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Monday, 18 November, 2024
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राफेल शस्त्र पूजा पर राजनाथ सिंह की आलोचना राजनीतिक आत्महत्या की तरह है

अधिक समय नहीं बीता है जब लगभग संपूर्ण भारत गणेश प्रतिमाओं को दूध पिलाने के लिए मंदिरों की कतारों में लगा था. तो फिर आज विवाद क्यों?

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फ्रांस से खरीदे गए पहले राफेल की शस्त्र पूजा के दौरान रक्षामंत्री राजनाथ सिंह द्वारा जेट पर नारियल रखने और ऊं लिखे जाने पर हुआ हंगामा राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से गैर ज़रूरी था. ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि मैं धार्मिक रस्मों में यकीन करती हूं. मैं नहीं करती. विवाद अनावश्यक इसलिए था, क्योंकि करोड़ों भारतीय इन रस्मों को मानते हैं. जब बड़े पद पर बैठा कोई व्यक्ति ऐसा करे, तो इसे पोंगापंथ और अंधविश्वास कह कर खारिज करना तकनीकी रूप से भले सही हो, पर मौजूदा दौर में इसे ख़रीज किया जाना राजनीतिक दृष्टि से आत्मघाती है.

भाजपा के आलोचकों को समझना चाहिए कि पिछले हफ्ते राजनाथ सिंह धर्म में विश्वास रखने वाले हिंदुओं के प्रतिनिधि की भूमिका निभा रहे थे और उन्होंने जो किया उसकी आलोचना उनके आधार को मजबूत करने का ही काम करेगी.

जब राजनाथ सिंह ने राफेल जेट पर लाल रंग का ऊं लिखा तो ये दृश्य पूरे भारत के लाखों हिंदू परिवारों के मन में बसी उस छवि का ही विस्तार था, जिसमें घर के बड़े-बुजुर्ग ऐसा करते दिखाई देते हैं. जेट पर लिखा ऊं पड़ोस की किराना दुकानों के बिलों पर सबसे ऊपर लिखे ऊं से अलग नहीं था और अपनी नई कार को आशीर्वाद के लिए सबसे पहले मंदिर ले जाने वाले लोग भी तो ऐसा ही करते हैं.

असल में राफेल पर ऊं अतुल्य भारत अभियान के पिक्चर-पोस्टकार्ड पर अंकित होने लायक छवि थी. ऐसी ही बात कवि अशोक वाजपेयी ने बरसों पहले दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में आयोजित एक कार्यक्रम में कही थी, ‘भारत की जीवन शैली में समकालिकता है– हम एक साथ कई शताब्दियों में जीते हैं.’ इसी बात पर तो भारतीयों को गर्व होता है कि वे 21वीं सदी में रहते हुए भी अटूट प्राचीन परंपराओं का पालन करते हैं और पश्चिम जगत भारत को इसी आधार पर मनमोहक, रंगीन और आकर्षक पाता है.


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लेकिन आक्रामक राजनीतिक हिंदुत्व का इस वक्त भारत में इतना बोलबाला है कि श्रेष्ठता का भाव रखने वाले भारतीय नास्तिक और यूरोपीय शैली के उदारवादी (मेरे समान) अब सार्वजनिक जीवन में धर्म की आलोचना का ख़तरा नहीं उठा सकते. उन्हें धर्म को स्वीकारने की ज़रूरत नहीं है, बस उन्हें भारतीयों में रची-बसी चरम धार्मिकता और इसरो के अंतरिक्ष मिशनों की शुभयात्रा के लिए की जाने वाली पूजा पर चिढ़ना छोड़ने की ज़रूरत है. भारत में सही अर्थों में चर्च-राज्य पृथक्करण जैसी कोई बात ना तो पहले थी और ना ही आगे कभी होगी.

राजनीति के लिए तार्किकता का बलिदान

फ्रांस में हुए भारतीय अंधविश्वास के प्रदर्शन को सिर्फ मीमों, ट्वीटों और राजनीतिक कार्टूनों में ही निशाना नहीं बनाया गया, बल्कि नेताओं ने भी ऐसा किया. लेकिन कार्टूनिस्टों, मीम बनाने वालों और ट्विटर स्टारों की चुनाव लड़ने और जीतने की मजबूरी नहीं होती, जबकि ये नेताओं का मुख्य काम है. कांग्रेस पार्टी के मल्लिकार्जुन खड़गे और संदीप दीक्षित जैसे नेताओं द्वारा इसे तमाशा बताया जाना तथा विजयादशमी और राफेल के बीच संबंधों पर सवाल उठाने को उनकी राजनीतिक अदूरदर्शिता ही कहा जाएगा. एनसीपी के शरद पवार का राफेल जेट की नई ट्रक से तुलना भी इसी श्रेणी में आता है.

भारत के नेतागण धार्मिक आयोजनों और प्रतीकों का नियमित रूप से पालन करते रहते हैं. सोनिया गांधी लगभग हमेशा ही अपनी कलाई पर हिंदुओं का लाल धागा बांधे रहती हैं, अन्य नेता अक्सर शपथ ग्रहण करने या मंत्रिमंडल गठित करने से पहले राहु-केतु की दशाओं पर गौर करना नहीं भूलते.

राफेल पर ऊं इसी कड़ी का अलगा हिस्सा मात्र है. लगभग हर प्रधानमंत्री ने तिरुपति मंदिर की यात्रा की है, इफ्तार पार्टियों में भाग लिया है, सिखों की पगड़ी धारण की है, तलवार उठाई है और रावण के पुतले पर तीर चलाने का काम किया है. यहां तक कि कांग्रेस सांसद शशि थरूर जैसे उदारवादी नेता को भी सबरीमाला के भक्तों की शरण में जाना और लैंगिक अधिकारों से पल्ला झाड़ना पड़ा था.

पिछले तीन दशकों में कितने ही लोग अयोध्या विवाद की भेंट चढ़ गए, क्योंकि जब बात जनता की अंध-आस्था की हो तो सारी दलीलें बेअसर हो जाती हैं. धार्मिक अनुष्ठान बहुत से लोगों को अतार्किक लगते होंगे, पर इस देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपनी तर्कहीनता के नाम पर मरने-मारने पर उतारू हो सकते हैं.

धर्म में विश्वास रखने वाले

यहां मैं 2001 की एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगी. भारतीय विदेश मंत्रालय ने विदेशी मीडिया के लिए दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में रात्रिभोज का आयोजन किया था. तब मैं ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ के लिए काम करती थी. मंत्रालय की प्रवक्ता ने नई-नई भारत आई एक अमेरिकी पत्रकार से जानना चाहा कि उसे भारत कैसा लगा.

उस पत्रकार का जवाब था, ‘मैं ये देखकर चकित हूं कि भारतीय कितने ज़्यादा धार्मिक हैं.’

इस पर मंत्रालय की प्रवक्ता हैरान, आहत और असहज दिखी. उन्होंने, ‘सच में? धार्मिक? भारतीय इतने धार्मिक नहीं हैं. ऐसा तो नहीं कि आप पाकिस्तानियों की बात कर रही हैं?’

विदेशी पत्रकार ने जवाब दिया, ‘नहीं, मैंने भारतीयों के धार्मिक होने की ही बात की थी.’

उस घटना को मैं भूल नहीं पाई. अंग्रेज़ी में पली-पढ़ी और दुनिया देख चुकी एक राजनयिक या तो भारतीयों को बहुत धार्मिक नहीं मानती थी या उसे भारतीयों के बहुत ज़्यादा धार्मिक होने की छवि पसंद नहीं थी.

हालांकि, इस बातचीत के मात्र छह साल पहले लगभग पूरा भारत गणेश की मूर्तियों को दूध पिलाने के लिए मंदिरों की कतारों में लगा था.

तमाम चीज़ों का सिद्धांत

गणेश का दूध पीना मेरे लिए समकालीन भारत को समझने का तमाम बातों का सिद्धांत है. ये कोई 100 साल पहले की बात नहीं है. ये पीढ़ियों पूर्व की घटना नहीं है. ये घटना मात्र दो दशक पहले की है. काम करते, वोट देते और व्हाट्सएप संदेशों को फॉरवार्ड करते गणेश को दूध पिलाने वाले वही लोग आज भी मौजूद हैं.

इतनी अधिक बेरोजगारी होने के बाद भी लोग भाजपा को क्यों वोट दे रहे हैं? लिंचिंग की घटनाओं में भयावह वृद्धि के बावजूद लोग भीड़ के हाथों लोगों के मारे जाने को चिंता की बात क्यों नहीं मानते? क्यों बुद्धिमान लोग बिल्कुल झूठे व्हाट्सएप संदेशों पर यकीन करने को तैयार हैं? लोग अब भी क्यों मानते हैं कि नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस पार्टी का उद्धार कर सकता है, जबकि सबूत इसके उलट हैं?


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क्योंकि लोग अंध-आस्था से बंधे हैं और उन्हें अपनी मूल भावनाओं के ख़िलाफ़ विवेकपूर्ण दलील पसंद नहीं आती. अधिक समय नहीं बीता है, जब हमारे परिवार और पड़ोस के लोगों ने मान लिया था कि गणेश की मूर्तियां दूध पीती हैं.

इसका मतलब ये नहीं कि लोग स्वभावत- मूर्ख होते हैं, लेकिन अविश्वास को जानबूझ कर दबाना एक प्रभावी प्रवृति है. वहीं, विश्वास ने हमेशा बड़े कार्यों को संभव करने और ईवीएम मशीनों के बटन खटकाते जाने का काम किया है.

यहां तक कि जान गंवाने वाले नास्तिक एक्टिविस्ट नरेंद्र दाभोलकर को भी मानना पड़ा था कि एक व्यक्ति का अंधविश्वास दूसरे की भक्तिमय श्रद्धा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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