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Tuesday, 17 December, 2024
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एनजीटी 21 के बजाय महज 6 सदस्यों से काम चला रहा है, जोनल बेंच 2 साल से खाली

एनजीटी का दावा है कि उसने 90 प्रतिशत मामलों का निपटारा किया है, लेकिन वकीलों को इसपर आपत्ति है उनका कहना है कि मामले अक्सर सुनवाई के लिए नहीं आते हैं.

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नई दिल्ली : राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की स्थापना 2011 में पर्यावरण से संबंधित मामलों के अधिकतम 6 महीने के भीतर समाधान में तेजी लाने के लिए की गई थी.

लेकिन आठ साल बाद, चेन्नई, भोपाल, कोलकाता और पुणे में उसके चार ज़ोनल बेंच में कोई जज नहीं है और अभी दो साल तक उनके पास कोई जज नहीं हैं.

एनजीटी एक्ट 2010 के तहत, ट्रिब्यूनल में पूर्णकालिक चेयरपर्सन और प्रत्येक में 20 न्यायिक और विशेषज्ञ सदस्य होने चाहिए. अधिनियम के अनुसार, ट्रिब्यूनल के पास 10 से कम भी सदस्य नहीं होने चाहिए. वर्तमान में इसमें मुख्य सदस्य और विशेष सदस्य के साथ चार न्यायाधीश हैं.

दो विशेषज्ञों को पिछले महीने ही नियुक्त किया गया था.

एनजीटी का दावा है कि उसने 31,000 मामलों में से लगभग 28,000 का निपटारा किया है. इनमें से 90 प्रतिशत मामले 2011 और 2019 के बीच के हैं, लेकिन वकीलों ने यह कहते हुए विवाद पैदा किया कि अक्सर मामले सुनवाई के लिए नहीं आते हैं.

एनजीटी में प्रैक्टिस करने वाले कई अधिवक्ताओं ने सरकार को रिक्तियों के लिए दोषी ठहराया है और संस्था को कमजोर करने के लिए जिम्मेदार ठहराया है. जिसे पर्यावरण की कीमत पर मनमाने विकास के खिलाफ बनाया गया है.

दिप्रिंट द्वारा भेजे गए एक सवाल का जवाब एनजीटी ने नहीं दिया. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से भी जवाब का इंतजार है, जिसकी एनजीटी में नियुक्तियों में अहम भूमिका है. जब वे जवाब देंगे तो यह रिपोर्ट अपडेट की जाएगी.

महत्वपूर्ण मामले सालों से लंबित

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल वर्तमान में एनजीटी के अध्यक्ष हैं. एनजीटी के 7 महीने बिना मुखिया के काम करने के बाद उन्हें जुलाई 2018 में (पूर्ववर्ती स्वतंत्र कुमार के कार्यकाल 19 दिसंबर 2017 को समाप्त होने) इस पद पर नियुक्त किया था.

न्यायमूर्ति एसपी वांगडी, न्यायमूर्ति रघुवेंद्र सिंह राठौर और न्यायमूर्ति के रामकृष्णन वर्तमान न्यायिक सदस्य हैं, जबकि सत्यवान सिंह गर्ब्याल, नागिन नंदा, सिद्धांत दास और सैबल दासगुप्ता विशेषज्ञ सदस्य हैं. सिद्धांत दास और सैबल दासगुप्ता पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधिकारी हैं, जिन्हें पिछले महीने एनजीटी में नियुक्त किया गया था. सभी चार विशेषज्ञ सदस्य भारतीय वन सेवा (आईएफएस) के अधिकारी हैं.

एनजीटी की एक प्रधान पीठ है, जिसकी अध्यक्षता चेयरपर्सन और दिल्ली (उत्तर क्षेत्र) में दो नियमित कोर्टरूम में होती है, जिसमें दक्षिण (चेन्नई), मध्य (भोपाल), पूर्वी (कोलकाता) और पश्चिमी (पुणे) भारत में चार अन्य क्षेत्रीय न्यायालय हैं.

पिछले दो वर्षों से न्यायाधीशों के बिना, चार ज़ोनल बेंच वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से कार्य कर रहे हैं, जिसमें दिल्ली स्थित सदस्य न्यायिक निर्णय करते हैं. वकीलों का कहना है कि इससे मामलों में देरी और सुनवाई को टाला जा रहा है.

एनजीटी में एक पर्यावरण वकील रित्विक दत्ता ने कहा, ‘2016 से पहले के सभी चार जोनल बेंच सुबह साढ़े 10 बजे से शाम साढ़े 4 बजे बजे तक कार्य करते थे. हालांकि, किसी भी जोनल बेंच पर कोई जज नहीं है, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग प्रति सप्ताह एक से दो घंटे तक होती है और इस तरह लंबित मामलों में भारी वृद्धि.’

एनजीटी के लंबित मामलों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, मामले सुनवाई के लिए नहीं आते हैं. ये सभी गलत आंकड़े हैं.

एनजीटी के समक्ष लंबित मामलों के बारे में पूछे जाने पर, वरिष्ठ अधिवक्ता राज पंजवानी ने तीन प्रमुख मामलों को सूचीबद्ध किया जो वर्षों से चल रहे हैं. यह अरावली पहाड़ियों के संरक्षण, अवैध रेत खनन और अतिक्रमणों से दिल्ली रिज के संरक्षण की चिंता करते हैं. उन्होंने कहा कि दिल्ली पीठ द्वारा मामलों की सुनवाई किए बिना पहले ही स्थगित कर दिए जाते हैं.

ट्रिब्यूनल में विशेषज्ञ आईएफएस अधिकारी हैं

जब 2011 में एनजीटी की स्थापना की गई थी, तो इस अदालत को इस तरह से विकसित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था कि सभी पर्यावरणीय मामलों को एनजीटी द्वारा नियंत्रित किया जायेगा.

हालांकि, 2014 के बाद से, केवल आईएफएस अधिकारियों को ही विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया गया है, फिलहाल एनजीटी का दायरा वनों से परे वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण, खतरनाक पदार्थों, अन्य पर्यावरणीय मुद्दों के बीच फैला हुआ है.


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पिछले विशेषज्ञ सदस्यों में शिक्षाविदों को भी शामिल किया गया है, जिसमें प्रो. पीसी मिश्रा, जो लखनऊ विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़े थे, कश्मीर विश्वविद्यालय में अनुसंधान के विकास केंद्र में निदेशक प्रो. एआर यूसुफ और प्रो. आर नागेंद्रन जिन्होंने सेंट जोसेफ कॉलेज, बेंगलुरु और गोवा कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाया है.

एनजीटी में पर्याप्त विशेषज्ञता की कमी ने भी सुप्रीम कोर्ट का ध्यान आकर्षित किया है.

हनुमान लक्ष्मण अरोस्कर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया केस में गोवा के मोपा में एक अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के लिए एनजीटी की पर्यावरणीय मंजूरी के एक मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, जिसकी अध्यक्षता करते हुए न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने पैनल में विशेषज्ञ सदस्यों की अनुपस्थिति पर सवाल उठाया है.

इस साल की शुरुआत में एनजीटी के फैसले को पलटते हुए अदालत ने कहा, ‘क़ानून द्वारा परिकल्पित न्यायिक और तकनीकी सदस्यों का मिश्रण इस कारण से है कि ट्रिब्यूनल को उन सवालों पर विचार करने के लिए कहा जाता है जिनमें विज्ञान और उसके इंटरफेस के आवेदन और मूल्यांकन शामिल हैं.’

पिछले महीने, अदालत ने एनजीटी के गैर-कार्यात्मक ज़ोनल बेंच पर भी ध्यान दिया.

4 अक्टूबर को न्यायमूर्ति एनवी रमण और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कोलकाता सरकार के वकील सुभाष दत्ता द्वारा पूर्वी पीठ को सुचारू रूप से चलाने के लिए दायर याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया.

इस नोटिस को जब जारी किया गया था तब याचिकाकर्ता के वकील आर वेंकटरमण ने तर्क दिया कि पूरी तरह से काम करने वाली एनजीटी बेंचों की कमी पर्यावरणीय न्याय में बाधा डाल रही है.

वकील ने कहा, ‘एनजीटी बेंच की पीठ बनी, लेकिन नियुक्ति की कमी के कारण, वे मुश्किल से काम कर पा रही हैं. याचिकाएं केवल कोलकाता और देश में अन्य जगहों पर प्राप्त होती हैं.’

वरिष्ठ अधिवक्ता ए.के. पंजवानी ने कहा, ‘वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में सप्ताह में दो बार एक घंटे ही सुनवाई होती है.

नॉन फॉर प्रॉफिट ट्रस्ट विंध्यन इकोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री फाउंडेशन से जुड़े पर्यावरणविद देबादित्य सिन्हा ने रिक्तियों के लिए सरकार को दोषी ठहराया.

पैनल के अध्यक्ष को सरकार द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से नियुक्त किया जाता है. न्यायिक और विशेषज्ञ सदस्यों को एक चयन समिति की सिफारिश पर सरकार चुनती है, जिसमें अध्यक्ष, एक आईआईटी निदेशक, पर्यावरण और वन नीति के विशेषज्ञ पर्यावरण मंत्री और पर्यावरण मंत्रालय के सचिव द्वारा नामित किए जाते हैं.

सिन्हा ने कहा, ‘सरकार का एकमात्र उद्देश्य संस्था को नष्ट करना है. जब न्यायिक बेंच एक जज और एक विशेषज्ञ सदस्य नियमित पीठ के साथ काम करता था, तो मजबूत फैसले दिए जाते थे.’

उन्होंने कहा कि रियल एस्टेट डेवलपर्स गोयल गंगा के खिलाफ पुणे एनजीटी की पीठ ने एक फैसला सुनाया था, जिन पर पर्यावरण नियमों का उल्लंघन करने के लिए 195 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया था.

दि प्रिंट द्वारा संपर्क किए गए वकीलों ने यह भी कहा कि रिक्तियों की वजह से मामलों को सुनवाई से पहले ही स्थगित कर दिया जाता है. पंजवानी ने कहा, ‘यहां तक ​​कि न्यायाधीश खुद भी जानते हैं कि इतने सारे मामलों को इतने न्यायाधीशों के लिए सुन पाना मानवीय रूप से असंभव है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘देश के पर्यावरण जस्टिस के पूरे प्रशासन यह बाधा बना हुआ है.’

नियुक्ति की शर्तें भ्रम पैदा करती हैं

इस साल 2 सितंबर को भारी रिक्तियों को लेकर सरकार ने दास और दासगुप्ता को विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त करने की घोषणा की. हालांकि, उनकी नियुक्ति की शर्तें ने उनके कार्यकाल के बारे में थोड़ी अस्पष्टता जाहिर की है.

दि प्रिंट द्वारा एक्सेस किये गए नियुक्ति आदेश के अनुसार दास और गुप्ता की नियुक्ति तीन साल के लिए की गयी है, जब तक कि अगला कोई आदेश नहीं आता हो.

यह अन्य विशेषज्ञ सदस्यों के लिए जारी किए गए नियुक्ति आदेशों से स्पष्ट रूप से भिन्न है, जिसमें कहा गया था कि उनका कार्यकाल पांच साल तक होगा और उनकी आयु 65 वर्ष होनी चाहिए.

इसके अलावा, एनजीटी अधिनियम में कहा गया है कि ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष और न्यायिक और विशेषज्ञ सदस्य ‘जिस पद पर वे अपने कार्यालय में होंगे, पांच वर्ष की अवधि के लिए उसी पद पर रहेंगे.’


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गजट अधिसूचना वेबसाइट पर अब भी नई नियुक्तियों की जानकारी नहीं है और जब द वायर ने आरटीआई से जवाब मांगा तो मंत्रालय ने कथित तौर पर उनके बारे में विवरण देने से इनकार कर दिया.

हालांकि, कुछ पर्यावरण कानून विशेषज्ञों ने विशेषज्ञ सदस्यों के रूप में दो सेवारत सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति पर भी सवाल उठाए हैं, जो बताते हैं कि दास वन महानिदेशक हैं और अतिरिक्त वन महानिदेशक (वन संरक्षण) सैबल दासगुप्ता हैं.

उन्होंने बताया कि एनजीटी अक्सर ऐसे मामलों की सुनवाई करता है. जहां वन क्षेत्रों में नियोजित परियोजनाओं के लिए दी गई मंजूरी को चुनौती दी जाती है और उन्होंने कहा, इससे समस्या पैदा हो सकती है.

हालांकि, वरिष्ठ वकील पंजवानी ने कहा कि ‘हितों का टकराव’ सवाल से बाहर था.

उन्होंने यह भी कहा कि एनजीटी का आदेश कहता है कि अगर सदस्यों ने किसी विशेष मामले को पहले हल किया है, तो उन्हें खुद इससे निपटना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा, ‘जब तक कि केंद्र सरकार का अगला कानून नहीं हो बनता, जहां ट्रिब्यूनल के न्यायाधीशों का कार्यकाल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद सभी ट्रिब्यूनल के बीच एक समान बनाया जाएगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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