चलिये अच्छा हुआ कि गोपाल कांड के बहाने ही सही राजनीति और विशेषकर सत्ता पर काबिज होने के लिये राजनीतिक गठजोड़ में बाहुबलियों के सहयोग का मामला नये सिरे से सुर्खियों में आया. इस घटना ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आपराधिक पृष्ठभूमि या बाहुबलियों को लोकतांत्रिक पर्व में भूमिका निभाने से कैसे दूर रखा जाये. क्या अब राजनीतिक दलों में गंभीर अपराधों के आरोपियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने पर आम सहमति बनेगी?
गोपाल कांडा द्वारा हरियाणा में भाजपा को समर्थन देने की घोषणा भले ही इस पार्टी के ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ के संबंध में उसके दावों की शुचिता को संदेह के घेरे में ला रही हो लेकिन हकीकत तो यह है कि अधिकांश राजनीतिक दल इस बीमारी से ग्रस्त हैं.
इतिहास को खंगालें तो पता चलेगा कि परंपरा की नींव कांग्रेस ने ही डाली और उसने इंडियन एयरलाइंस के विमान का 1978 में अपहरण करने वाले दो नेताओं को भरपूर सम्मान भी दिया.
जनता पार्टी के शासनकाल में दिसंबर, 1978 में युवक कांग्रेस के दो सदस्यों भोला पांडे और देवेन्द्र पांडे ने इंडियन एयरलाइंस के विमान का अपहरण किया था. अपहर्ताओं ने इन्दिरा गांधी की रिहाई, इन्दिरा गांधी और संजय गांधी के खिलाफ दर्ज सारे आपराधिक मामले वापस लेने और जनता सरकार के इस्तीफे की मांग की थी. इन दोनों अपहर्ताओं को बाद में कांग्रेस ने ही उप्र विधान सभा के लिये टिकट देकर अनुग्रहित भी किया था.
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यहीं से राजनीति के अपराधीकरण का सिलसिला शुरू हुआ और धीरे धीरे राजनीति में बाहुबल और धनबल का प्रभाव बढ़ता गया. स्थिति यह है कि अगर आप राजनीति के अपराधीकरण के लिये इस घटना का जिक्र करें तो तत्काल दलील दी जाती है कि पुरानी बातों में क्या रखा है, हमें वर्तमान राजनीति के संदर्भ में चर्चा करनी चाहिए.
कामन काज और दूसरे गैर सरकारी संगठनों तथा अन्य व्यक्ति सक्रिय नहीं होते तो देश की राजनीति में अहम भूमिका निभा रहे इन बाहुबलियों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मामले आज भी सामने नहीं आते. इन संगठनों और व्यक्तियों के प्रयासों का ही नतीजा था कि न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि सभी प्रत्याशियों के लिये नामांकन पत्र के साथ हलफनामे पर यह बताना अनिवार्य होगा कि उनके खिलाफ कितने और कौन कौन से आपराधिक मामले लंबित हैं.
लोकतांत्रिक प्रक्रिया या कहें कि चुनाव लड़ने की प्रक्रिया से आपराधिक छवि वाले व्यक्तियों को बाहर करने के बारे में भले ही निर्वाचन आयोग और न्यायपालिका लगातार जोर देती रही लेकिन राजनीतिक दलों ने कभी भी इसके प्रति गंभीरता नहीं दिखायी.
जनप्रतिनिधित्व कानून में प्रावधान था कि दो साल या इससे अधिक की सजा पाने वाला व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य होगा, लेकिन अगर ऐसी सजा पाने वाला व्यक्ति सांसद या विधायक है और उसने इस फैसले को तीन महीने के भीतर चुनौती दे दी तो अयोग्यता का प्रावधान उस पर लागू नहीं होगा. मतलब, अदालत द्वारा दोषी ठहराये जाने के बावजूद विधायक या सांसद अपने पद पर बने रह सकते थे और अपील लंबित होने के दौरान अगला चुनाव भी लड़ सकते थे.
आपराधिक तत्वों को सदन से दूर रखने के मकसद से न्यायालय ने जुलाई 2013 में एक फैसले में जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा आठ:4ः को असंवैधानिक करार दे दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि सांसदों और विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म होने लगी. इस निर्णय की पहली गाज राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव पर गिरी जिन्हे अक्टूबर 2013 में चारा घोटाले से संबंधित एक मुकदमे में पांच साल की सजा सुनायी गयी थी.
मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार इस न्यायिक व्यवस्था को खत्म करना चाहती थी. लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी के कड़े रुख ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया था. इस बीच, संप्रग सरकार संसद और विधान मंडलों से दागी व्यक्तियों को बाहर करने के लिये हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे कम से कम सात साल की सजा वाले अपराधों के आरोपियों को चुनाव प्रक्रिया से दूर रखने के लिये कानून बनाना चाहती थी. लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकी.
इस संबंध में निर्वाचन आयोग का विचार था कि उन व्यक्तियों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने का प्रावधान किया जाये जिनके खिलाफ संगीन अपराध में शामिल होने के आरोप में अदालत में अभियोग निर्धारित हो चुके हैं और आरोप सिद्ध होने पर कम से कम पांच साल की कैद हो सकती है.
आपराधिक छवि वाले नेताओं के प्रति सरकारों के ढुलमुल रवैये को देखते हुये ही एक बार फिर उच्चतम न्यायालय ने ऐसे लोगों के मुकदमों की तेजी से सुनवाई करने का आदेश दिया. न्यायालय ने 10 मार्च 2014 को अपने एक आदेश में कहा कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8:1ः, धारा 8:2ः और धारा 8:3ः के दायरे में आने वाले अपराधों के लिये मुकदमों का सामना कर रहे सांसदों और विधायकों की संलिप्तता वाले वे मामले, जिनमे आरोप निर्धारित हो चुके हैं, की सुनवाई यथासंभव एक साल के भीतर पूरी की जाये.
इसके बावजूद निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के खिलाफ लंबित आपराधिक मुकदमों के तेजी से निपटारे की दिशा में कोई गभीर प्रयास नहीं किये गये.
अंततः 2018 में शीर्ष अदालत ने एक बार फिर राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कराने के प्रयास में माननीयों से संबंधित आपराधिक मुकदमों की सुनवाई के लिये विशेष अदालतें गठित करने का आदेश दिया. न्यायालय ने यह भी कहा कि विशेष अदालतें सांसदों और विधायकों से संबंधित उन आपराधिक मुकदमों को प्राथमिकता दें जिनमें अपराध के लिये उम्र कैद या मौत की सजा हो सकती है. ऐसे मुकदमों की सुनवाई के लिये देश में 12 विशेष अदालतें गठित भी की गयी हैं.
दो साल या इससे अधिक सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से खत्म करने की न्यायिक व्यवस्था से लगे झटके से राजनीतिक दल अभी उबर भी नहीं पाये थे कि 27 अगस्त, 2014 को उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने एक अन्य फैसले में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों को सुझाव दे दिया कि बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों तथा भ्रष्टाचार के आरोपों में अदालत में मुकदमों का सामना कर रहे व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया जाना चाहिए.
संविधान पीठ ने इस संबंध में किसी भी प्रकार का संशय दूर करते हुये कहा था कि जब न्यायपालिका और प्रशासनिक सेवाओं में संदिग्ध छवि वाले व्यक्तियों की नियुक्ति नहीं हो सकती तो फिर मंत्रिमंडल में ऐसे व्यक्तियों को कैसे जगह दी जा सकती है.
गोपाल कांडा के खिलाफ लंबित आपराधिक मामले के संदर्भ में पूर्व और वर्तमान सांसदों तथा विधायकों की उस सूची पर भी नजर डालना उचित होगा जो 2017 में एक मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय में पेश की गयी थी. इस प्रकरण में न्याय मित्र की भूमिका में वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया द्वारा न्यायालय को उपलब्ध करायी गयी.
2017 में लंबित 4122 आपराधिक मामलों में से 2324 मामले वर्तमान सांसदों और विधायकों से संबंधित थे जबकि 1675 मामले पूर्व विधायकों के खिलाफ थे. इनमें से 1991 आपराधिक मामलों में आरोप ही तय नहीं हुये. पेश जानकारी के मुताबिक 264 मामलों में उच्च न्यायालय के स्थगन की वजह से आरोप निर्धारित नहीं हुये.
ये आपराधिक मामले देश के 724 जिलों में से 440 जिलों में लंबित हैं. इनमें से 505 मुकदमे सत्र अदालतों में और 1926 मामले मजिस्टे्ट अदालत में लंबित हैं. इनके अलावा 33 मुकदमे विशेष अदालत में लंबित हैं जबकि 1650 मुकदमों को शीर्ष अदालत के निर्देश पर सांसदों-विधायकों के लिये बनी विशेष अदालतों में स्थानांतरित किये गये हैं. इसी से राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त कराने के प्रति सत्तारूढ़ दलों की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है.
उत्तर प्रदेश में जनप्रतिनिधियों के खिलाफ लंबित मामलों की स्थिति का जिक्र करते हुये कहा गया है कि 2002 से 2016 के दरम्यान पूर्व सांसद अतीक अहमद के खिलाफ 22 प्राथमिकी दर्ज हुयीं. इनमें से 10 मामले उम्रकैद या मौत की सजा के दंडनीय अपराध हैं और यह विभिन्न चरणों में लंबित हैं. इसी तरह, पूर्व विधायक पवन कुमार पाण्डे के खिलाफ 1989 से 2017 के दौरान दर्ज 12 प्राथमिकी में से तीन मामले उम्र कैद या मौत की सजा के दण्डनीय अपराध से संबंधित हैं जो विभिन्न चरणों में लंबित हैं. एक पूर्व विधायक हैं खालिद अजीम जिनके खिलाफ 2003 से 2011 के दौरान दर्ज छह प्राथमिकी में से पांच मामले उम्र कैद या मौत की सजा के दंडनीय अपराध कें हैं और वे विभिन्न चरणों में लंबित हैं.
एक वर्तमान विधायक उपेन्द्र तिवारी के खिलाफ 1996 से 2011 के दौरान छह प्राथमिकी दर्ज हुईं इनमें से तीन मामले उम्र कैद या मौत की सजा के दंडनीय अपराध से संबंधित हैं जो इस समय विभिन्न चरणों में लंबित हैं. इसी तरह, पूर्व विधायक छोटेलाल गंगवार के खिलाफ 17 मार्च 1998 को प्राथमिकी दर्ज हुयी जिसमें 14 दिसंबर, 1999 को आरोप पत्र दाखिल हुआ लेकिन इसकी मौजूदा स्थिति की कोई जानकारी नहीं है.
न्याय मित्र के विवरण के अनुसार बिहार में 1991 से 2018 के दौरान दर्ज 23 ऐसे मामले अभी भी लंबित हैं जिनमें उम्र कैद की सजा हो सकती है.
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इस राज्य में वर्तमान विधायक शमीम अख्तर के खिलाफ 27 मई, 1991 को उम्रकैद की सजा के दंडनीय अपराध के सिलसिले में प्राथमिकी दर्ज हुयी. इसमे 6 दिसंबर, 1994 को आरोप पत्र दाखिल हुआ लेकिन उच्च न्यायालय की रिपोर्ट के अनुसार इसमें अभी तक आरोप निर्धारित नहीं हुये हैं. विधायक अनंत सिंह के खिलाफ 13 मार्च, 1993 को उम्रकैद की सजा का प्रावधान करने संबंधी दंडनीय अपराध के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की गयी थी. इसमें 14 मार्च 1994 को आरोप पत्र दाखिल हुआ लेकिन अभी तक आरोप तय नहीं हुये.
विधायक रंधीर कुमार सोनी के खिलाफ 22 नवंबर, 2005 को ऐसे ही अपराध के आरोप में प्राथमिकी दर्ज हुयी जिसमें 31 मार्च, 2008 को आरोप पत्र दाखिल हुआ लेकिन यहां भी अभी तक आरोप तय नहीं हुये हैं. एक अन्य विधायक सरफराज आलम हैं जिनके खिलाफ 17 मई, 1996 को प्राथमिकी दर्ज हुयी जिसमें 11 दिसंबर, 1999 को आरोप पत्र दाखिल किया गया पर आरोप निर्धारित नहीं हुये.
कमोबेश, केरल, ओडीशा, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्, पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और हिमाचल प्रदेश सहित कई अन्य राज्यों में भी सांसदों और विधायकों के खिलाफ दर्ज अनेक मामलों की स्थिति कुछ ऐसी ही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)