scorecardresearch
Thursday, 31 October, 2024
होमसमाज-संस्कृतिमुगल-ए-आज़म: बंटवारे के कारण एक्टर, संगीतकार, फाइनेंसर तक बदले लेकिन फिर भी ये फिल्म मुकम्मल हुई

मुगल-ए-आज़म: बंटवारे के कारण एक्टर, संगीतकार, फाइनेंसर तक बदले लेकिन फिर भी ये फिल्म मुकम्मल हुई

आखिर में अनारकली का वो प्रभावशाली संवाद आता है जो आज भी लोगों की जुबां पर है. वो कहती है, 'शहंशाह की इन बेहिसाब बख्शीशों के बदले में ये कनीज़ जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर को अपना ये ख़ून माफ़ करती है.'

Text Size:

कितनी ही फिल्में बनती हैं. कुछ आकर गुज़र जाती हैं तो कुछ गहरे प्रभाव छोड़ती हैं. लेकिन इस बीच ऐसी फिल्में भी होती हैं जो दशकों तक याद की जाती है. न केवल फिल्म की कहानी और उसके किरदारों के कारण बल्कि उस सिनेमा के बनने की अपनी खुद की कहानी को लेकर. ऐसी ही एक बेमिसाल और अजीज़ फिल्म को आज 60 बरस पूरे हो रहे हैं. फिल्म का नाम है- मुगल-ए-आज़म.

इस फिल्म को मुकम्मल होने में तकरीबन 14 बरस लग गए. इन सालों में बंटवारे का वो भयानक दौर भी आया जिसने इस फिल्म के बनने में रुकावट डाली. उन दिनों की कहानी फिल्म में सलीम और अनारकली के प्रेम कहानी से कम दिलचस्प नहीं है.

आसिफ की जुस्तजू के अलावा देश के बंटवारे ने काफी कुछ बदल दिया

1947 में मुल्क के बंटवारे के साथ ही करीमुद्दीन आसिफ की ज़िंदगी के सबसे बड़े इम्तिहान की शुरूआत हो गई.

दास्तान-ए-मुगल-ए-आज़म  किताब के लेखक राजकुमार केसवानी दिप्रिंट को बताते हैं, ‘1945 में शुरू हुई फ़िल्म की स्टार कास्ट में चन्द्रमोहन, नरगिस, सप्रू, वीना और हिमालयवाला थे.’

केसवानी कहते हैं, ‘बंटवारे के बाद एक लम्बे अरसे तक फाइनेंसर की तलाश में के आसिफ को दुनिया-जहान की हर मुश्किल का सामना करना पड़ा. लेकिन आसिफ की जुस्तजू में कोई कमी न आई.’ ‘इस फ़िल्म के फ़ाइनेंसर शीराज़ अली हकीम को मजबूरन हिंदुस्तान छोड़ पाकिस्तान जाना पड़ा. इसकी वजह थी उनका मुहम्मद अली जिन्ना का समर्थक होना, जिसकी वजह से उन पर तमाम तरह के इल्ज़ाम लग रहे थे. इसी तरह अभिनेता हिमालयवाला भी पाकिस्तान चले गए.’

वो कहते हैं, ‘इसी का नतीजा था कि आख़िर उन्होने शापूरजी पालोनजी मिस्त्री जैसा फ़ाइनेंसर ढूंढ लिया जिनका उस वक़्त तक फ़िल्मों से कोई दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं था. यह एक लम्बी दास्तान है जिसका ज़िक्र मैंने बड़ी तफ़्सील से अपनी पुस्तक ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म ‘ में किया है.’

उन्होंने कहा, ‘1951 में दुबारा शुरू हुई फ़िल्म में इनकी जगह पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, नरगिस, निगार सुल्ताना और अजीत आ गए. इसी तरह पहले संगीतकार अनिल बिस्वास थे तो उनकी जगह नौशाद ने ले ली.’

मुगल-ए-आज़म 1960 में रिलीज हुई. इसे बेस्ट फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. 2004 में इस फिल्म को रंगीन कर फिर से रीलीज किया गया. इसे भी लोगों ने खूब प्यार दिया.


यह भी पढ़ें: मोहम्मद रफी- जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे


अनारकली (1922)- इम्तियाज़ अली ताज़

इस सिनेमा का रिश्ता 1922 में लाहौर में लिखे गए एक नाटक अनारकली से है जिसे इम्तियाज अली ताज ने लिखा था. जिसकी उस समय खूब चर्चा हुई थी.

इंडियन सिनेमा- ए वेरी शॉर्ट इंट्रोडक्शन  किताब के लेखक आशीष राज्याध्यक्ष लिखते हैं, ‘इस नाटक के पांच साल बाद दिल्ली के ग्रेट ईस्टर्न फिल्म कार्पोरेशन ने ‘द लव्स ऑफ मुगल प्रिंस ‘ नाम से एक बड़े बजट की फिल्म बनानी शुरू की. जिसे अभिनेता-निर्देशक चारू रॉय बना रहे थे. इसमें नाटक के असल रचयिता इम्तियाज अली ताज खुद बादशाह अकबर की भूमिका में थे.’

वो कहते हैं, ‘इसे बनने के बाद आर्देशिर इरानी की इम्पीरियल स्टूडियो ने अभिनेत्री सुलोचना को लेकर अनारकली नाम से फिल्म बनानी शुरू कर दी. वो बिजनेस के किसी भी मौके को गंवाना नहीं चाहते थे.’ इस फिल्म को 1928 में उन्होंने पहले साइलेंट बनाया और फिर 1935 में ये दोबारा बोलती हुई फिल्म के जरिए आई.

उन्होंने अपनी किताब में लिखा है, ‘इसी कहानी को कई बार कहा गया जिनमें से के. आसिफ की मुगल-ए-आज़म सबसे बड़ी हिट थी. इसे 1955 में तेलुगू, 1966 में मलयालम और 1978 में एनटी रामा राव के साथ तेलुगू में ही अकबर सलीम अनारकली के नाम से बनाया गया.’


यह भी पढ़ें: किशोर कुमार: गानों में यूडलिंग टेकनीक लेकर आए- जब रफी, लता, आशा भोसले से आगे निकल गए उनके गाने


के आसिफ की अद्भुत रचना

मुगल-ए-आज़म के निर्देशक करीमुद्दीन आसिफ (के आसिफ) ने जिस जुझारूपन और दीवानगी से इस फिल्म पर लगातार 14 सालों तक काम किया वो भी किसी कहानी से कम नहीं है. उनके जुनून ने इस फिल्म को अमरता दी.

1944 में आई फूल  की शूटिंग के दौरान ही कमाल अमरोही ने इम्तियाज़ अली ताज के नाटक अनारकली की कहानी आसिफ को सुनाई थी. उन्हें ये इतनी पसंद आई कि वो इसका विस्तार कर एक फिल्म बनाने का ख्वाब देखने लगे. जिसका नाम उन्होंने मुगल-ए-आज़म रखा.

राजकुमार केसवानी के आसिफ को कुछ इस तरह याद करते हैं, ‘इस एक इंसान की सिफ़त यह थी कि इस इंसान ने एक हसीन ख्वाब देखा और बस इसी एक ख्वाब को हक़ीकी दुनिया में हू-ब-हू उसी शक्ल में ज़मीन पर उतार कर रख दिया. इस एक इंसान ने हज़ारों-लाखों इंसानों को सपनों को हकीकत में बदलने का हौसला और हिम्मत दी है.’

राजकुमार केसवानी की किताब ‘दास्तान-ए-मुग़ल-ए-आज़म’ का कवर | फोटो: अमेजन

के आसिफ के काम के बारे में इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने केवल दो ही फिल्मों का निर्देशन किया जिसमें 1944 में आई फूल और 1960 में आई मुगल-ए-आज़म  शामिल है. कई फिल्मों को उन्होंने अधूरा ही छोड़ दिया लेकिन इन दोनों फिल्मों को ऐसा बनाया कि उन्हें आज तक याद किया जाता है. खासकर मुगल-ए-आजम  के निर्देशन की खूबसूरती को.

मुगल-ए-आज़म बनाते वक्त के आसिफ बड़ी तंगी से गुज़र रहे थे. ऐसे में पृथ्वीराज कपूर के सहारे उन्होंने शापूरजी पालोनजी मिस्त्री से संपर्क किया जो इस फिल्म को फाइनेंस करने पर राजी हो गए. लेकिन इस फिल्म का बजट बार-बार बढ़ता ही जा रहा था लेकिन उन्होंने आसिफ पर विश्वास बनाए रखा और वर्षों बाद एक मुकम्मल फिल्म बनकर तैयार हुई.

निर्देशक के आसिफ हर तरह से इस फिल्म को यादगार बनाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने बेहिसाब पैसा खर्च किया. 1950-60 के दशक में इस फिल्म की लागत लगभग 1.5 करोड़ रुपए आई थी. गौरतलब है कि कुछ लाखों में उस वक्त फिल्में बन जाया करती थी.


यह भी पढ़ें: दिल बेचारा: सुशांत सिंह राजपूत का आख़िरी काम दिल को छू लेता है, लेकिन इसे बेहतर लिखा जा सकता था


बेमिसाल संगीत

इस फिल्म का संगीत भी कमाल का है. नौशाद का संगीत रुह तक उतर जाता है. लेकिन इसके पीछे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. कहा जाता है कि शकील बदायूंनी ने ‘जब प्यार किया तो डरना क्या’ गीत लिखा तो इसे 105 बार में अंतिम रुप दिया गया. नौशाद और शकील को इस गाने पर काफी मेहनत करनी पड़ी थी.

नौशाद साहब ने इस गाने के लिखे जाने की कहानी बताते हुए कहा था, ‘शकील साहब और मैंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया और न जाने गाने के कितने मुखड़े लिख डाले. जब हम बाहर निकले तो सारी रात गुजर गई थी और सुबह के छह हो रहे थे. तब मैंने कहा कि शायद उस वक्त के गानों में, उनकी उम्रों में वो रात भी शामिल होती हो.’

के आसिफ इस फिल्म के लिए बेहतरीन संगीत चाहते थे जिसे वर्षों तक याद किया जाए. इसके लिए उन्होंने एक गीत के लिए बड़े गुलाम अली खान से गवाना चाहा लेकिन उन्होंने शुरुआत में मना कर दिया. गुलाम अली खान का कहना था कि वो फिल्मों के लिए नहीं गाते हैं लेकिन आसिफ को उनकी ही आवाज़ में गीत चाहिए था.

गीत गाने के लिए खान साहब ने आसिफ से 25 हज़ार की भारी रकम की मांग की, जिसके लिए वो तुरंत तैयार भी हो गए. आखिर आसिफ की जिद्द के सामने गुलाम अली खान को हारना पड़ता है जिसके बाद उन्होंने इस फिल्म के लिए दो ज़हीन गाने गाए- ‘शुभ दिन आयो...‘ और ‘प्रेम जोगन बन के

चमकदार शीशमहल की चाहत

लता मंगेशकर की सदाबहार आवाज़ में गाया हुआ गीत- ‘प्यार किया तो डरना क्या, कौन होगा जिसने ये खूबसूरत गीत नहीं सुना और देखा हो. लेकिन इस गीत को फिल्माने के पीछे की कहानी किसी फिल्म निर्माण से कम नहीं है. निर्देशक के आसिफ एक ऐसा सेट तैयार करना चाहते थे जो हूबहू शीशमहल की तरह लगे. इसके लिए उन्होंने काफी पैसा खर्च कर बेल्जियम से शीशे मंगवाएं. तब जाकर इस सेट को पूरा किया गया.

ऐसा सेट बनाने के पीछे का कारण इस गीत का वीडियो देखकर पता चल जाता है. अनारकली जब नाचती है तब महल में लगे एक एक शीशे में उसकी परछाई नज़र आती है जो बखूबी चमकदार होती है. इसी प्रभाव को पर्दे पर लाने के लिए उन्होंने इसे बनाने का मन बनाया था. इसके लिए हॉलीवुड से निर्देशकों को भी बुलाया गया था.


यह भी पढ़ें: मुंशी प्रेमचंद के रचे पांच ऐसे असरदार किरदार जो आज भी प्रासंगिक हैं


दिलीप कुमार और मधुबाला

सलीम और अनारकली के प्रेम को जिस तरह से फिल्म में दिखाया गया है, असल जिंदगी में भी दिलीप कुमार मधुबाला से बेइंतहा मोहब्बत करते थे लेकिन मधुबाला के पिता इसके खिलाफ थे जिस कारण दोनों की शादी नहीं हो पाई.

दिलचस्प कहानी ये है कि जिस वक्त मुगल-ए-आजम की शूटिंग चल रही थी तब दिलीप कुमार और मधुबाला एक दूसरे से बात नहीं करते थे. लेकिन फिल्म देखते हुए कहीं भी आपको महसूस नहीं होगा कि दोनों में ऐसा कुछ चल रहा था?

मुगलिया सल्तनत से कहीं दूर….

बड़ी मन्नतों के बाद बादशाह अकबर को बेटा नसीब होता है. जिसका नाम सलीम रखा जाता है. बादशाह बचपन में ही उसे जंग के मैदान में परवरिश के लिए भेज देता है. जब वो लौटता है तब वो अपने महल की एक कनीज़ को देखता है जिससे उसे मोहब्बत हो जाती है.

अनारकली और सलीम की मोहब्बत के बारे में अकबर को खबर हो जाती है जिसके बाद उन दोनों को अलग करने की कोशिशें शुरू हो जाती है. लेकिन सलीम अपनी जिद्द पर अड़ा रहता है.

अनारकली को कारागार में डलवा दिया जाता है जिसका सलीम विरोध करता है. यहां तक कि अपने पिता के खिलाफ बगावत तक कर देता है. जो जंगे-मैदान तक पहुंच जाती है.

अकबर अनारकली से कहता है कि वो सलीम को भूल जाए लेकिन वो ऐसा करने से मना कर देती है. बादशाह उसे दीवार में चुनवा देने का फैसला दे देता है.

लेकिन अकबर के वचन के कारण उसकी जान बच जाती है लेकिन इसके बदले उन्हें मुगलिया सल्तनत की सरहदों से कहीं दूर जाना पड़ता है.


यह भी पढ़ें: भीष्म साहनी: भ्रष्टलोक में आदर्शवाद की बानगी है ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’


‘जालिमों ने मुझे लूटा और मेहरबानों ने मुझे संवारा…’

इस फिल्म को इसकी कई परतों से समझा और देखा जा सकता है. ऐसी ही एक खूबसूरती इसके संवादों में है. जो फिल्म की शुरुआत से ही दर्शकों पर छाप छोड़ने लगती है. कमाल अमरोही, अहसान रिज़वी, अमान, वजाहत मिर्जा ने इस फिल्म के लिए कमाल का संवाद लिखा.

एक बुलंद आवाज़ के साथ फिल्म ये कहते हुए शुरू होती है-

मैं हिंदुस्तान हूं….हिमालया मेरी सरहदों का निगेहबान है…गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध, तारीख की फिदा से मैं अंधेरों और उजालों का साथी हूं, और मेरी खाक पर संगेमरमर की चादरों में लिपटी हुई ये इमारतें दुनिया से कह रही हैं कि जालिमों ने मुझे लूटा और मेहरबानों ने मुझे संवारा, नादानों ने मुझे जंजीरें पहना दीं और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका…मेरे इन चाहने वालों में एक इंसान का नाम जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर था..!!

इसके बाद अकबर, सलीम, संतराश और अनारकली के संवाद मानो दिलो-दिमाग पर गहरे असर छोड़ते हुए आगे बढ़ जाते हैं.

फिल्म में जब अकबर अनारकली के दीवार में चुनवाए जाने से पहले उसकी आखिरी ख्वाहिश पूछता है तो वो कहती है कि वो मलका-ए-आज़म बनना चाहती हैं.

जिसके बाद जाते-जाते अनारकली का वो प्रभावशाली और असरदार संवाद आता है जो आज भी लोगों की जुबां पर है. वो कहती है, ‘शहंशाह की इन बेहिसाब बख्शीशों के बदले में ये कनीज़ जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर को अपना ये ख़ून माफ़ करती है.’


यह भी पढ़ें: के कामराज : आजाद भारत का पहला ‘किंगमेकर’ जिसने संगठन की चूलें कसने के लिए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था


 

share & View comments