, यह दावा करते हुए कि “अब की बार, 400 पार” जैसे नारे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विशेषता वाले बैनर पार्टी के लिए व्यापक समर्थन की बाहरी भावना दे सकते हैं, उत्तर प्रदेश में राजपूतों के विरोध जैसे अन्य कारक और गुजरात नतीजों पर असर डाल सकता है.
इसमें कहा गया है कि भाजपा कुछ राज्यों में विपक्ष की एकजुटता और गठबंधन को लेकर भी चिंतित है.
18 अप्रैल को सियासत के संपादकीय में भाजपा पर चुनावी लोभ के लिए राम मंदिर का लाभ उठाने का आरोप लगाया गया, जबकि निर्वाचन आयोग के नियम स्पष्ट रूप से राजनीतिक दलों को विभाजनकारी रणनीति का उपयोग करने से रोकते हैं.
संपादकीय में कहा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य भाजपा नेताओं ने अपने अभियान भाषणों में अक्सर मंदिर को उजागर किया, चुनाव आयोग की निष्पक्षता और प्रभावशीलता पर सवाल उठाए, चुनाव आयोग से “इन चिंताओं को सीधे तौर पर संबोधित करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कहा जाए कि चुनाव धार्मिक अपीलों के बजाय सार्वजनिक मुद्दों पर केंद्रित हों”.
17 अप्रैल को सहारा के संपादकीय में चुनावी प्रक्रिया में काले धन के इस्तेमाल के बारे में बात करते हुए चिंता जताई गई कि इस तरह की प्रवृत्ति “चुनावी अखंडता” पर सवाल उठाती है और लोकतांत्रिक प्रणाली को “कमज़ोर” करती है.
इसमें किसी का नाम नहीं लिया गया, लेकिन कहा गया कि जो राजनीतिक दल “काले धन को खत्म करके अर्थव्यवस्था को स्थिर करने की वकालत करने का दावा करते हैं, वे इस प्रथा में सबसे आगे हैं”.
संपादकीय में कहा गया, “सबसे पहले, काले धन के इतने बड़े प्रवाह की उत्पत्ति चिंता पैदा करती है. यह स्पष्ट है कि इस काले धन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हमारी वर्तमान प्रणाली के भीतर उत्पन्न होता है, (और) राजनीतिक और चुनावी प्रक्रियाओं के दौरान राजनीतिक नेतृत्व द्वारा जमा और उपयोग किया जाता है. राजनीतिक दल और उम्मीदवार वोट खरीदने के लिए काले धन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे सरकार बनाने की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से भ्रष्ट हो रही है.”
उसी दिन सियासत के संपादकीय में दक्षिण भारत में भाजपा की चुनौतियों के बारे में बात करते हुए कहा गया कि उसका “वहां अत्यधिक ध्यान केंद्रित करना यह दर्शाता है कि वह उत्तर में अपनी ज़मीन खो रही है”.
संपादकीय में कहा गया है, “वर्तमान परिदृश्य में दक्षिण भारत के मतदाताओं के लिए यह ज़रूरी है कि वे अपने वोट का उपयोग अत्यंत विवेक और समझ के साथ करें.”
फिलिस्तीन-इज़रायल
संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीनी राज्य के अधिकार पर अमेरिकी वीटो और इज़रायल पर ईरान के मिसाइल हमले ने इस सप्ताह उर्दू प्रेस के पहले पन्ने और संपादकीय में महत्वपूर्ण स्थान लिया।
18 अप्रैल को इंकलाब के संपादकीय में कहा गया कि हालांकि, न तो फिलिस्तीनी समस्या और न ही संघर्ष नया है, यह पहली बार है कि इज़रायल के “अवैध कब्जे” के खिलाफ कुछ आम सहमति है.
इसने कहा, “सीमाएं बदल गई हैं, जिससे दुनिया भर के लोगों को इज़रायल-फिलिस्तीन की स्थिति को समझने, फिलिस्तीनियों के साथ सहानुभूति रखने और एकजुटता जताने के लिए प्रेरित किया गया है. गाज़ा के निवासियों को अभूतपूर्व समर्थन मिला है. हालांकि, इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है.”
16 अप्रैल को सहारा के संपादकीय में इज़रायल के लिए चेतावनी का संदेश था, जिसमें कहा गया था कि ईरान के मिसाइल हमले के बाद उसके खिलाफ कोई भी जवाबी हमला क्षेत्र में एक बड़े संघर्ष में बदल सकता है.
संपादकीय में कहा गया है कि दोनों देश बहुत दूर होने के बावजूद, दोनों ओर से किसी भी हमले का मतलब पड़ोसी देशों के हवाई क्षेत्र का उल्लंघन होगा और संघर्ष बढ़ सकता है. “प्रमुख विश्व शक्तियों के लिए इस तरह की वृद्धि को रोकने में रचनात्मक भूमिका निभाना अनिवार्य है”.
उस दिन इंकलाब के संपादकीय में भी हमले पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जिसमें कहा गया था कि इससे इज़रायल में “रोष फैल रहा है”.
इसने कहा, “इजरायल की कथित अजेयता के बावजूद, उसे पिछले 6-7 महीनों में दो हमलों का सामना करना पड़ा है — 7 अक्टूबर 2023 को हमास का हमला और 14 अप्रैल को ईरान का अधिक गंभीर हमला. इन (ईरान के) हमलों का उद्देश्य नागरिक हताहतों को कम करना, बुनियादी ढांचे को संरक्षित करना और इजरायली जवाबी कार्रवाई को रोकना था.”
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
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