हैदराबाद: एक अस्थायी लैब के बीचोंबीच, जहां सर्किट बोर्ड, उलझी हुई तारें और डक्ट टेप के रोल इधर-उधर पड़े हैं, वहां एक अधूरी मशीन रखी है, जिस पर अभी काम होना बाकी है. नीले लेबल उसके ऑनबोर्ड कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक पावर सिस्टम और बैटरी पैक को दिखाते हैं.
यह मशीन ऐसे होरिजॉन की ओर जा रही है जिन्हें देखा नहीं जा सकता है. यह एक सैटेलाइट है, जो जल्द ही लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में भेजा जाएगा, जहां भारतीय इनोवेटर्स की एक नई पीढ़ी वैश्विक दौड़ में हिस्सा ले रही है. LEO अब अंतरिक्ष में सबसे महत्वपूर्ण जगह बन गया है. यह हैदराबाद का सैटेलाइट TakeMe2Space का है, जो इस तक पहुंच को आसान बनाना चाहता है.
“बचपन में हमें कंप्यूटर तक पहुंच थी. लेकिन आज अगर कोई सैटेलाइट तक पहुंचना चाहता है, तो उससे साइंटिफिक पेपर लिखने को कहा जाता है,” TakeMe2Space के फाउंडर रोनक कुमार सामंत्रे ने कहा. “हम एक ऐसा प्लेटफॉर्म बना रहे हैं, जहां कोई भी आइडिया ऑर्बिट में भेजा जा सके.”
IIIT हैदराबाद में सामंत्रे के वर्कस्पेस की एक पूरी दीवार काली रंगी हुई है, जिस पर कंपनी का लोगो—एक क्यूब के तीन साइड—और उसके पास लिखा है ‘space is for everyone’ (अंतरिक्ष सभी के लिए है). उनकी योजना आसमान में डेटा सेंटर बनाने की है, जहां कंप्यूटिंग जमीन की बजाय ऑर्बिट में होगी.
IIT, BITS पिलानी और अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों के करीब आधा दर्जन ग्रैजुएट भारत को आधुनिक स्पेसफ्लाइट के अगले चरण—LEO सैटेलाइट्स—की ओर ले जा रहे हैं. हैदराबाद एक हब बन रहा है, जहां स्काईरूट लॉन्च व्हीकल (रॉकेट) बना रहा है और ध्रुव स्पेस सैटेलाइट प्लेटफॉर्म से लेकर ग्राउंड स्टेशन तक फुल-स्टैक सॉल्यूशंस दे रहा है. वहीं बेंगलुरु में पिक्सेल (Pixxel) पृथ्वी की निगरानी के लिए सैटेलाइट्स की सीरीज बना रहा है.
धरती से लगभग 400 से 1,000 किमी ऊपर स्थित LEO तक पहुंचना सबसे आसान है और यह तेज़ रेडिएशन से प्राकृतिक रूप से सुरक्षित रहता है. इसलिए यह आधुनिक सैटेलाइट एप्लिकेशन के लिए एक बेहतरीन जगह है. यूजर बिना किसी देरी के सैटेलाइट इंटरनेट पा सकते हैं, संस्थान जलवायु डेटा जुटा सकते हैं और वैज्ञानिक कृषि भूमि की हाई-रेजोल्यूशन तस्वीरें ले सकते हैं.

कई दशकों तक, अंतरिक्ष में कुछ भी भेजना बहुत महंगा था और सिर्फ अमीर सरकारें ही यह कर सकती थीं. यह तब बदला जब एलन मस्क की SpaceX ने फाल्कन रॉकेट्स उड़ाने शुरू किए और लॉन्च की कीमतों को बहुत कम कर दिया. और SpaceX के स्टारलिंक ने साबित कर दिया कि LEO सबसे फायदेमंद क्षेत्र है.
“जैसे हमारे स्मार्टफोन छोटे और कारगर हो रहे हैं, वैसे ही सैटेलाइट भी. लॉन्च भी अब ज्यादा बार और सस्ते हो रहे हैं,” स्काईरूट एयरोस्पेस के को-फाउंडर और CEO पवन कुमार चंदना ने कहा, जो अपने पहले रॉकेट विक्रम 1 को LEO तक पहुंचाने की तैयारी में लगे हैं.
“और तीन अरब लोगों के पास हाई-स्पीड इंटरनेट नहीं है. सभी को जोड़ने के लिए अंतरिक्ष सबसे अच्छा तरीका है. यह ग्लोबल है.”
भारत की सैटेलाइट असेंबली लाइन
हैदराबाद के बेगमपेट में अपने ऑफिस की ऊपरी मंजिल पर ध्रुव स्पेस 300 से ज्यादा सैटेलाइट्स से मिलने वाला डेटा ट्रैक करता है. बड़े मॉनिटर्स पर बहुरंगी मानचित्र दिखाई देते हैं, जहां अलग-अलग रिज़ोल्यूशन में आर्काइव्ड इमेजरी उपलब्ध है.
एक टेबल पर गर्व से एक काला क्यूब रखा है, जिसमें चार एंटीना लगे हैं और जो हथेली में फिट हो सकता है. यह P-DoT है, ध्रुव का सबसे छोटा सैटेलाइट प्लेटफॉर्म. कंपनी किसी भी सैटेलाइट मिशन के तीनों स्तंभ—स्पेस, लॉन्च, और ग्राउंड—को कवर करना चाहती है.
“हमें एहसास हुआ कि दुनिया एक, तीन, दस सैटेलाइट्स से आगे बढ़कर सैकड़ों और हजारों सैटेलाइट्स की तरफ जा रही है,” ध्रुव के फाउंडर और CEO संजय नेकांति ने कहा. “अगर भारत को 1,000 सैटेलाइट बनाने हैं, तो इसके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर भी होना चाहिए.”
स्पेस सेगमेंट में, ध्रुव पहले ही अलग-अलग वज़न श्रेणियों में प्लेटफॉर्म बना रहा है और “500 किलो वर्ग प्लेटफॉर्म” की ओर बढ़ रहा है. हर एक की अपनी अलग भूमिका होती है.
ध्रुव हर स्तंभ में सब कुछ करने की कोशिश नहीं करता, बल्कि वह फुल-स्टैक स्पेस इंजीनियरिंग समाधान की जोड़ने वाली कड़ी बनने में माहिर है.

“हम बिल्डिंग ब्लॉक्स बनाते हैं, लेकिन अपने सैटेलाइट्स पर पेलोड नहीं बनाते,” नेक्कांटी ने कहा. उदाहरण के लिए कैमरे उनका विशेषज्ञता क्षेत्र नहीं हैं, लेकिन वह अपने फोन की ओर इशारा करते हैं. “iPhone को सोचें. उसका कैमरा Apple नहीं बनाता. लेकिन पूरे सिस्टम के काम करने के लिए—सॉफ्टवेयर, इलेक्ट्रॉनिक्स, पैकेजिंग—किसी को सब जोड़ना पड़ता है.”
लॉन्च की बात करें, ध्रुव रॉकेट नहीं बनाता, लेकिन उसने ‘यूनिफॉर्म सेपरेशन सिस्टम’ विकसित किया है—एक ऐसा सिस्टम जो उसके प्लेटफॉर्म्स को अलग-अलग रॉकेट डिज़ाइन पर फिट कर देता है, चाहे वह अमेरिका की SpaceX हो या भारत की स्काईरूट और अग्निकुल.
तीसरा स्तंभ ‘ग्राउंड’ है—सैटेलाइट डेटा तक पहुंचने के लिए दुनिया भर में ग्राउंड स्टेशन होना. Dhruva कुछ खुद चलाता है और बाकी ग्लोबल नेटवर्क्स से जुड़ता है.
नेकांति ने कहा, “सैटेलाइट 96 मिनट में पृथ्वी का चक्कर लगा लेते हैं—इसलिए वे बहुत सारा डेटा इकट्ठा करते हैं. और उनसे संपर्क करने का अधिकतम समय सिर्फ 14 मिनट होता है.”
सैटेलाइट वैल्यू चेन पकड़ने की अपनी यात्रा में कंपनी ने हाई-क्वालिटी स्पेस-ग्रेड सोलर पैनल भी बनाने शुरू किए. सैटेलाइट की लागत का 30 फीसदी तक पावर सिस्टम होता है, जिसमें सोलर पैनल और बैटरी शामिल हैं.

“अगर आपने कार का इंजन बना लिया है, तो यह मौका बन जाता है कि आप इसे आगे कैसे इस्तेमाल करना चाहते हैं,” नेकांति ने आगे कहा.
यह मूल योजना का हिस्सा नहीं था, लेकिन बड़ी रणनीति में फिट बैठता था.
भारत में वे ध्रुव को OEM बनाना चाहते हैं, लेकिन वैश्विक स्तर पर वे अन्य OEMs को सप्लाई करना चाहते हैं.
“हमारा लक्ष्य हमेशा भारत के लक्ष्य के साथ जुड़ा रहा है. सरकार चाहती है कि वैश्विक स्पेस टेक मार्केट में भारत की हिस्सेदारी बढ़े,” उन्होंने कहा.
यहीं भारतीय निजी स्पेस टेक कंपनियों को बड़ी सफलता मिली है—दुनिया भर में स्वदेशी बनाए गए सबसिस्टम बेचने में.
TakeMe2Space में रोनक कुमार सामंत्रे इसे अपनी “कैश काउ” कहते हैं. उनकी वेबसाइट सैटेलाइट उपकरणों की ई-कॉमर्स साइट जैसी दिखती है, जिसमें कीमतें और ‘add to cart’ (कार्ट में जोड़ें) बटन होते हैं. एक बैटरी पैक 1,04,900 रुपये में मिलता है और एक ऑनबोर्ड कंप्यूटर 8,20,190 रुपये में. एक 16U CubeSat Bus (क्यूबसैट बस) की कीमत 2.8 करोड़ रुपये से ज्यादा है.

सामंत्रे कमरे के कोने से एक मोटर उठाकर लाते हैं.
उन्होंने कहा, “यह व्हील है, जो सैटेलाइट को दिशा देता है. ऐसे 24 सैटेलाइट हार्डवेयर प्रोडक्ट हमारी वेबसाइट पर हैं.”
अन्य भारतीय स्पेस स्टार्टअप्स, जैसे GalaxEye Space (गैलेक्सीआई स्पेस) और N Space Tech (एन स्पेस टेक), उनके उत्पाद खरीदते हैं.
व्हील को उठाते हुए सामंत्रे बताते हैं कि इसका सबसे सस्ता फ्रेंच विकल्प 15 लाख रुपये का है.
उन्होंने हंसते हुए कहा, “मैं इसे 5 लाख में बेचता हूं, लेकिन मेरा कॉस्ट प्राइस नहीं बताऊंगा.”
क्या है फायदा
TakeMe2Space का मुख्यालय किसी हाई-टेक डीप टेक स्टार्टअप की बजाय एक हाई स्कूल साइंस लैब जैसा दिखता है. टेबलों पर ग्लू गन, सैटेलाइट पार्ट्स से भरे प्लास्टिक बॉक्स और बबल रैप की शीटें रखी हैं. इसी एक छोटे से कमरे में पूरा सैटेलाइट तैयार किया जाता है.
“हमारे साइज का सैटेलाइट आसानी से 6 से 7 करोड़ रुपये में बनता है, जिसे हमने घटाकर 1 करोड़ रुपये से भी कम कर दिया है,” फाउंडर समंत्राय ने अपनी टीम की ओर गर्व से देखते हुए कहा. “हमने सभी सैटेलाइट सबसिस्टम खुद डिजाइन और मैन्युफैक्चर किए, जिससे लागत कम हुई.”
वह अपना लैपटॉप खोलकर अपना मुख्य प्रोडक्ट दिखाते हैं — ऑर्बिटलैब (OrbitLab). स्क्रीन पर धरती का डिजिटल नक्शा दिखता है, जिस पर टैब्स और डेटा पॉइंट बनाए होते हैं. ग्राहक इस प्लेटफॉर्म का उपयोग खेती की मॉनिटरिंग से लेकर कंस्ट्रक्शन ट्रैकिंग तक कई कामों के लिए करते हैं.
OrbitLab 250 रुपये प्रति मिनट पर सर्विस देता है, और यह बाजार की सबसे कम कीमतों को चुनौती दे रहा है. इसका राज सिर्फ सैटेलाइट इन-हाउस बनाने में नहीं, बल्कि डेटा को अंतरिक्ष में ही प्रोसेस करने में है.
“कॉस्ट की बात करें तो डेटा प्रोसेसिंग सिर्फ कुछ सेंट की होती है. सबसे महंगा हिस्सा है सैटेलाइट से डेटा डाउनलोड करना. हम ऑर्बिट में ही लैब रखते हैं, डेटा वहीं प्रोसेस होता है. ग्राहक सिर्फ नतीजे डाउनलोड करते हैं,” समंत्राय ने कहा.

उनके सैटेलाइट में हाई-रेजोल्यूशन क्षमता नहीं है, जिसे आमतौर पर सरकारें निगरानी के लिए उपयोग करती हैं. लेकिन निजी कंपनियों को पेड़ की पत्तियां देखने की जरूरत नहीं होती. उन्हें बस यह देखना होता है कि खनिज संकेत मौजूद हैं या नहीं, या कृषि भूमि को पर्याप्त बारिश मिल रही है या नहीं.
LEO की स्थितियां भी लागत कम करने में मदद करती हैं. यह कक्षा एक चुंबकीय ढाल के भीतर होती है जो सैटेलाइट को सूरज की रेडिएशन से बचाती है. तापमान भी ऑटोमोटिव और इंडस्ट्रियल ग्रेड कंपोनेंट्स के लिए ठीक होता है — TakeMe2Space कोई स्पेस-ग्रेड पार्ट नहीं इस्तेमाल करता.
“हम दो 45-दिन के स्पेस मिशन कर चुके हैं और इस साल और दो सैटेलाइट लॉन्च होंगे,” समंत्राय ने कहा, बताते हुए कि अपनी खुद की रकम के अलावा कंपनी ने 5 करोड़ रुपये बाहरी निवेशकों से जुटाए हैं. “अगले साल हम छह सैटेलाइट भेजेंगे.”

शहर के दूसरी ओर स्काईरूट एयरोस्पेस भी तेजी से बढ़ रहा है. 2023 में कंपनी ने जीएमआर हैदराबाद एविएशन एसईजेड में 60,000 वर्ग फुट का मुख्यालय शुरू किया. इसके बाहर एक बड़े आकार का अंतरिक्ष यात्री का मॉडल लगा हुआ है और काली दीवार पर सफेद डॉट्स तारों का एहसास देते हैं.
पवन कुमार चंदना ने टॉप फ्लोर के कैफेटेरिया में जल्दी से खाना खाकर कहा, “एक बड़े जियोस्टेशनरी सैटेलाइट की जगह अब आप LEO में हजारों सैटेलाइट का नेटवर्क रख सकते हैं. अर्थशास्त्र भी लगभग वही है और आप पूरी दुनिया को कवर कर सकते हैं.”

स्थानीय और विदेशी निवेशकों से लगभग 100 मिलियन डॉलर जुटाने के बाद स्काईरूट का लक्ष्य पहला भारतीय प्राइवेट रॉकेट LEO में भेजना है. यह विक्रम-एस को 2022 में सब-ऑर्बिट में भेजने के बाद उनका सबसे बड़ा कदम है.
चंदना का कहना है कि लॉ अर्थ ऑर्बिट तक पहुंचने के लिए ऊर्जा कई गुना ज्यादा लगती है. “जब आप सब-ऑर्बिट में जाते हैं, यानी धरती से लगभग 80 km ऊपर, रॉकेट की स्पीड जीरो होती है. इसलिए वह वापस गिर जाता है,” उन्होंने कहा. “LEO में सैटेलाइट डालने के लिए लगभग 8 किलोमीटर प्रति सेकंड की स्पीड चाहिए.”
उन्होंने विक्रम-एस की तुलना दो-मंजिला इमारत से की और विक्रम-1 की सात-मंजिला इमारत से, जो लगभग 100 गुना भारी है. LEO रॉकेट में तीन मुख्य स्टेज और एक किक स्टेज होता है, जबकि विक्रम-एस में सिर्फ एक स्टेज था.
“जटिलता और लागत दोनों ही काफी ज्यादा हैं,” चंदना ने कहा.
स्काईरूट को एक रॉकेट स्पेस में भेजने में लगभग 2 मिलियन डॉलर खर्च होता है, लेकिन चंदना कहते हैं कि एक लॉन्च से 10 मिलियन डॉलर तक कमाई हो सकती है, ग्राहक और उनकी कक्षा की जरूरतों के आधार पर. और कंपनी SpaceX से अलग मॉडल पेश करती है.
SpaceX बड़े पेलोड स्थिर कक्षाओं में भेजता है, जबकि स्काईरूट क्षेत्रीय जरूरतों के हिसाब से सही कक्षा चुनने की सुविधा देता है.
“SpaceX ट्रेन जैसा है और हम कैब की तरह,” चंदना ने कहा. “और इस कैब मार्केट में रॉकेट लैब के अलावा कोई खिलाड़ी नहीं है.”
कौन हैं फाउंडर
चंदना रॉकेट साइंस की दुनिया में नए नहीं हैं. ISRO में इंजीनियर रहे चंदना IIT खड़गपुर के पूर्व छात्र हैं. उन्होंने 2018 में स्काईरूट की शुरुआत पूर्व ISRO इंजीनियर और IIT मद्रास के पूर्व छात्र नागा भारत डाका के साथ की.
विक्रम-1 लॉन्च के सामने खड़ी चुनौतियों के बारे में चंदना बेहद शांत रहते हैं. सॉफ्ट-स्पोकन इंजीनियर हर तकनीकी समस्या को ऐसे समझाते हैं जैसे उनके पास हर बाधा की मानसिक फाइल बनाई हुई हो.
“अगर एक भी सिस्टम काम न करे, तो सालों तक अटक सकते हैं,” उन्होंने कहा. “जैसे थ्रस्ट वेक्टर कंट्रोल सिस्टम जिसे रॉकेट को मोड़ने के लिए इस्तेमाल करते हैं. इसे उम्मीद से ज्यादा समय लगा.”
वह निजी क्षेत्र की ज्यादातर तरक्की का श्रेय इसरो को देते हैं. स्कायरूट आज भी अपने प्रोपल्शन टेस्ट, इंजन टेस्ट, असेंबली और लॉन्च के लिए इसरो की सुविधाओं का इस्तेमाल करता है.

2020 में भारत सरकार ने IN-SPACe (इंडियन नेशनल स्पेस प्रमोशन एंड ऑथराइजेशन सेंटर) बनाया ताकि निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ सके. अहमदाबाद में इसका मुख्यालय विक्रम-एस लॉन्च से सिर्फ पांच महीने पहले बना.
“भारत में पहला प्राइवेट रॉकेट लॉन्च हमारा था. आमतौर पर ऑथराइजेशन में सालों लगते हैं. लेकिन IN-SPACe ने सुनिश्चित किया कि सारी प्रक्रिया समय पर पूरी हो,” चंदना ने कहा.
स्काईरूट के ऑफिस से 30 km दूर ध्रुव स्पेस का मुख्यालय भारत के निजी स्पेस उद्योग की लंबी यात्रा का दृश्य रूप में सबूत देता है. एक दीवार पर पुराने मिशनों के प्रतीक लगे हैं और सामने पिंग-पोंग टेबल रखी है.
2012 में बनी ध्रुव भारत के निजी स्पेस सेक्टर की शुरुआती कंपनियों में से एक है. लेकिन शुरुआती साल बिल्कुल आसान नहीं थे, संस्थापक संजय नेकांति बताते हैं, जो तमिलनाडु के एसआरएम यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक्स और टेलीकम्युनिकेशन की पढ़ाई कर चुके हैं.
“सोचिए, एक 22 साल का लड़का कह रहा है कि मैं सैटेलाइट बनाऊंगा. यह कठिन था,” उन्होंने कहा. “लेकिन सरकार को बाजार खोलने की जरूरत समझ आ रही थी. दुनिया पहले ही इसमें तेजी से बढ़ रही थी.”

2017 से 2019 के बीच नेक्कंटी के साथ उनके पुराने दोस्त चैतन्य डोरा सुरपरेड्डी, अभय एगो़र और कृष्ण तेज पेनामाकुरु जुड़े — सभी BITS पिलानी के ग्रेजुएट. चारों और उनके परिवार काम के बाहर भी साथ समय बिताते हैं.
“मैं हमेशा फुल-स्टैक सॉल्यूशन करना चाहता था, लेकिन 2017 में निवेशकों को मनाना मुश्किल था,” नेकांति ने कहा. “हम 163वें निवेशक पर जाकर सफल हुए.”
रौनक कुमार सामंत्रे भी निवेशकों से कई बार मना किए जाने का अनुभव रखते हैं. TakeMe2Space उनकी पहली स्टार्टअप नहीं है. वह इससे पहले NowFloats शुरू कर चुके थे, जो छोटे व्यापारों के लिए लोकल डिस्कवरी प्लेटफॉर्म था. उन्होंने भुवनेश्वर के कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी से कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की और माइक्रोसॉफ्ट में भी काम किया.
2019 में रिलायंस इंडस्ट्रीज ने NowFloats को खरीद लिया. इसके बाद समंत्राय ने ऐसे सेक्टर की तलाश शुरू की जो अगले दस सालों में महत्वपूर्ण हो.
“मैं कभी एक सेक्टर नहीं चुनता. हमेशा कई सेक्टर देखता हूं,” उन्होंने कहा. स्पेस, क्वांटम कंप्यूटिंग, ह्यूमनॉइड और CRISPR (जीन एडिटिंग तकनीक) तक वे पहुंचे. “हर कोई SaaS कर रहा था.”
स्पेस चुना लेकिन इसे और संकुचित करना था. स्काईरूट और अग्निकुल जैसे खिलाड़ियों को देखते हुए सैटेलाइट सही दिशा लगी. लेकिन बिजनेस आइडिया इरिटेशन से आया. इंजीनियर होने के बावजूद, कोडिंग जानने और पैसे होने के बावजूद, वह सैटेलाइट तक पहुंच नहीं बना पा रहे थे.
“और लोग कह रहे थे कि इंसान स्पेस-फेयरिंग प्रजाति बन जाएगा,” उन्होंने कहा. यह उन्हें खटकने लगा. लेकिन समंत्राय, जिनके भीतर बागी और टिंकरर की झलक है, ‘ना’ सुनकर रुकने वालों में से नहीं थे.
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