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Tuesday, 2 December, 2025
होममत-विमतIMF की रूटीन रिपोर्ट को ऐसे पेश किया जा सकता है जैसे भारत की अर्थव्यवस्था फेल हो रही हो

IMF की रूटीन रिपोर्ट को ऐसे पेश किया जा सकता है जैसे भारत की अर्थव्यवस्था फेल हो रही हो

IMF मेथड की आलोचना कर रहा है, न कि नैतिकता की और उसकी चिंता सांख्यिकीय तकनीक में है, न कि किसी नैतिक गड़बड़ी में.

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अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की भारत पर सालाना रिपोर्ट के बाद कई सुर्खियां यह चिल्ला रही हैं कि देश के आर्थिक आंकड़ों को सी-ग्रेड मिला है, लेकिन आईएमएफ की अपनी रिपोर्ट कहती है कि भारत की अर्थव्यवस्था “अभी भी अच्छा प्रदर्शन कर रही है.” स्टाफ रिपोर्ट में लिखा है, “बाहरी चुनौतियों के बावजूद, विकास मजबूत रहने की उम्मीद है, जिसे अनुकूल घरेलू हालात का समर्थन मिलेगा.”

रिपोर्ट में आगे 7.8 प्रतिशत जीडीपी वृद्धि, महंगाई में गिरावट, नियंत्रित खाद्य कीमतें, मजबूत कॉर्पोरेट सेक्टर और बढ़ती कैपिटल बफर दर्ज है. कोई हैरानी नहीं कि रिपोर्ट राजकोषीय सुधार का संकेत देती है.

कुछ अच्छे बिंदुओं को चुनकर उन्हें एक अलग नैरेटिव गढ़ देना विपक्षी गठबंधन की खास कला है—ऐसा गठबंधन जो एक उभरते भारत को अस्थिर करने के लिए बनाया जा रहा है. यह आईएमएफ और भारत सरकार के रिश्तों को खराब दिखाने, टकराव पैदा करने और भारत की नकारात्मक छवि बनाने के लिए भी किया जा सकता है. रिपोर्ट में इस्तेमाल की गई टेब्युलेशन पद्धति इस मौके को आसान बनाती है, क्योंकि यह अध्ययन के नतीजों से मेल नहीं खाती.

आईएमएफ को ऐसे दिखाया गया है जैसे वह दुनिया का स्कूल हेडमास्टर हो, जो छात्रों को डांटता भी है और ग्रेड भी देता है. इस “वैश्विक नैतिक ऑडिटर” ने भारत को ‘सी’ दे दिया—एक ऐसा देश जो दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और जैसे सुझाव दिया हो कि भारत को अब अतिरिक्त ट्यूशन लेनी चाहिए.

IMF का डेटा क्यों है ज़रूरी

किसी रिपोर्ट कार्ड पर मिला ‘सी’ ग्रेड किसी भी माता-पिता को परेशान कर देता है और यही बात आर्थिक नीति और आर्थिक वृद्धि की दुनिया में भी लागू होती है. क्या आईएमएफ को एक ऐसा भरोसेमंद संगठन माना जा सकता है जिसकी बात भारत की अगले दस साल की विकास दर को नुकसान पहुंचा सकती है? क्या एक खराब रेटिंग, जो ऊपर से देखने में एक कमज़ोर अकाउंट्स मिलान रिपोर्ट जैसी लगती है, निवेशकों, नीतिनिर्माताओं और अर्थशास्त्रियों को भारत के जीडीपी और महंगाई के आंकड़ों को लेकर फैसले बदलने पर मजबूर कर सकती है और निवेश व बिज़नेस फैसलों को प्रभावित कर सकती है?

इन रेटिंग्स का छिपा हुआ उद्देश्य भारत के अच्छे जीडीपी आंकड़ों पर शक पैदा करना है, जो हाल की तिमाही में 8 प्रतिशत से ज्यादा की दर से बढ़ने की उम्मीद है. इसका मकसद यह बताना है कि ये आंकड़े ‘बढ़ाए गए’ हैं और सरकारी डेटा की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना है. सरकार के आलोचक पहले ही कहते रहते हैं कि डेटा गलत है और इस रिपोर्ट में डाली गई टेबल उनके आरोपों को सही साबित करने के लिए इस्तेमाल की जा रही है.

मेथडोलॉजी को लेकर चिंताएं सतही लगती हैं, क्योंकि टैक्सेशन, सब्सिडी, सामाजिक कल्याण और निवेश प्रोत्साहन पर लिए गए फैसले अच्छी तरह काम कर रहे हैं, जैसे कि दूरदराज़ इलाकों तक योजनाएं पहुंचना, जीडीपी में बढ़ोतरी, महंगाई पर नियंत्रण वगैरह.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मेक इन इंडिया’ को एक प्रतिस्पर्धी, ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के लिए आगे बढ़ा रहे हैं. ऐसी स्थिति में माना जा रहा है कि आईएमएफ की रिपोर्ट को ग्लोबल इन्वेस्टर्स , ऑर्गनाइज़ेशन और इन्वेस्टमेंट रेटिंग एजेंसियां पढ़ेंगी ताकि भारत में विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया जा सके और सिर्फ डाली गई टेबल पर भरोसा नहीं किया जाएगा, लेकिन ‘सी’ फिर भी ‘इज़ ऑफ इन्वेस्टमेंट’ रिपोर्ट के लिए खराब ग्रेड है.

‘C’ को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया

नीचे दी गई टेबल में दिखाया गया है कि आईएमएफ रेटिंग में भारत की तुलना अन्य देशों से कैसी है.

भारत को कुल मिलाकर ‘B’ ग्रेड मिला है और सिर्फ national accounts के लिए ‘C’ मिला है | फोटो: श्रुति नैथानी/दिप्रिंट
भारत को कुल मिलाकर ‘B’ ग्रेड मिला है और सिर्फ national accounts के लिए ‘C’ मिला है | फोटो: श्रुति नैथानी/दिप्रिंट

भारत को कुल मिलाकर ‘बी’ ग्रेड मिला है और सिर्फ राष्ट्रीय आंकड़ों के लिए ‘सी’ मिला है. वास्तव में, भारत का प्रदर्शन चीन से बेहतर है. इसका मतलब है कि यह फैसला आर्थिक प्रदर्शन पर नहीं, बल्कि डेटा और मेथडोलॉजी पर है.

आईएमएफ ने मेथड की आलोचना की है, न कि मूल बात की. चिंताएं सांख्यिकीय तकनीक को लेकर हैं, नैतिक आचरण को लेकर नहीं. कुछ मुद्दे बेस ईयर—2011-12 को लेकर उठाए गए हैं, जिसे पुराना बताया जा रहा है और जो अब भारत में आए बदलावों को ठीक से नहीं दर्शाता, जैसे सेवा क्षेत्र की वृद्धि, डिजिटलीकरण, अनौपचारिक क्षेत्र की बदलती स्थिति और उपभोग पैटर्न में बदलाव.

डिफ्लेटर्स (जो नॉमिनल जीडीपी को रियल जीडीपी में बदलते हैं) अक्सर पुराने इंडेक्स जैसे थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित होते हैं, उत्पादक मूल्य सूचकांक पर नहीं.

इन कारणों से वास्तविक वृद्धि के अनुमान में गड़बड़ी आ सकती है. एक और चिंता इन्फॉर्मल/ऑर्गनाइज़्ड सेक्टर के कवरेज को लेकर है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में यह बहुत तेज़ी से बढ़ा है. विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि सिर्फ जीडीपी पर निर्भर रहने के बजाय खपत, रोज़गार, उत्पादन सूचकांक और क्षेत्र-स्तरीय डेटा जैसे अन्य संकेतकों पर भरोसा किया जाए.

स्पष्ट रूप से, कोई ऐसा व्यक्ति है जिसका इसमें स्वार्थ जुड़ा हुआ है, जो मोदी सरकार के तहत आर्थिक गिरावट की कहानी बनाने और विवाद खड़ा करने की कोशिश कर रहा है. भारत की अर्थव्यवस्था 2011-12 से काफी बढ़ी है और अब लगभग $4.19 trillion तक पहुंच चुकी है. यह पिछले एक दशक में लगभग $2.5 trillion या उससे ज्यादा की बढ़ोतरी दिखाता है. 1.3 बिलियन की आबादी वाले देश के लिए हमारे अनाज भंडार भरे हुए हैं — आज़ादी के बाद से खाद्यान्न उत्पादन छह गुना बढ़ा है, यानी 500 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी. आज भारत के अनाज भंडार भरे हुए हैं और भारत दूसरे देशों को भी खाना निर्यात कर रहा है.

मजबूत और सुरक्षित संस्थागत व्यवस्था का ढांचा

भारत की वित्तीय व्यवस्था मजबूत बुनियाद पर बनी है, जिसमें सख्त नियम और संतुलन मौजूद हैं. CAG इसका आधार है — एक स्वतंत्र संस्था जिसे संविधान से यह शक्ति मिली है कि वह केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मिले और खर्च किए गए हर एक नए पैसे का ऑडिट कर सके. इसकी रिपोर्टें संसद में रखी जाती हैं और बहु-दलीय समितियों द्वारा बारीकी से जांची जाती हैं, जिससे खातों में गड़बड़ी करना लगभग असंभव हो जाता है.

आरबीआई सरकार की सभी उधार प्रक्रियाओं की सीधी निगरानी करता है; नियम औपचारिक हैं और सभी खुलासे पारदर्शी. आरबीआई के आंकड़े और ऑडिट रिपोर्टें एक-दूसरे से मिलाई जाती हैं. टैक्स कलेक्शन भी डिजिटल सिस्टम्स के ज़रिए ऑडिट होते हैं और नियमित रूप से मिलान किया जाता है. कॉरपोरेट रिकॉर्ड की भी पूरी तरह जांच होती है और बीएफएसआई सेक्टर में 95 प्रतिशत भुगतान डिजिटाइज्ड हो चुके हैं.

ऐसी व्यवस्था में गड़बड़ी की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है और वित्तीय आंकड़ों को गलत तरीके से बदलने की क्षमता काफी सीमित हो जाती है. नेशनल अकाउंटिंग सिस्टम में कुछ सीमाएं हो सकती हैं, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि भारत का डेटा किसी संस्थागत अंधकार में डूबा हुआ है.

भारत के अनौपचारिक सेक्टर की ग्रोथ

इन्फॉर्मल इकोनॉमी का मतलब उन सभी आर्थिक गतिविधियों से है जो औपचारिक व्यवस्था के तहत पूरी तरह कवर नहीं हैं. इसमें गैर-कानूनी गतिविधियां शामिल नहीं होतीं. इस क्षेत्र में दुकान के कर्मचारी, स्ट्रीट वेंडर, ठेले वाले, घरेलू कामगार, घर से चलने वाले छोटे बिज़नेस, कढ़ाई करने वाले, दर्जी, कारीगर आते हैं. माना जाता है कि अनौपचारिक क्षेत्र भारत के जीडीपी का लगभग 50 प्रतिशत योगदान देता है.

एक धारणा बनाई जाती है कि इन्फॉर्मल सेक्टर अर्थव्यवस्था का एक खाली हिस्सा है, जैसे कोई अंधेरा बादल, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. आज यूपीआई और डिजिटल पेमेंट की वजह से 10 रुपये तक के लेन-देन भी फोन से हो रहे हैं. खासकर ज़ेन ज़ी अब कैश रखना पसंद ही नहीं करती. रिसर्च के अनुसार किराना दुकानों (82%), स्ट्रीट वेंडरों (68%) और गिग वर्कर्स (74%) में डिजिटल पेमेंट का तेज़ी से विस्तार हुआ है. मुझे बताया गया है कि कुछ धार्मिक स्थलों पर तो भिखारी भी दान लेने के लिए क्यूआर कोड रखते हैं. फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि इन्फॉर्मल सेक्टर भारत की ग्रोथ स्टोरी से बाहर है?

एक फुटपाथ विक्रेता के पास जीएसटी रजिस्ट्रेशन नहीं हो सकता और वह रिटर्न भी न भरता हो, लेकिन वह जिन सामानों को बेच रहा है, वे रजिस्टर्ड मैन्युफैक्चरर और डिस्ट्रीब्यूशन चेन से ही होकर आते हैं, जो अपने लेन-देन रिपोर्ट करते हैं. यूपीआई पेमेंट करने के लिए उसे बैंकिंग सिस्टम में आना पड़ता है और अगर उसने माइक्रो लोन लिए हैं, तो वह औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन जाता है. यही बात घरेलू कामगार पर भी लागू होती है, अगर वह डिजिटल पेमेंट लेती है, तो वह भी औपचारिक व्यवस्था से जुड़ जाती है.

विश्व बैंक की ग्लोबल फिनडैक्स रिपोर्ट के अनुसार 2011 से 2021 के बीच भारत में खोले गए बैंक खातों की संख्या दोगुनी हो गई—35 प्रतिशत से बढ़कर 78 प्रतिशत वयस्कों तक.

स्मार्टफोन से आई क्रांति

भारत में स्मार्टफोन अब गांवों तक पहुंच चुके हैं और इसलिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल आर्थिक विकास का एक मजबूत संकेतक माना जाता है. यह डिजिटल पेमेंट, जानकारी और सेवाओं तक पहुंच, छोटे व्यापारों को सशक्त बनाने और ग्रामीण इलाकों में नए बिज़नेस मॉडल शुरू करने में एक बड़ा कारण बना है. राजस्थान की छोटी रजाई बनाने वाली अब अपने स्मार्टफोन से दुनिया तक पहुंच सकती है, जैसे उत्तराखंड की ऊनी टोपी बुनने वाली महिला भी कर सकती है.

व्यापक मॉड्यूलर सर्वे: दूरसंचार (जनवरी-मार्च 2025) के मुताबिक 15-29 वर्ष की आयु वाले ग्रामीण युवाओं में 96.8% स्मार्टफोन इस्तेमाल करते हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 97.6% है. भारत में लोगों के लिए स्मार्टफोन अब बैंक, क्लासरूम और टीवी बन गया है और ग्रामीण इलाकों में इसकी पहुंच लगभग पूरी हो चुकी है. किसान भी अब डिजीटल क्रॉप सर्वे, एमकिसान पॉर्टल और नेशनल पेस्ट सर्विलेंस सिस्टम जैसे ऐप्स का इस्तेमाल कर रहे हैं. ये उन्हें बाज़ार का भाव, मौसम की जानकारी और कीट स्थिति के बारे में बताते हैं और अपनी फसल दूर-दराज के स्थानों पर बेचने में भी मदद करते हैं. मोबाइल क्रांति ने ग्रामीण भारत में हरित क्रांति की जगह ले ली है.

भारत की अर्थव्यवस्था अनोखी है और 1.3 अरब लोगों की ज़रूरतों को पूरा करती है. आईएमएफ एक सम्मानित एजेंसी है, लेकिन उसे आर्थिक विकास और प्रगति पर रिपोर्टिंग करते समय एक व्यवस्थित और संतुलित दृष्टिकोण रखना चाहिए और किसी तरह की पक्षपातपूर्ण राजनीति को अपने रुख पर हावी नहीं होने देना चाहिए. भारत को अस्थिर करने की कोशिश करने वाले या यहां जिसे ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ कहा जाता है, उनके लिए किसी तरह का ‘प्रॉक्सी’ बनने की कोई ज़रूरत नहीं है.

ट्रंप के टैरिफ लागू होने और चीन-अमेरिका संबंधों में उतार-चढ़ाव के बावजूद, भारत की अर्थव्यवस्था घरेलू खपत और डिजिटलाइजेशन के सहारे लगातार मजबूत हुई है. प्रधानमंत्री मोदी के सक्षम नेतृत्व में हम अपनी ग्रोथ स्टोरी खुद लिखेंगे.

(मीनाक्षी लेखी भाजपा की नेत्री, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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