जब हम पृथ्वीराज कपूर के बारे में सोचते हैं, तो सबसे पहले हमारे दिमाग में उनकी क्या छवि आती है? हिंदी सिनेमा के सरताज, रंगमंच के दादा, अकबर, अलेक्जेंडर वगैरह वैगरह. हम उनके बारे में शायद ही सोचे कि वो एक संयुक्त परिवार के थोड़े मसखरे पिता हो सकते हैं जो अपने पोते के साथ गाता है और नाचता है, अपने बड़े हो चुके बेटों को सजा के रूप में बेंच पर खड़ा कर देता है, अपनी बहुओं को शरारती गुमनाम चिट्ठियां भेजता है ताकि वे मूर्खों की तरह काम करना बंद कर दें.
तीन बहुरानियां में हमें पृथ्वीराज कपूर का यही रूप देखने को मिलता है, जिस वजह से इस अनोखी फिल्म को आज हम उनके जन्मदिन पर याद कर रहे हैं.
मध्यमवर्गीय परिवार की दास्तान
दीनानाथ (पृथ्वीराज कपूर ), एक सेवानिवृत्त स्कूली शिक्षक है. उनके तीन बेटे हैं- शंकर (आगा) एक संगीत शिक्षक है, राम (रमेश देव), एक उच्च न्यायालय के क्लर्क और कन्हैया (राजेंद्रनाथ), एक फार्मा कंपनी में सेल्समैन हैं. शंकर का विवाह पार्वती (सोवकर जानकी) से होता है, राम का विवाह सीता (कंचना) से होता है और कन्हैया की पत्नी का नाम राधा (जयंती) होता है, और फिर आते हैं बच्चे. घर का सारा हिस्सा बराबर बंटा हुआ है और सब लोग मिलजुल कर शांति से रहते हैं .
जीवन एकदम दुरुस्त है, पर तभी कहानी में एंट्री होती है उनकी पड़ोसी, प्रसिद्ध अभिनेत्री शीला देवी (शशिकला) की. वह उनके घर चाय पर आने के लिए राज़ी हो जाती है और इससे तीनों बहुएं और उनके पति इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि पूरे घर की काया पलट दी जाती है. नए कपड़े खरीदे जाते हैं, आभूषण उधार लिए जाते हैं, घर के तीन अलग-अलग हिस्सों को फिर से रंगा जाता है. विभिन्न महंगी वस्तुओं को उधार लिया जाता है या किश्तों के माध्यम से खरीदा जाता है और ये सब इसलिए किया जा रहा है ताकि शीला देवी को दिखा सकें कि यह परिवार उसकी दोस्ती के लायक है.
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ज़ाहिर सी बात है की ये सब करने से घरवालों का बैंक बैलेंस भी बिगड़ेगा और मानसिक संतुलन भी. बस इसी खींचतान की कहानी आगे दिखाई गयी जिसमें कई रोचक और हास्यास्पद मोड़ आते हैं. ज़रा सोच कर देखिये- क्या हाल होगा जब पार्वती अपने तीन बच्चों को घर में छुपा देना चाहती है ताकि शीला देवी यह न सोचें कि वो बूढ़ी हो चली हैं.
तीनों बहुएं शीला देवी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की चाहत में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती रहती हैं और यही दीनानाथ और उनके बेचारे पतियों की परेशानी और चिडचिड़ाट का सबब बन जाता है लेकिन मोड़ तब आता है जब पति भी अपनी नयी पड़ोसन से फायदा लेने के बारे में सोचने लगते हैं. राम एक्टर बनने के सपने देखने लगता है ,वहीं कन्हैया शीला को अपनी नयी ‘सिरदर्द वाली मशीन’ की ब्रांड अम्बेसडर बनाना चाहता है.
इस बीच शीला देवी, शंकर को अपना संगीत गुरू बना लेती है. शंकर इससे खुश ज़रूर है पर चाहता है कि इसकी भनक किसी को न लगे- खास तौर पर उसकी पत्नी को क्योंकि उनका रोमांस भी तभी शुरू हुआ था जब शंकर अपनी पत्नी का संगीत गुरु था.
बहुएं जो झगड़ने के बावजूद एक हैं
आप सोचेंगे कि तीन बहुओं की ये कहानी किसी मोड़ पर आकर कड़वाहट में बदल जाएगी. पर शुक्र है की इस फिल्म में महिलाओं के लिए ऐसी किसी पूर्वाग्रह को बल नहीं दिया गया है.
फिल्म इस दृश्य से शुरू होती है कि कौन जन्मदिन पर दीनानाथ को चाय परोसेगा और एक गाने में तीनों बहुओं को एक-दूसरे के साथ ख़ुशी से काम करते दिखाया गया है.
यहां तक कि जब महिलाएं शीला देवी का स्नेह पाने का हर संभव प्रयास कर रही हैं तो भी उनके बीच एकजुटता की एक मधुर भावना है. उदाहरण के लिए, पार्वती अपनी दोस्त से उधार लिया हुआ हीरों का हार बाकी दोनों को देती है और उनसे तब पहनने को कहती है जब भी अभिनेत्री उनके हिस्से में आएगी. इसके अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं हैं क्योंकि सबके पैसे पहले ही ख़त्म हो चुके हैं.
जब दीनानाथ अपने बेटों- बहुओं के इस पागलपन से तंग आ जाता है तो वो तीनो बहुओं को एक गुमनाम चिट्ठी लिखता है जिसमें उनके पतियों के शीला देवी के साथ चक्कर होने का झूठा ज़िक्र है, तब भी तीनों साथ मिलकर आने पतियों को सबक सिखाने का सोचती हैं.
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फिल्म में बहुत से गाने हैं और ये करीब तीन घंटे की फिल्म है. आजकल के कुछ दर्शकों को ये उबाऊ और बोझिल लग सकती है पर अगर आप हास्य का आनंद लेना चाहते हैं तो ये फिल्म आप ज़रूर देख सकते हैं.
अंत में, हमेशा की तरह सब सुलझ जाता है और दीनानाथ बता देता है कि उसने ऐसा क्यों किया. जो मिला है उस में संतुष्ट रहने और एक परिवार के तौर पर साथ रहने का एक प्यारा संदेश ये फिल्म देती है.
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