बहुत ज़रूरी, बिल्कुल अहम, अब-नहीं-तो-कभी-नहीं वाले वंदे मातरम डिबेट के निपट जाने के बाद, संसद ने एक साल के गैप के बाद “चुनावी सुधार” को अपने एजेंडा में रखा है. यह चिंता की बात है. जब भी नरेंद्र मोदी सरकार किसी संस्था को कमज़ोर करना चाहती है, वह “सुधार” की बात करना शुरू कर देती है.
नतीजे हमेशा एक जैसे रहते हैं. हर “चुनावी सुधार” किसी न किसी तरह पहले से ही झुके हुए खेल के मैदान में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को और फायदा पहुंचा देता है. सोचिए कैसे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को अपारदर्शी इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए छिपाया गया. कैसे असम और जम्मू-कश्मीर में सीमांकन के नाम पर सीटों की नई बंटवारा-रेखा बीजेपी के पक्ष में गढ़ दी गई. इसी तरह बिहार में जल्दबाज़ी में किया गया स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) भी एक ऐसे मुख्यमंत्री के लिए फायदेमंद रहा जो दो दशकों से सत्ता में हैं और “जिनके मानसिक संतुलन पर सवाल उठाये जा रहे थे”
और फिर है 129वां संविधान संशोधन विधेयक, जिसे “वन नेशन, वन इलेक्शन” भी कहते हैं—जो लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की बात करता है. संघीय ढांचे के खिलाफ, असंवैधानिक और कमजोर आर्थिक तर्कों पर आधारित होने के आरोपों के बाद यह विधेयक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेज दिया गया. फिर भी यह सरकार के एजेंडा से गायब नहीं हुआ है, यह सत्ता पक्ष के राजनीतिक फायदे के लिए राष्ट्रीय राजनीति को नए ढंग से गढ़ने की एक कोशिश है.
उधर भारत के मतदाता सूची में करोड़ों फर्ज़ी वोटरों का खुलासा करने पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी की बात पर भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) की प्रतिक्रिया क्या रही? टालमटोल, नाराज़गी, फिल्मी डायलॉग. आयोग ने हर कदम पर रोक ही लगाई—चाहे मशीन-पढ़ने योग्य मतदाता सूची देने से इनकार करना हो, या बूथों से सीसीटीवी फुटेज के गायब होने पर सफाई देने से बचना. या फिर चुनाव आयुक्त चुनने की समिति से भारत के मुख्य न्यायाधीश को हटाना. यहां तक कि बिहार में भी, ईसीआई की “शुद्धिकरण” प्रक्रिया के बाद भी पांच लाख से ज्यादा डुप्लीकेट वोटर लिस्ट में मौजूद मिले जिससे आयोग की नीयत पर सवाल उठते हैं.
“सुधार नहीं, बिगाड़”—यह चुनावी प्रक्रिया को लेकर मोदी सरकार के पूरे तरीके का ज्यादा सही वर्णन है. यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है. रिकॉर्ड देख लीजिए.
स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन
आम तौर पर, अगर SIR अच्छी तरह प्लान करके और सही तरीके से किया जाए, तो उसे लेकर किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन हम सब जानते हैं कि बिहार में चुनाव से कुछ महीने पहले SIR कैसे थोपा गया—बिना किसी सलाह-मशविरा, बिना पहले से सूचना दिए, बिना किसी तैयारी के. इससे वोटरों में अफरा-तफरी और घबराहट फैल गई, जब तक कि सुप्रीम कोर्ट ने दखल देकर प्रक्रिया को सामान्य करने की कोशिश नहीं की. अब इसे दूसरे राज्यों में भी लागू किया जा रहा है और वही हाल हो रहा है यहां तक कि बूथ-लेवल अफसरों पर इतना काम डाल दिया गया कि आत्महत्याओं की खबरें तक आ गईं.
ऐसे कदमों की वजह से ही विपक्ष और बढ़ते हुए संख्या में आम मतदाताओं के बीच चुनाव आयोग को बेहद अविश्वसनीय माना जा रहा है. आखिर इस तरह का व्यवहार किस वजह से हो सकता है सिवाय साफ-साफ पक्षपात और सत्ता पार्टी के प्रति वफादारी के?
बीजेपी की फंडिंग के तरीके
कौन भूल सकता है 2018 में शुरू की गई इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को, जिसका दावा था कि यह “देश की राजनीतिक फंडिंग को साफ-सुथरा बनाएगी”? छह साल और कई कानूनी चुनौतियों के बाद, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि पैसे और राजनीति के गहरे रिश्ते के चलते राजनीतिक पार्टियों को पैसा देने से ‘quid pro quo’ यानी लेन-देन का खेल चलने की पूरी संभावना रहती है. यह बात बिल्कुल सही साबित हुई.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर जब डोनर डेटा सामने आया, तो चुनावी भ्रष्टाचार की असल तस्वीर साफ हो गई. उदाहरण के लिए, मेघा इंजीनियरिंग ने अप्रैल 2023 में बीजेपी को 140 करोड़ रुपये दिए और जल्द ही उसे 14,400 करोड़ रुपये का ठाणे-बोरीवली ट्विन टनल प्रोजेक्ट मिल गया. ऐसे कई दिखते-जुलते quid pro quo सौदों के अलावा, कुछ दान तो ऐसे शेल कंपनियों से आए जैसे Qwik Supply Chain, जिसने 2021-22 में 360 करोड़ रुपये दान दिए, जबकि उसी साल उसका नेट प्रॉफिट सिर्फ 21.72 करोड़ रुपये था.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट शायद एक और तरीका नहीं समझ पाया “हफ्ता वसूली.” टॉप 30 दानदाताओं में से कम से कम 14 पर जांच एजेंसियों ने रेड डाली थी. बीजेपी को 41 ऐसी कंपनियों से 2,471 करोड़ रुपये मिले, जिन पर या तो ईडी, या सीबीआई, या इनकम टैक्स विभाग की जांच चल रही थी. हमें पहले ही पता था कि ये एजेंसियां बीजेपी के विस्तार, विपक्ष की सज़ा और मोदी के करीबी उद्योगपतियों की तरक्की का जरिया बन चुकी हैं. अब इसमें बीजेपी की फंडिंग को भी जोड़ लीजिए.
किसी और सरकार को अगर इस तरह रंगे हाथों पकड़ा जाता, तो वह गिर जाती. लेकिन मोदी की चुनावी निरंकुशता (electoral autocracy) नहीं गिरती.
इस तरह के ‘quid pro quo’ बंधन इलेक्टोरल बॉन्ड के खत्म होने के बाद भी बंद नहीं हुए. 29 फरवरी 2024 को मोदी कैबिनेट ने तीन सेमीकंडक्टर यूनिट्स के लिए सब्सिडी मंजूर की. एक यूनिट, जिसे मुरुगप्पा ग्रुप बनाएगा, उसे 3,501 करोड़ रुपये की सब्सिडी मिलनी थी. बाकी दो यूनिट, जो टाटा ग्रुप बनाएगा, उन्हें 44,203 करोड़ रुपये मिलने थे. 11 और 22 मार्च को मुरुगप्पा ग्रुप के इलेक्टोरल ट्रस्ट ने बीजेपी को 125 करोड़ रुपये दे दिए. 2 अप्रैल को टाटा ग्रुप के इलेक्टोरल ट्रस्ट ने 758 करोड़ रुपये का दान दिया, जो अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक चंदा है.
कमाल का “इत्तेफाक” नहीं है?
जेरीमैंडर्ड सीटों
संसद और विधानसभा की सीटों को जनसंख्या के आधार पर समय-समय पर फिर से तय किया जाना चाहिए, लेकिन असम और जम्मू-कश्मीर दोनों जगह सीमांकन का नतीजा चमत्कारिक तरीके से बीजेपी के पक्ष में गया.
असम में नई बनी विधानसभा सीटें देखकर साफ लगा कि उन्हें मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम करने के लिए तैयार किया गया है और हम जानते हैं कि बीजेपी को मुसलमानों से लगभग कोई वोट नहीं मिलता. उदाहरण के तौर पर, बारपेटा विधानसभा सीट को इस तरह बदला गया कि उसमें सारथेबाड़ी का हिंदू-बहुल इलाका जोड़ दिया गया, जो पहले किसी और सीट में शामिल था. यह बात इतनी खास नहीं होती, अगर इसे जोड़ने के लिए नक्शे में अजीब-सी कसरत न करनी पड़ती—बहुत पतली-सी एक पट्टी बनाकर बारपेटा को सारथेबाड़ी से जोड़ा गया, जो बीच की कई सीटों के बीच से गुज़रती है. नया नक्शा बिल्कुल वैसा लगता है जैसा अमेरिका में पुराने जमाने के क्लासिक “जेरीमैंडर्ड” सीटों में होता था, जिन्हें अफ्रीकी-अमेरिकी प्रतिनिधित्व कम करने के लिए बनाया गया था.
इसी तरह, जम्मू-कश्मीर में सीमांकन के बाद जम्मू की विधानसभा सीटें 37 से बढ़ाकर 43 कर दी गईं और कश्मीर की सीटें 46 से 47 कर दी गईं. जबकि कश्मीर की जनसंख्या करीब 29% ज्यादा है, अब उसे सिर्फ 9% ज्यादा सीटें मिली हैं. संविधान का अनुच्छेद 170 कहता है कि सीटें जनसंख्या के अनुपात में होनी चाहिए, लेकिन यह नियम तब लागू नहीं रहा जब जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. इस बदलाव ने बीजेपी के लिए रास्ता बनाने की कोशिश की, एक ऐसी पार्टी जिसने कश्मीर में कभी भी एक भी सीट नहीं जीती. मकसद था कि जम्मू की सीटें बढ़ाकर और घाटी की कुछ छोटी पार्टियों के सहारे बीजेपी पहली बार जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने की स्थिति में आ सके. यहां तक कि 2024 में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कश्मीर में भारी जीत दर्ज की, फिर भी इतने खुले तौर पर बीजेपी के पक्ष में किए गए ये बदलाव “सुधार” के नाम पर ही किए गए.
और मोदी सरकार के लिए “चुनावी सुधार” का मतलब है, अपनी राजनीतिक पकड़ को और मजबूत करना.
लेकिन “वोट चोरी” के खुलासों को अब ज्यादा देर तक नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. चुनाव आयोग के लिए मुंह मोड़ना कोई विकल्प नहीं है, वह भारतीय लोकतंत्र की जिम्मेदार संस्था है. उसे सिस्टम में भरोसा वापस लाना ही होगा, मशीन से पढ़ी जाने वाली मतदाता सूचियां सार्वजनिक करके, सीसीटीवी फुटेज को सुरक्षित रखकर और व्यवस्थित एक्सेस देकर और स्वतंत्र विशेषज्ञों को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की सुरक्षा जांचने की अनुमति देकर.
संतुलन बहाल करने के लिए यह भी ज़रूरी है कि चुनाव आयुक्त चुनने वाली समिति में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता के साथ मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को फिर से शामिल किया जाए, ताकि चयन प्रक्रिया निष्पक्ष हो सके. बाकी सब बातें सिर्फ धुआं-धार हैं असल मुद्दा ढकने की कोशिश हैं.
(लेखक अमिताभ दुबे कांग्रेस के सदस्य है. व्यक्त विचार निजी हैं. उनका एक्स हैंडल @dubeyamitabh है.)
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