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Friday, 22 November, 2024
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अमीरों के टैक्स पर मौज नहीं कर रहे हैं गरीब

मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा देश के सरकारी उच्च शिक्षण संस्थाओं में सस्ती शिक्षा हासिल करके ही खड़ा हुआ है, लेकिन अब वह चाहता है कि शिक्षा संस्थान प्राइवेट हो जाएं और वहां पढ़ने वाले ख़ुद अपना ख़र्च उठाएं.

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पिछले कुछ वर्षों से लगातार यह अफ़वाह फैलायी जा रही है और ऐसी गलत धारणा बनाई जा रही है कि देश में अमीरों के टैक्स पर ग़रीब मौज कर रहे हैं. ऐसी अफ़वाह किसानों को खाद-पानी-उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी से शुरू होकर मनरेगा, सरकारी अस्पतालों, बुज़ुर्गों की पेंशन से लेकर छात्रों की फ़ीस तक पहुंच चुकी है. इस अफ़वाह को फैलाने में हिंदी और अंग्रेज़ी के अखबारों और न्यूज़ चैनलों के साथ ही सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इस अफ़वाह को ‘टैक्स राष्ट्रवाद’ भी कहा जाने लगा है, जो कि ग़रीबों को अपमानित करने के लिए नव-मध्यवर्ग के हाथ में बड़ा हथियार बन गया है.

आलम यह हो चुका है कि आज कोई भी सरकार जब जन साधारण के लिए कोई भी कार्य करती है, तो तत्काल लाजिक दे दिया जाता है कि यह देश के करदाताओं के पैसे की बर्बादी है. इस मामले को हम दिल्ली मेट्रो में महिलाओं को दिए गए फ़्री पास से लेकर हाल ही में जेएनयू समेत अनेक विश्वविद्यालयों में बढ़ी फ़ीस को लेकर हुए विवाद के दौरान देख सकते हैं.

इस लेख में तीन बातों को समझने की कोशिश की गयी है; पहली कि क्या देश में सिर्फ़ अमीर लोग ही टैक्स देते हैं; दूसरी, क्या सिर्फ़ ग़रीबों को ही सरकार फ़्री में लूटा रही है, और तीसरी इस लॉजिक को देने वालों की मानसिक सोच क्या है?

क्या सिर्फ़ अमीर ही टैक्स दे रहे हैं

भारत में टैक्स पर बहस इस तरह से चलायी जा रही है कि केवल अमीर लोग टैक्स दे रहे हैं, और ग़रीब उस पर मज़े कर रहे हैं. इस तथ्य की सत्यता जानने के लिए हमें टैक्स प्रणाली को समझने की ज़रूरत है. भारत सरकार को टैक्स से जो भी पैसा मिलता है, वह दो प्रकार का होता है- डायरेक्ट टैक्स और इनडायरेक्ट टैक्स. डायरेक्ट टैक्स में मुख्यतः इनकम टैक्स और कार्पोरेशन टैक्स आते हैं. इनकम टैक्स वह होता है, जिसको कोई भी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत इनकम पर देता है, जबकि कार्पोरेशन टैक्स वह होता है, जिसको बड़ी कंपनिया अपनी इनकम पर देती हैं.

अब आते हैं, इनडायरेक्ट टैक्स पर, जिसमें कस्टम, एक्साइज और सर्विस टैक्स आता था. इन सबको मिला कर जीएसटी में तब्दील कर दिया गया है. इनडायरेक्ट टैक्स देश के अंदर बिक रही सभी वस्तुओं और सेवाओं पर लगता है, जिसका भार हर व्यक्ति पर पड़ता है. इसको यूं समझा जाना चाहिए कि एक बच्चा अगर टॉफी ख़रीदता है तो उस पर भी यह टैक्स लगता है, भिखारी अगर 5 रुपए का बिस्कुट ख़रीदता है, तो उस पर भी यह लगता है. बल्कि कम आमदनी के हिसाब से गरीब आदमी पर इस टैक्स का बोझ आनुपातिक रूप से ज्यादा है. मिसाल के लिए एक लाख रुपए आमदनी वाले के लिए बिस्कुट पर दिए गए एक रुपए टैक्स का बोझ बेहद कम है, जबकि महीने में पांच हजार रुपए कमाने वाले आदमी के लिए एक रूपए का बोझ ज्यादा है.


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इनडायरेक्ट टैक्स की मार सबसे आख़िरी लाइन में खड़े उपभोक्ता पर ज्यादा पड़ती है, इसलिए इसे प्रतिगामी टैक्स भी कहा जाता है. जबकि डायरेक्ट टैक्स की मार जो ज़्यादा अमीर होता है, उस पर ज़्यादा पड़ती है, इसलिए उसे प्रगतिशील टैक्स कहा जाता है.

यदि पिछले तीन वित्तीय वर्ष में सरकार के वित्त मंत्रालय द्वारा जारी डायरेक्ट टैक्स और इनडायरेक्ट टैक्स से प्राप्त हुए इनकम को देखा जाए, तो यह लगभग बराबर है. इसके बावजूद हंगामा ऐसे मचा है कि मानो पूरे देश का ख़र्च चंद अमीरों के दिए टैक्स की बदौलत चल रहा है.

पिछले तीन वित्तीय वर्ष में देश के टैक्स का ब्यौरा (करोड़ रु. में)

सरकार सिर्फ़ ग़रीबों की मदद नहीं करती

टैक्स पर चल रही बहस में एक बात और भी आती है कि मानों सरकार केवल ग़रीबों की ही मदद करती हो, अमीरों की कोई मदद नहीं करती. यह भी सफ़ेद झूठ है. भारत सरकार बिजनेस घरानों को मदद के लिए सरकारी बैंकों से लाखों करोड़ रुपए का क़र्ज़ देती है. अगर बैंकों में पैसा नहीं है, तो नोटबंदी जैसे स्कीम लॉन्च करके पहले जनता का पैसा बैंकों में जमा कराती है. कॉरपोरेट अगर वह पैसा वापस नहीं कर पाते, तो उनका लोन रिस्ट्रक्चर करती है और कई बार माफ़ कर देती है. देश के बैंकों का ढेर सारा रुपया एनपीए या बैड लोन बन गया है, यानी जिसकी वसूली की उम्मीद कम या नहीं है. इसके अलावा कंपनियों को अक्सर टैक्स छूट और रियायत भी दी जाती है. जमीन भी कई बार आसान दर पर मुहैया कराई जाती है.

अगर सरकार के पास संसाधन नहीं हैं, तो सरकार वैशिक संस्थाओं से क़र्ज़ लेकर इनके प्रोजेक्ट के लिए रोड वग़ैरह बनवा कर देती है. उस क़र्ज़ की मार सब पर पड़ती है. देश के अंदर बिजनेश घराने अपना समान बेच पाएं, इसके लिए सरकार दूसरे देश से आने वाले सामानों पर ज़्यादा टैक्स लगा कर उसको महंगा कर देती है. घरेलू महंगे समान की मार भी आम आदमी पर ही पड़ती है. इस तरह अनगिनत तरीक़े हैं, जिनसे सरकार अमीरों की मदद करती है.

ग़रीबों को दी जाने वाली मदद से चिढ़ क्यों

अब सवाल उठता है कि ग़रीबों को दी जाने वाली सरकारी मदद से चिढ़ किसको है और क्यों है? अगर इस कथन की भी तहक़ीक़ात की जाए तो ग़रीबों को दी जाने वाली सरकारी मदद से देश के बिजनेस घरानों को नहीं, बल्कि नए-नए उभर रहे मध्यवर्ग को है. मध्यवर्ग को ये डर सताया करता है कि अगर ग़रीब ऊपर उठते चले गए तो उसको अंतर बनाए रखने के लिए और मेहनत करनी पड़ेगी. चूंकि यह वर्ग उच्च आय वर्ग से कम्पीट नहीं कर सकता, इसलिए अपनी श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए यह चाहता है कि ग़रीब-ग़रीब ही बना रहे. इसके लिए वह ग़रीबों को दी जाने वाली उन सभी सुविधाओं का विरोध करता है, जिसका उपयोग उसने ख़ुद या फिर उसके पूर्वजों ने किया था और उनकी तरक्की में जिन सुविधाओं का अहम योगदान रहा है.


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मध्यवर्ग का यह व्यवहार सिर्फ़ भारत तक सीमित नहीं है. अमेरिका के नोबेल विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज मध्यवर्ग की इस मनोदशा को ‘सीढ़ी छीनना’ बताते हैं. मध्यवर्ग पहले सीढ़ी पकड़ कर ख़ुद चढ़ जाता है, और बाद में उस सीढ़ी को ही ऊपर खींचने लगता है, ताकि कोई और ऊपर ना चढ़ आए. इसे भारत में शिक्षा के निजीकरण के समर्थन से समझ सकते हैं. मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा देश के सरकारी उच्च शिक्षण संस्थाओं में सस्ती शिक्षा हासिल करके ही खड़ा हुआ है, लेकिन अब वह चाहता है कि शिक्षा संस्थान प्राइवेट हो जाएं और वहां पढ़ने वाले ख़ुद अपना ख़र्च उठाएं.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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