अंतरराष्ट्रीय साहित्य में रुचि रखने वालों के अलावा भारत में ओल्गा तोकार्चुक को कम लोग ही जानते हैं. हालांकि, उनकी रचनाओं का हिंदी में अनुवाद कमरे और अन्य कहानियां नाम से 2014 में हो चुका है, वे भारत में बुक फेस्टिवल में आ चुकी हैं, देश के कई हिस्सों में घूम चुकी हैं और साहित्यिक पत्रिका हंस में उनकी अनुदित कहानी छप चुकी है. लेकिन अब साहित्य का नोबेल मिलने के बाद उन्हें लेकर नए सिरे से जिज्ञासा बढ़ी है.
हमारे लिए उन्हें जानना जरूरी है. सिर्फ इसलिए नहीं कि पोलैंड की 57 साल की ओल्गा को 2018 के लिए नोबेल साहित्य पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है. इसलिए भी नहीं कि साहित्य के लिए अब तक सिर्फ 15 महिलाओं को नोबेल से नवाजा गया है और किसी महिला का नोबेल जीतना एक बड़ी बात है.
ओल्गा को जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि वह भी अपने देश में बहुलतावाद की हिमायती हैं और उनकी देश की सरकार भी लगातार उन्हें देशद्रोही बताने पर तुली हुई है. भारत में भी कई लेखकों के साथ ऐसा हो रहा है.
ओल्गा अब तक कई किताबें लिख चुकी हैं. पिछले साल उनके उपन्यास ‘फ्लाइट्स’ को मैन बुकर पुरस्कार मिला, तब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें लोकप्रियता मिली. यह उपन्यास उन्होंने 2007 में पोलिश भाषा में लिखा था- जब उसका अंग्रेजी अनुवाद हुआ तब लोगों ने ओल्गा को जानना शुरू किया. उनकी एक और मशहूर किताब है, ‘ड्राइव योर प्लो ओवर द बोन्स ऑफ द डेड’. यह एक बुजुर्ग महिला की कहानी है जो हत्या की जांच करते हुए सत्ता, धन और पितृसत्ता से जूझती है. इस उपन्यास पर जब पोलिश फिल्मकार एग्निजेस्का हॉलैंड ने ‘पोकोट’ नामक फिल्म बनाई, तो पोलिश न्यूज एजेंसी ने उसे एंटी क्रिस्चियन फिल्म बताया जो इको टेररिज्म को बढ़ावा देती है.
पोलेंड के समाज की दुखती रगों के छूती हैं ओल्गा
अपने देश में ओल्गा देशद्रोही, धर्मद्रोही हैं. साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलना उनके देश के लिए गर्व की बात होनी चाहिए. लेकिन पोलैंड में इसका जश्न नहीं मनाया जा रहा. पोलैंड तो एक अलग ही बहस में अपनी ऊर्जा लगाए हुए है कि पोलिश होने के क्या मायने हैं. ओल्गा के नोबेल ने इस बहस की आग में घी डालने का काम किया है. लोग अलग-अलग किस्म की प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. कुछेक का कहना है कि ओल्गा ने देश के 20वीं शताब्दी के इतिहास की त्रासद परतें खोली हैं पर कई के लिए वह गद्दार हैं.
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पोलैंड का इतिहास विभिन्न जातीय समूहों के घुल-मिल जाने का इतिहास है, जिसे अंग्रेजी में एथनिक मिक्सिंग कहते हैं. यानी वहां पोल, उक्रेनी, लिथुआन, जर्मन, रूथेन, यहूदी तथा कई अन्य समूहों के लोग मिल-जुलकर रहते आए हैं. ओल्गा इसी विविधता, अनेकता की पैरोकार हैं. उनकी किताबों में पोलैंड के इसी इतिहास के दर्शन होते हैं. पर पोलैंड की दक्षिणपंथी सरकार लगातार अनेकतावाद पर प्रहार कर रही है. पोलिश होने के मायने तलाशे जा रहे हैं. अपने और पराए की परिभाषाएं रची जा रही हैं.
सरकार साफ कह चुकी है कि प्रवासी देश के लिए खतरा हैं. इसीलिए 2015 में सत्ता संभालने के बाद पोलैंड की लॉ एंड जस्टिस पार्टी ने पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के शरणार्थियों पर प्रतिबंध लगा दिया, पर ओल्गा उन सबकी हिमायती हैं. इसीलिए सरकार उनका विरोध कर रही है. पोलैंड की न्याय और कानून मंत्री कह चुकी हैं कि ओल्गा की रचनाओं से पोलैंड को बदनाम किया जा रहा है. वह इतिहास के बारे में झूठ बोल रही हैं. वह इतिहास जिसमें नाजियों के साथ मिलकर पोलैंड कितने ही नरसंहारों में शामिल रहा है.
लेखक की स्वतंत्रता पर सरकारों का पहरा
जब लेखक, पत्रकार देशद्रोही बताए जाते हैं तो समझ लेना चाहिए कि समाज का बंटाधार होने वाला है. यह सत्ता के बढ़ते अहंकार का सबूत भी है. यह क्या इत्तेफाक है कि अपने देश में भी कलाकारों, साहित्यकारों, फिल्मकारों को लगातार देशद्रोही बताया जा रहा है. सवाल करना और उसके जवाब तलाशना मुश्किल होता जा रहा है.
जो चीज उन्हें भारत के कलाकारों, साहित्यकारों से जोड़ती है, वह यह है कि ये सभी लोग समाज को तर्कशील बनाना चाहते हैं. समाज में संवाद और विवाद की जगह सुरक्षित रखना चाहते हैं. ओल्गा जैसे तमाम लोग संकीर्णता से परे जाकर मानवीयता की भाषा में बात करने के हामी हैं. अगर ओल्गा अपने देश में सभी जातीय समूहों और शरणार्थियों की वकालत करती हैं तो मारे जाने से पहले गौरी लंकेश भी ट्विटर पर रोहिंग्या मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करने की बात कर रही थीं. यह भी इत्तेफाक है कि गौरी लंकेश की तरह ओल्गा को भी हत्या की धमकियां मिलती रही हैं.
जनभाषा में लिखने में जोखिम ज्यादा
ओल्गा की भाषा पोलिश है. यह याद रखना इसलिए जरूरी है कि क्षेत्रीय भाषाओं में सच बोलना आज के दौर में बड़ा जोखिम है. वह चाहे पोलैंड हो या भारत के छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र या कर्नाटक जैसे राज्य. गौरी लंकेश का कन्नड़ या दाभोलकर या गोविंद पनसारे का मराठी में लिखना और बोलना सचमुच बहुत मुश्किल था. दुनिया के हर कोने में सत्ता उन लोगों से खतरा महसूस करती है जो जनता से जनता की भाषा में बात करते हैं और उन्हें तार्किक और लोकतांत्रिक होने की दिशा में प्रेरित करते हैं.
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जैसे पोलिश होने के मायने बहुत वृहद हैं, उसी तरह भारतीय होने का अर्थ भी बहुत व्यापक है. आज भारतीय होने को खास तरह से राष्ट्रीय होने भर से जोड़ा जा रहा है और जैसा कि मशहूर साहित्यकार प्रेमचंद कई साल पहले लिख गए थे- देश के भीतर राष्ट्रीयता का प्रश्न हिंदू-मुस्लिम दायरे में बंटा हुआ है. उन्होंने ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ नामक निबंध में राष्ट्रीयता को वर्तमान युग का कोढ़ बताया था. इस मायने में प्रेमचंद के विचार रवींद्रनाथ टैगोर से बहुत मिलते हैं, जो मानवता को राष्ट्रवाद के ऊपर रखते हैं.
ओल्गा ने एक इंटरव्यू में कहा था कि पोलैंड को एक सहिष्णु देश बनना चाहिए. एक ऐसा देश जहां अल्पसंख्यकों के साथ कोई ज्यादती न हो. उन्होंने कहा था कि – ‘अगर हमने अतीत में ज्यादतियां की हैं, तो हमें इसकी माफी मांगनी चाहिए.’ ओल्गा के इस संदेश को दुनिया के हर कोने में सुना जाना चाहिए. अंध-राष्ट्रवाद के जुनून के बीच इस तरह के तार्किक और मानवीय आवाजों की जरूरत और ज्यादा है.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)