scorecardresearch
Thursday, 4 December, 2025
होमफीचरमालेगांव की बदलती तस्वीर—दंगे, धमाके, सुपरमैन और अब रील्स का दौर

मालेगांव की बदलती तस्वीर—दंगे, धमाके, सुपरमैन और अब रील्स का दौर

‘मालेगांव बॉयज़’ एकदम नई शर्ट पहनते हैं, अपने कैमरे सेट करते हैं, और मुश्किल लूम शिफ्ट के बीच 1990 के दशक के बॉलीवुड गानों पर शाहरुख खान जैसे पोज़ देते हैं. उनकी रील्स को लाखों व्यूज़ मिलते हैं. पहली बार, उन्हें लगा कि उन्हें देखा गया है.

Text Size:

मालेगांव. 200 साल पुराने फैक्ट्री शेड के अंदर, जहां चारों तरफ जाले लगे हैं और पावरलूम की तेज आवाज कान फाड़ देती है, चार मजदूर तैयार हो रहे हैं. मशीनों के पीछे शुरू होने वाली 12 घंटे की एक जैसी मेहनत से पहले वे थोड़ा सा समय चुरा लेते हैं. एक मजदूर शाहरुख खान की तरह हाथ फैलाता है, दूसरा कैमरे के लिए मुस्कान ठीक करता है. पांचवां मजदूर दरवाजे पर नजर रखता है, कहीं मिल का मालिक आ न जाए. इन जल्दी-जल्दी और छिपे हुए पलों में ये मजदूर कलाकार बन जाते हैं. कैमरे के क्लोज़-अप के लिए तैयार. ‘मालेगांव बॉयज़’ अब एक ब्रांड मेकओवर के लिए तैयार हैं.

दिन में ये लूम पर काम करते हैं और स्वभाव से कलाकार हैं. शहर के ये युवा इंटरनेट फेम का हिस्सा बनना चाहते हैं. एक हल्के, धूल भरे बल्ब के नीचे जो कभी बंद नहीं होता, वे मोहम्मद रफ़ी और किशोर कुमार की ऊंची आवाजों पर गाने लगाते हैं और थोड़ी देर के लिए उस दुनिया में पहुंच जाते हैं जो लूम फ्लोर से ज्यादा चमकदार और बड़ी है. उनकी रील्स अब लाखों व्यूज़ पा रही हैं. पहली बार उन्हें लगता है कि लोग उन्हें देख रहे हैं.

मालेगांव महाराष्ट्र का एक टेक्सटाइल शहर है, लेकिन भारतीय कल्पना में यह एक रूपक भी है. किसी भी दिन यह दो समानांतर दुनियाओं में चलता है. यह मुस्लिम-बहुल शहर है जहां सांप्रदायिक दंगे और बम धमाके हुए हैं, और जिसे कई हिंदू एक-दूसरे को लेकर चेतावनी देते हैं. लेकिन यह अनगिनत और साहसी संभावनाओं की दुनिया भी है. टेक्सटाइल हब बनने की महत्वाकांक्षा, एक अलग फिल्म इंडस्ट्री, सुपरमैन और सुपरबॉयज़, और अब इंस्टाग्राम रील्स. और आगे चलकर वह आम ‘बिग बॉस’ वाला सपना. जब भी भारत मालेगांव को एक तय पहचान में बांधने की कोशिश करता है, यह शहर खुद के बनाए एक एस्केप रूम से बाहर निकलने की कोशिश करता है.

आज एक और पहचान बन रही है. सदियों पुरानी मशीनों पर बना एक ‘इन्फ्लुएंसर टाउन’.

“पावरलूम मालेगांव की रीढ़ हैं, और अब यही हमें इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर बना रहे हैं.” 20 साल के निहाल अंसारी कहते हैं, जिन्होंने शहर की पहली लूम रील पोस्ट की थी.

The Malegaon Fort on the west of Mausam river. Manisha Mondal | ThePrint
मौसम नदी के पश्चिम में मालेगांव किला | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

लूम और कैमरा

रील्स से बहुत पहले, मालेगांव की अपनी एक फिल्मी भाषा थी. लड़कों ने उसे खुद ही समझ लिया.

शेक-शेक… पैन… जूम… और धाम.

यह 90 के दशक की फिल्ममेकिंग की कैमरा शैली से जुड़ा एक रिवाज़ है. इसका इस्तेमाल शादी के वीडियो और लो-बजट फिल्मों में होता था. किसी व्यक्ति के फ्रेम में आने से पहले कैमरा चीज़ों पर पैन करता है ताकि उत्सुकता बने. आज यह पुराना माना जाता है, लेकिन मालेगांव में यह एक सिग्नेचर बन गया है.

आदिल अपने हाथ फैलाता है. इरफान ‘धोती’ को ठीक करता है—यह छोटा नाव जैसा शटल है जिससे परंपरागत हैंडलूम में धागा डाला जाता है—और उसे हारमोनियम की तरह पकड़कर एक्टिंग करता है. वह अपने दांतों से धागा काटता है और नई धोती लगा देता है. कुछ ही मिनटों में वे अपने रोज़ के काम को फिल्मी स्टाइल में दिखाते हैं.

सभी शूट 10-15 मिनट में काम के बीच फोन पर हो जाते हैं. अब लड़कों को अपने बीट्स, फ्रेम और लिप-सिंक की टाइमिंग पता है. वे स्थानीय स्टार बन गए हैं.

लूम फ्लोर पर घंटों के बाद, वे रात में साथ बैठते हैं. रईस, जो ग्रुप का वीडियो एडिटर है, लूम की धुन पर कट्स को मिलाता है. बीट-बीट, पहला कट, दूसरा कट… हो गया. डिनर तक रील अपलोड हो जाती है.

कमेंट आते हैं: “ये मशीनें क्या हैं?” और “कितनी पुरानी हैं?”

“सैकड़ों साल पुरानी,” लड़के जवाब देते हैं.

“कूपर” और “हेनरी” जैसे नामों वाली ये लूम 19वीं सदी में बॉम्बे से लाई गई थीं. मालेगांव की टेक्सटाइल अर्थव्यवस्था शहर के लगभग 80 प्रतिशत लोगों को रोजगार देती है.

Nihal Ansari strikes a Shah Rukh Khan pose as he shoots a Reel inside a powerloom. Manisha Mondal | ThePrint
निहाल अंसारी पावरलूम के अंदर रील शूट करते हुए शाहरुख खान जैसा पोज देते हुए | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

लेकिन शहर की वायरल रील्स अब पूरे देश में देखी जा रही हैं. दिप्रिंट द्वारा देखे गए डेटा के अनुसार, लगभग 50 प्रतिशत दर्शक मालेगांव से हैं. बाकी कोलकाता, बेंगलुरु, दिल्ली और मुंबई से हैं, यानी चार बड़े महानगरों से.

युवा इन्फ्लुएंसर टेक्नोलॉजी में माहिर हैं. ज्यादातर ने औपचारिक पढ़ाई या मीडिया ट्रेनिंग नहीं ली है. सोशल मीडिया के जरिए उन्होंने खुद ही CapCut (कैपकट) जैसे एडिटिंग ऐप और फोटो बेहतर करने के लिए एआई सीख लिया है. ब्लर, जंप कट, फेड आउट और फेड इन जैसे वीडियो इफेक्ट – जो प्रोफेशनल वीडियो में दिखते हैं – पावरलूम रील्स में आम हैं.

वे शूट के लिए iPhone 13 इस्तेमाल करते हैं, कभी-कभी किराए का DSLR भी. निहाल एंड्रॉयड फोन को—जिसे उन्होंने दो साल इस्तेमाल किया—“कमजोर क्वालिटी” कहकर छोड़ देते हैं.

उनकी सोशल मीडिया की तस्वीरें चमकदार और प्रेरणादायक होती हैं, जो लूम फ्लोर की दुनिया से बिल्कुल अलग हैं.

A woman shows her hand after dyeing a thread in blue. Manisha Mondal | ThePrint
एक महिला धागे को नीले रंग में रंगने के बाद अपना हाथ दिखाती हुई | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

दंगे, रील्स और नई पहचान

मालेगांव की बनाना और दिखना चाहने की आकांक्षा, एक ऐसे शहर से आती है जो लंबे समय से बदनामी का बोझ ढो रहा है. शहर की मुस्लिम-बहुल आबादी सालों से बम धमाकों, सांप्रदायिक झड़पें और शक-संदेह के साए में रही है.

“उनके लिए (युवा) इंस्टाग्राम रील्स जैसे सोशल मीडिया टूल अभिव्यक्ति का जरिया हैं,” नेहा दब्बाड़े कहती हैं, जो सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं. उनका मानना है कि इस्लामोफोबिया शहर के विकास में बड़ी बाधा है.

मौसम नदी के एक तरफ—जहां मुख्य रूप से हिंदुओं का इलाका है—चौड़ी सड़कें, बेहतर अस्पताल और ज्यादा बैंक हैं. एक स्थानीय पत्रकार के अनुसार, पुलिस से बार-बार होने वाले टकराव ने मुसलमानों को नदी के उस पार छोटे-छोटे मोहल्लों में धकेल दिया. उनके ‘सुविधाओं’ में गंदी गलियां, कचरे से भरी नालियां और अक्सर खाली रहने वाले ATM शामिल हैं.

“ATM मुस्लिम-बहुल इलाकों के किनारों पर लगाए जाते हैं क्योंकि डर है कि वे लूटे जा सकते हैं,” पत्रकार अलीम फैज़ी कहते हैं.

2006 और 2008 के धमाकों और दंगों ने, उनका मानना है, शहर की एक “छवि” बना दी.

A mandir and a masjid stand alongside each other on the banks of Mausam river. Manisha Mondal | ThePrint
मौसम नदी के किनारे एक मंदिर और एक मस्जिद एक दूसरे के बगल में खड़े हैं | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

“(हिंदू) राइट विंग ने हमेशा मालेगांव को मुसलमानों के लिए सुरक्षित जगह बताया है, और धीरे-धीरे इसे आतंकवाद की गुफा से जोड़ दिया,” वह कहती हैं.

बदनामी के बावजूद, युवाओं का बड़े शहरों में न जाना ध्यान खींचता है. ज्यादातर लूम मजदूर 18,000 से 22,000 रुपये महीना कमाते हैं. भुगतान हफ्ते में होता है और ग्रोथ नहीं है. नौकरी में कोई लाभ या प्रमोशन नहीं. लेकिन मालेगांव के लोग संतुष्ट हैं. वे मौके चाहते हैं, लेकिन अपनी मिट्टी में जमी हुई जड़ें भी नहीं छोड़ना चाहते. और इस खींचतान को सबसे ज्यादा निहाल दिखाता है—वही लड़का जिसने यह सब शुरू किया.

निहाल और नई लहर

सुबह 8 बजे तक मालेगांव के लूम कई घंटों से चल रहे होते हैं. कपास की रोलें लगातार बाहर आती रहती हैं और मशीनों की खटर-पटर इस शहर की स्थायी आवाज़ बन चुकी है. अंदर, निहाल अंसारी ने अपनी आधे दिन की शिफ्ट शुरू की है और छह मशीनों के बीच दौड़ रहे हैं. रुकने का वक्त नहीं, फोन देखने का भी समय नहीं. लेकिन वह शाम का इंतज़ार करता है. उसे और उसके दोस्त उसामा को स्थानीय सुपरमार्केट सस्ता बाज़ार में एक प्रमोशनल वीडियो शूट करना है.

निहाल पहला व्यक्ति था जिसने पावरलूम के अंदर रील बनाई. उसने 2020 में Musical.ly से शुरुआत की, फिर 2023 के अंत में इंस्टाग्राम पर आ गया. महीनों तक किसी ने नहीं देखा. फिर उसने कुछ मजदूरों को KK के गाने ‘अब तो फॉरएवर’ (ता रा रुम पुं, 2007) पर लिप-सिंक करते हुए शूट किया, उनकी हरकतें लूम की लय से मिल रही थीं. हिचकिचाहट थी, लेकिन दोस्तों ने हौसला दिया. उसने वीडियो पोस्ट कर दिया. उस दिन जुम्मा (शुक्रवार) था, जब लूम बंद रहते हैं.

Nihal Ansari posted the first powerloom Reel from Malegaon. Manisha Mondal | ThePrint
निहाल अंसारी ने मालेगांव से पहली पावरलूम रील पोस्ट की | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

निहाल की नजरें व्यूज़ पर टिकी थीं. छह घंटे बाद: 1,200 व्यूज़. बारह घंटे बाद: पांच लाख. “ऐसा लगा जैसे फ़कीर को पुलाव मिल गया,” वह हंसता है. कुछ ही महीनों में उसके 1 लाख फॉलोअर्स हो गए और उसे कमाई का नया रास्ता मिल गया. स्थानीय ब्रांड उसे प्रमोशनल क्लिप के लिए 2,500 रुपये देते हैं. कभी मोमो, कभी क्रॉकरी, लेकिन निहाल सिर्फ वही चीजें प्रमोट करता है जो “मेड इन मालेगांव” हों. उसने अपने iPhone की किश्तें भी इसी कमाई से चुका दीं.

अन्य लूम मजदूर भी पीछे नहीं रहे. जल्द ही हर फैक्ट्री में एक कंटेंट क्रिएटर हो गया. लेकिन जब निहाल के वीडियो वायरल हुए तो हर कोई खुश नहीं था. एक वीडियो में गाने की पसंद को लेकर ऑनलाइन “बॉयकॉट निहाल” मुहिम शुरू हो गई. वह उस समय कर्नाटक में था और अनजान था, जब तक दोस्तों ने यह नहीं बताया कि अफवाहें फैल रही हैं कि वह “भाग गया”. उसके घर के बाहर भीड़ लग गई. “मुझे घर आने में डर लग रहा था,” उसने कहा.

लेकिन जब निहाल कुछ दिनों बाद लौटा, तो वही भीड़ सेल्फी मांग रही थी. मालेगांव में शोहरत हमेशा एक पतली रस्सी पर चलने जैसी है. परिवार की मंज़ूरी अभी भी डगमगाती है. कई पत्नियां अपने पतियों का साथ देती हैं, लेकिन पिताओं को अभी भी समझाने की ज़रूरत है. लेकिन करघे के रूटीन से बाहर निकलने की चाहत लड़कों को कैमरे की तरफ खींचती रहती है.

Raees shoots videos of Aadil (blue shirt) and Irfan (in red) looks on. Manisha Mondal | ThePrint
रईस ने आदिल (नीली शर्ट) और इरफान (लाल शर्ट में) के वीडियो शूट किए | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

बाग़ी, तब और अब

रईस, इरफ़ान और आदिल अलग-अलग फ़ैक्ट्रियों में काम करते हैं. उनका सिर्फ एक सपना है – मशहूर होना. वे सिर्फ तब मिल पाते हैं जब उनके मालिक चले जाते हैं.

“मालिक कभी भी आ सकते हैं, इसलिए हमें बहुत सावधान रहना पड़ता है. उन्हें हमारा किया हुआ काम पसंद नहीं है,” रईस ने कहा.

शाम को ये लड़के वीडियो शूट करने के लिए इकट्ठा होते हैं. गाना तय हो चुका है—उदित नारायण का ‘तुम साथ होते अगर’ (जुर्म, 2005).

अपनी थकाने वाली शिफ्ट के बाद रईस बहुत थक चुका है. लेकिन वह इरफ़ान और आदिल का इंतज़ार करता है, दरवाज़े की तरफ़ देखते हुए. उनके पास एक छोटा-सा वीडियो शूट करना है. वह एक जोड़ी नकली एयरपॉड्स निकालता है – एक अपने लिए, एक आदिल के लिए. एक दोस्त शूट करता है, दूसरा हमेशा की तरह चौकीदारी करता है.

मालेगांव में संगीत और कंटेंट बनाने को हमेशा शक भरी नज़र से देखा गया है—न पूरी तरह कला माना गया, न काम. कई लोग अब भी मानते हैं कि ज़िंदगी को पावरलूम की तय चाल में ही चलना चाहिए.

Nasir Shaikh, the local filmmaker who made spoof films in Malegaon. Manisha Mondal | ThePrint
नासिर शेख, लोकल फिल्ममेकर जिन्होंने मालेगांव में स्पूफ फिल्में बनाईं | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

दशक पहले भी शहर ने ऐसी ही रचनात्मक चमक महसूस की थी, जब स्थानीय फ़िल्ममेकर नासिर शेख़ और उनके दोस्तों ने ‘मालेगांव का सुपरमैन’ (1997) जैसी स्पूफ़ फ़िल्में बनाई थीं. हफ़्तों तक सिंगल-स्क्रीन थिएटर भरे रहे, और शक के साए में डूबे इस छोटे शहर ने खुद को कुछ समय के लिए फ़िल्म हब की तरह महसूस किया. यह नाम दूर तक गया—एक डॉक्यूमेंट्री बनी, अंतरराष्ट्रीय फ़ेस्टिवलों में चर्चा हुई, और आख़िरकार 2024 में एक हिंदी फीचर फ़िल्म ‘सुपरबॉयज़ ऑफ़ मालेगांव’ भी बनी. लेकिन तकनीक के तेज़ी से आगे बढ़ने के साथ उनका छोटा-सा उद्योग टिक नहीं पाया.

फ़िल्ममेकर फ़ैज़ा ख़ान, जिन्होंने 2008 में ‘सुपरमेन ऑफ़ मालेगांव’ डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, बताती हैं कि कैसे शेख़ खुद अपने भाई को फ़िल्मों में आने से रोकते थे. “बहुत अनिश्चित है,” वे कहा करते थे.

नासिर भी लंबे समय तक फ़िल्मों में नहीं रहे. अब वे शहर में एक रेस्तरां चलाते हैं.

लेकिन इससे मालेगांव के युवाओं का हौसला नहीं टूटा. उन्होंने देखा है कि कैसे फ़ैक्ट्री मज़दूर, सब्ज़ी बेचने वाले, मज़दूर और यहां तक कि आईटी प्रोफ़ेशनल भी रील्स की वजह से मशहूर हो सकते हैं. इसलिए उन्होंने लुंगी कसी, नए-नए शर्ट पहने और रिकॉर्ड बटन दबा दिया.

वे अपनी पुरानी मशीनों की ‘क्लैक-क्लैक’ और ‘थम्प-थम्प’ की आवाज़ को किशोर कुमार के ‘मेरे सपनों की रानी’ (आराधना, 1969) के कोरस की बीट्स पर मिलाते हैं. वे ‘पैसा बिना दुनिया में रोटी नहीं मिलती’ (फंदे बाज़, 1978) के बोलों को एक्ट करते हैं जबकि एक मज़दूर वीडियो के लिए सौ रुपए का नोट दिखाता है.

ये वीडियो युवाओं के लिए प्रेरणा हैं. घर छोड़े बिना मशहूर होने का रास्ता. वे कुछ बनाना चाहते हैं, लेकिन उसी गली से जहां उनका जन्म हुआ.

लेकिन मालेगांव के बाहर एक और छवि अब भी बनी हुई है.

“मालेगांव के मुसलमान को नए नज़रिये से नहीं देखा जाता… यह दोहरी मुश्किल बन जाती है,” नेहा दाभाड़े ने कहा.

An elderly man sips tea at a tea stall in Malegaon. Manisha Mondal | ThePrint
मालेगांव में एक चाय की दुकान पर चाय पीते एक बुज़ुर्ग | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

गंभीर मुद्दे, डगमगाते नज़ारे

बदनामी से दूर, मशहूरी की अपनी चुनौतियां हैं.

शहर के चौराहे पर भीड़ खुशी से चमक उठती है. सफेद शर्ट और काली पैंट में एक स्थानीय सेलिब्रिटी पहुंचा है. होंडा यूनिकॉर्न बाइक पर निहाल अंसारी आता है. दर्जनों लोग उसे रोककर सेल्फ़ी लेते हैं.

“हम सब जानते हैं निहाल भाई को,” बच्चे हंसते हुए कहते हैं और सेल्फी लेने दौड़ पड़ते हैं.

उसने अनगिनत पावरलूम मज़दूरों को प्रेरित किया है कि वे भी उसकी तरह आगे बढ़ें, चाहे मुश्किलें हों. लेकिन गंभीर वीडियो, जैसे नशे की आदत या महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा पर—जिन्हें निहाल अब बनाना चाहता है—बहुत कम देखे जाते हैं. मनोरंजन अब भी हावी है.

एक नाबालिग के साथ बलात्कार और हत्या के बाद, इन्फ़्लुएंसर्स ने जागरूकता वीडियो बनाए. माता-पिता को बच्चों से बात करने, और पुरुषों को दख़ल देने की अपील की. ये वीडियो गंभीर और ज़रूरी थे, लेकिन व्यूज़ बढ़े नहीं. हल्के-फुल्के पावरलूम स्किट्स ने उन्हें पीछे छोड़ दिया.

“गंभीर मुद्दों पर ध्यान लाने के लिए मुझे थोड़ा मनोरंजन मिलाना पड़ता है,” निहाल ने कहा. इसलिए वह प्रयोग करता है – मेलोड्रामा, पुराने गाने और तेज़ कट्स को नशा या उत्पीड़न के संदेश के साथ मिलाकर.

धीरे-धीरे व्यूज़ फिर बढ़ने लगते हैं.

टेक्सटाइल एक्सपोर्टर अब्दुल रहमान को लगता है कि लड़के सही दिशा में हैं. “सिर्फ गाने और डांस से काम नहीं चलेगा. क्रिएटर्स को पावरलूम की समस्याएं भी दिखानी चाहिए,” उन्होंने कहा.

शहर के दूसरी तरफ़, 21 साल का शेख आदिल एक छोटे इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान में बैठकर फर्श बुहारता है और इसे रिकॉर्ड करता है. वह GRWM (मेरे साथ तैयार हों) और ‘डे इन माय लाइफ़’ वीडियो बनाना चाहता है. लेकिन वह भी, निहाल की तरह, गंभीर मुद्दों पर बात करना चाहता है.

The youth of Malegaon want opportunity, but rooted in the soil they grew up in. Manisha Mondal | ThePrint
मालेगांव के युवा अवसर चाहते हैं, लेकिन उस मिट्टी से जुड़े रहना चाहते हैं जिसमें वे पले-बढ़े हैं | मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

“मुझे लगता है कि मालेगांव के कंटेंट क्रिएटर्स होने के नाते लोगों को जागरूक करना हमारी ज़िम्मेदारी है. सिर्फ पुलिस और प्रशासन का काम नहीं है,” उसने कहा.

लेकिन पावरलूम की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से हटकर कुछ करना अब भी कई लोगों की नज़र में गलत माना जाता है. ये क्रिएटर्स अब मालेगांव के बाग़ी बन गए हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी नासिर शेख़ थे.

शोहरत, डर और फ़ीड

मशहूरी मालेगांव के लोगों तक पहले 90 के दशक के इंडी फ़िल्ममेकरों से पहुंची थी, और अब 2025 के रीलमेकर्स से.

जहां निहाल कभी बिग बॉस में जाने का सपना देखता है, वहीं उसके प्रेरित किए हुए लड़के शहर की एक नई पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं – रचनात्मकता, हास्य और प्रतिरोध की पहचान.

यह इच्छा एक जुड़ाव की भावना से आती है. वे मानते हैं कि मालेगांव की कहानी वही लिखें जो यहां से जाने को तैयार नहीं हैं.

“मैं पावरलूम से जुड़ा हूं, मालेगांव से जुड़ा हूं,” निहाल ने कहा.

दाभाड़े के लिए ये वीडियो सिर्फ प्रदर्शन नहीं हैं—ये वापस हासिल करने का तरीका है.

“रील्स उन कहानियों का सबसे मज़बूत जवाब बन सकती हैं जिन्हें दक्षिणपंथियों ने सालों तक फैलाया,” उन्होंने कहा.

लड़कों को लगता है कि यह बदलाव शुरू हो चुका है, लेकिन वे नहीं जानते कि यह कितने समय चलेगा.

नासिर शेख़ को ‘मालेगांव की रील्स’ का भविष्य दिखता है, लेकिन वे सतर्क भी हैं. “मेरी फ़िल्में आईं और तकनीक के साथ चली गईं. रील्स भी फीकी पड़ जाएंगी,” उन्होंने कहा.

लेकिन तब तक, यही मालेगांव की नई ‘एस्केप हैच’ हैं.

हर लिप-सिंक, हर एडिट, हर 90s स्टाइल पैन-शॉट के पीछे ‘मालेगांव बॉयज़’ की सरल इच्छाएं छिपी हैं. निहाल शहर की क्रिएटर दुनिया का शाहरुख़ खान बनना चाहता है. इरफ़ान खुद को सलमान खान की तरह देखता है. और लूम फ़्लोर पर आदिल को पहले ही राजेश खन्ना कहा जाता है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: संचार साथी को अनइंस्टॉल करने वाला ऐप बनाएं. अच्छे इरादे राज्य की अति-दखल को जायज़ नहीं ठहरा सकते


 

share & View comments