यह वर्ष सत्यजीत रे का जन्म शताब्दी वर्ष है.
उनकी सिग्नेचर फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ का एक दृश्य मुझे कभी नहीं भूलता, जब अपू और दुर्गा एक शहर जाती ट्रेन को देखने के लिए काशफूलों के बीच से भाग रहे हैं. काशफूल का खिलना शरद ऋतु के आगमन की घोषणा होता है, यह मौसम का परिवर्तन, रेल की गति और पात्रों की गति, कितना कुछ है जो एक ही दृश्य में घट रहा है बदल रहा है. क्या ही गांव और शहर, क्षण और यात्रा का अद्भुत मैटाफर रचता है यह दृश्य. और उनकी इस अपू ट्रीलोजी का संगीत पंडित रविशंकर ने रचा था, यह कोई भूलने वाली बात है भला?
उनके सिनेमा से प्रेम करने वाला हमेशा याद रखता है कि ‘नायक’ का ड्रीम सिक्वेंस एक अलग ही सिनेमाई लोक में ले जाता है.
भारतीय सिनेमा को सौंदर्यशास्त्र, फॉर्म, कंटेंट और नैरेटिव के स्तरों पर अभूतपूर्व रूप से समृद्ध करते हैं. क्योंकि सिनेमा में आने से पहले से ही बहुआयामी कलाकार थे, चित्रकार, लेखक, इलस्ट्रेटर, संगीतकार. तो इतनी समग्रता में कलाएं खिलकर उनके सिनेमा में आती हैं कि सुखद हैरानियों का सिलसिला बन जाता है.
शताब्दी वर्ष पर रेखांकित किए जाने लायक बात है कि उनके सिनेमा की स्थानीयता में वैश्विकता का वास था. और सरलता का जादू तो आद्योपांत था ही. वही सरलता जो उन्हें अतुलनीय महान बनाती है. फ़िल्म स्कूल के विद्यार्थियों को उनका पहला परिचय मास्टर क्राफ्ट्समैन के रूप में दिया जाता है जो मिनिएचरिस्ट स्टाइल, मानवीयता और मनोविज्ञान के सूक्ष्म चित्रण के निष्णात फिल्ममेकर रहे हैं. वे स्त्री पुरुष सम्बन्धों के साथ साथ मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्धों को भी विशिष्टता से सिनेमा में लाते हैं.
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दृश्यों, बिम्बों में सब कहने वाले
निर्देशक नितिन चंद्रा ने कुछ समय पहले इसी फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ को अपनी भाषा मैथिली में डब किया. यह कितनी सुंदर बात है. उनकी क्लासिक अपू ट्रिलोजी ही कितनी भारतीय भाषाओं में पहुंची होगी! हालांकि सिनेमा अपने आप में भाषा है, और सत्यजीत रे कम शब्दों में बात कहते हैं, दृश्यों, बिम्बों में सब कह जाते हैं, फिर भी भारतीय भाषाओं में इस तरह जाना सुखद प्रसंग है जिसकी सराहना होनी चाहिए, इससे प्रेरणा लेनी चाहिए, यह बड़े / पुरखे फिल्मकार को एक अलग किस्म की आदरांजलि भी है!
मेरा प्रत्यक्ष एनकाउंटर रे के सिनेमा से तब हुआ, जब उनकी व्यवसायिक से सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म ‘अभिजान’ का हिंदी रीमेक निर्देशक सुदीप्तो सेन द्वारा बनाने की कोशिशों के बीच मुझे लिखने में सहयोग करना था, पैंडेमिक जैसे कुछ कारणों से प्रोजेक्ट विलम्बित हुआ, पर सत्यजीत रे मेरे सामने जैसे नए रूप में प्रकट हुए. पश्चिम के मशहूर फिल्म निर्देशक मार्टिन सकोर्सिस ने जब ‘टैक्सी ड्राइवर’ बनाई, प्रेरणा के लिए सत्यजीत रे और उनकी इस फ़िल्म के लिए बाकायदा पर्दे पर शुकराना दिया था.
उन्हें इसलिए भी व्यक्तिगत रूप से बेहद प्रेम करता हूं, आदर देता हूं कि अपनी फिल्मों की कथा प्रेरणाएं साहित्य से लेते रहे. वे किताबों से प्रेम करने वाले फिल्मकार थे, प्रिंटिंग प्रेस उनका खानदानी काम था, उनके पिता बच्चों की एक प्रसिद्ध पत्रिका निकालते थे, जिसे उन्होंने जारी रखा, फिल्में बनाते हुए भी, बच्चों के लिए लिखते भी रहे. यह उनके व्यक्तित्व की बेहद मोहक बात लगती है मुझे. उनका जिक्र आते ही अक्सर इस बात को दोहराता हूं. विभूति भूषण बंद्योपाध्याय, रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर प्रेमचंद की कहानियों को यूं ही तो पर्दे पर नहीं उतार देता कोई!
उनकी फिल्मों में अक्सर पाता हूं कि वे सबसे कठिन क्षणों को शब्दहीन रखते हैं. जैसे जताते हों कि शब्दों की सीमा है, दृश्य की नहीं. पर इस जताने में वे बहुत विनम्र रहते हैं, दंभी नहीं. यही महान फिल्मकार होने का लक्षण है. याद कीजिए, ‘चारुलता’ का तो अंत ही शब्दहीन है. अनकहे में महसूस करने की जो शक्ति होती है, उसे हम भूल गए हैं, सब कुछ बोल देने का इतना ज़ोर है कि मौन का सौंदर्य, भावों की निःशब्द भाषा हम खोते जा रहे हैं. और संगीत रसिक जमींदार की कहानी ‘जलसाघर’ (उनकी फिल्मों में मेरी निजी पसंदीदा) रचते हुए तो वे संगीत को इस नि:शब्दता का पर्याय बना देते हैं. यह कमाल वही कर सकते थे.
जीनियस सत्यजीत रे
देश विदेश में जब भी रे का जिक्र आता है, उन्हें जिस अनिवार्य विशेषण से याद किया जाता है, वह है जीनियस. बताना दिलचस्प है कि सत्यजीत रे अपनी किताब ‘अवर फिल्म्स देअर फिल्म्स’ में दो ही लोगों के लिए जीनियस विशेषण का इस्तेमाल करते हैं: चार्ली चैप्लिन और जॉन फोर्ड.
मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसे जीनियस कम होते हैं जिन्हें अपने भौतिक रूप से होने की सदी के अगली सदी में भी यानी सौ साल भी उसी आदर से याद किया जाए, आदर बढ़ता जाए, सत्यजीत रे मुझे ऐसे ही जीनियस लगते हैं और वे मुझे ऐसे जीनियस भी लगते हैं कि उनमें डिकोड न किए जा सकने वाला जादू भी है. सत्यजीत रे का जन्म 2 मई 1921 को कोलकाता में हुआ था. उनके जन्म के पूरे सौ साल हो चुके हैं.
दृश्यों में जादू रचने वाले देश और कालातीत जादूगर! और बड़ा या असली जादूगर वही है जिसका जादू रहस्य ही बना रहे, सदी संधि तक तो निर्विवाद रूप से अपनी विधा के बड़े जादूगर हैं. जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने यूं ही तो नहीं कहा था कि रे की फिल्मों को न देखना सूरज और चांद को न देखने जैसा है.
उनके रचे फ़िल्म संसार में झीनी झीनी राजनीतिक सजगता तो है, पर लाऊड राजनीतिक स्वर कहीं नहीं मिलता. यानी वे ऋत्विक घटक से यहां अलग खड़े दिखाई देते हैं. स्त्री किरदारों में खास लिंग आधारित राजनीतिक दृष्टि ज़रूर रे के यहां थोड़ी मुखर और स्पष्ट मिलती है.
सत्यजीत रे अपने सिनेमा के ज़रिए ऋत्विक घटक और मृणाल सेन के साथ आधुनिक भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान में बड़ा योगदान देते हैं. कुलमिलाकर एक समृद्ध युग का निर्माण करते हैं. एक त्रासदीपूर्ण विडम्बना रही है कि पश्चिम के सराहे जाने पर हम अपने पूर्व की दुनिया के जीनियस लोगों की इज्जत करना शुरू करते हैं, रे भी इसके अपवाद नहीं है. उनकी जन्म शताब्दी पर हम यह सोचें कि क्या हम इसमें बदलाव ला सकते हैं.
सिनेमा आदि कलाओं में जब कोई व्यक्ति इतना वैश्विक प्रतिष्ठित हो जाता है, प्राय: अमेरिकी हो जाता है, पर देखिए, वे नहीं हुए, उनका एक उद्धरण मुझे इसका वाजिब जवाब लगता है ‘मैं जब विदेश में होता हूं, बहुत रचनात्मक महसूस नहीं करता हूं, मुझे इसके लिए कलकत्ता में अपनी कुर्सी ही चाहिए.‘ किसी कलाकार द्वारा अपनी रचनात्मकता के लिए अपने शहर या जड़ों के लिए प्रेम का यह मेरा प्रिय और अनन्य उद्धरण है.
(लेखक चर्चित फिल्म गीतकार- स्क्रिप्ट राइटर हैं, उनकी कई किताबें पेंगुइन, राजकमल, जगरनॉट जैसे प्रकाशकों से आई हैं, वे इतिहास में पीएच.डी. हैं)
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