लखनऊ में रविवार, 23 नवंबर को हुए दिव्य गीता प्रेरणा उत्सव में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बताया कि जब राजदूत और हाई कमिश्नर उनसे मिलने आते हैं तो वे उनसे क्या पूछते हैं. “क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े हुए हैं?”
योगी ने कहा, “हम लोग कहते हैं, हां, हम लोगों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में एक स्वयंसेवक के रूप में काम किया है.” योगी संघ की लंबी तारीफ करते हुए यही बता रहे थे. सामने दर्शकों में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत भी बैठे थे, जिन्हें योगी ने “कर्मयोगी” कहा. योगी किसी आरएसएस शाखा में जाने के लिए नहीं जाने जाते. कॉलेज के दिनों में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी), यानी संघ के छात्र विंग, से जुड़े थे. भागवत ने योगी का यह ध्यान से सुना होगा कि उन्होंने आरएसएस में स्वयंसेवक के रूप में काम किया था.
अगले दिन, सोमवार को आरएसएस प्रमुख की योगी से अयोध्या में 90 मिनट की अकेली मुलाकात हुई. यह उनकी पिछले साल मथुरा में हुई दो घंटे की मुलाकात के बाद हुई और मंगलवार को, दोनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ राम मंदिर में ध्वजारोहण कार्यक्रम में शामिल हुए.
मेरे लखनऊ स्थित सहयोगी, प्रशांत श्रीवास्तव ने रिपोर्ट की है कि संघ के पदाधिकारी योगी के मंत्रियों और अफसरों से लगातार बैठकें कर रहे हैं ताकि सरकार की योजनाओं और प्राथमिकताओं को समझा जा सके और बेहतर तालमेल बनाया जा सके.
एक बाहरी सीएम
योगी और भागवत (यानी आरएसएस) के बीच बढ़ती गर्मजोशी साफ दिखाई देती है. संघ के अंदर पहले जो ‘बाहरी’ व्यक्ति को लेकर झिझक थी कि उसे कंट्रोल नहीं किया जा सकता, वह अब कम होती दिख रही है. इस झिझक की वजहें भी थीं. जैसे, योगी एबीवीपी में थे, लेकिन कभी उसके अंदरूनी सदस्य नहीं माने गए. वे बीजेपी में थे, लेकिन वहां भी पूरी तरह अंदरूनी नहीं थे. शरत प्रधान और अतुल चंद्रा की किताब योगी आदित्यनाथ: रिलिजन, पॉलिटिक्स एंड पावर में दिए गए दो उदाहरण इसे दिखाते हैं.
1991 में, जब योगी उत्तराखंड की हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, उन्होंने छात्र संघ का चुनाव बतौर स्वतंत्र उम्मीदवार लड़ा, क्योंकि एबीवीपी ने उन्हें टिकट देने से मना कर दिया था. वे दूसरे नंबर पर आए, जबकि एबीवीपी का आधिकारिक उम्मीदवार तीसरे नंबर पर रहा.
2002 में, उन्होंने बीजेपी के खिलाफ बगावत कर दी और डॉ. राधा मोहन अग्रवाल को हिंदू महासभा के टिकट पर उतारा. अग्रवाल ने बीजेपी उम्मीदवार को हरा दिया. यानी, योगी को ‘कंट्रोल’ करना मुश्किल है. वे संगठन वाले व्यक्ति नहीं हैं. प्रधान और चंद्रा की किताब के मुताबिक, उनके कॉलेज के दोस्त कहते हैं कि शुरू से ही, “आरएसएस और धार्मिक व सामाजिक मुद्दों ने उनके दिमाग को घेर रखा था.” उदाहरण के तौर पर, 1989-90 में वे आरक्षण विरोधी आंदोलन में शामिल हुए और वीपी सिंह का पुतला जलाया.
आरएसएस के भीतर के लोग कहते हैं कि योगी का ‘बाहरी’ होना बड़ी बात नहीं है, क्योंकि वे हमेशा वैचारिक रूप से आरएसएस के साथ चले हैं. जहां तक ‘कंट्रोल’ की बात है, पीएम मोदी ने भी अतीत में पार्टी हाईकमान की बात नहीं मानी है.
2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में, मोदी ने पार्टी के लिए प्रचार करने से इनकार कर दिया था क्योंकि संजय जोशी—जो एक समय आरएसएस प्रचारक थे और बाद में मोदी से टकराव हो गया था, उस चुनाव के प्रभारी थे. तब बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने मोदी के विरोध के बावजूद जोशी को वापस संगठन में ले लिया था.
यूपी चुनाव में बीजेपी का खराब प्रदर्शन ही काफी नहीं था. कुछ महीनों बाद, तब के गुजरात सीएम मोदी ने मुंबई में होने वाली बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का बहिष्कार करने की धमकी दी, जब तक जोशी को हटाया न जाए. पार्टी को झुकना पड़ा. जोशी ने इस्तीफा दिया, तभी मोदी ने बैठक में आने के लिए हामी भरी.
इन घटनाओं के बावजूद, आरएसएस या बीजेपी के अंदरूनी सदस्य होने के मामले में योगी और मोदी की तुलना नहीं की जा सकती. मोदी पूरे समय के आरएसएस प्रचारक रहे हैं, जबकि योगी कभी शाखा में भी नहीं गए. बीजेपी में भेजे जाने पर मोदी ने गुजरात में सालों तक काम किया और बाद में राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बने, तभी वे सीएम बने. योगी, इसके उलट, संगठन के काम में लगभग कभी नहीं रहे, सिवाय इसके कि वे सांसद रहे.
इसी पृष्ठभूमि में योगी और आरएसएस के बीच बढ़ती नज़दीकी बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाती है. भागवत का योगी से अक्सर बंद कमरे में मिलना, कार्यक्रमों में साथ दिखना और अयोध्या में साथ-साथ चलना, ये सभी चीज़ें यूपी सीएम को लेकर पहले जो अंदेशा था, उन्हें दूर कर रही हैं.
यह मानी हुई बात है कि योगी आदित्यनाथ बीजेपी के दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता हैं. विकास पर उनका फोकस जैसे 2018 से अब तक 12 लाख करोड़ रुपये के निवेश के ग्राउंडब्रेकिंग समारोह, ने उनकी छवि और मजबूत किया है.
यह बात भी उनके पक्ष में जाती है कि वे ईमानदार हैं और उन्होंने एक बड़े उद्देश्य के लिए अपने परिवार को पीछे छोड़ दिया है.
योगी की चुनौती
अगर अब आरएसएस को खुले तौर पर योगी को आशीर्वाद देते हुए देखा जा रहा है, तो यह ज़्यादा मायने नहीं रखता कि वे संगठन वाले व्यक्ति हैं या नहीं, लेकिन जल्दी कोई नतीजा मत निकालिए. इससे यह नहीं माना जा सकता कि वे पीएम मोदी के उत्तराधिकारी बन गए हैं. योगी को अभी कई और चीज़ें साबित करनी होंगी, तभी वे भविष्य में कभी “दूसरे मोदी” के तौर पर देखे जा सकते हैं.
पहली बात, संगठन का व्यक्ति न होने का मतलब है कि उनके अपने लोग संगठन में नहीं हैं, ऐसे लोग जो उनके लिए पैरवी करें या लड़ें. मोदी ने पार्टी में बहुत लंबे समय तक अलग-अलग भूमिकाओं में काम किया, इसलिए उनके वफादार लोग और समर्थक सिर्फ दिल्ली में नहीं, पूरे देश में थे. एलके आडवाणी जैसे दिग्गज नेता का संरक्षण उन्हें कई मुश्किल दौर से निकालता रहा, खासकर जब वे मुख्यमंत्री थे. जब तक आडवाणी को मोदी की असली महत्वाकांक्षाओं का पता चला, तब तक मोदी के पास इतनी बड़ी फौज थी कि उन्हें किसी संरक्षक की ज़रूरत नहीं रही.
योगी के पास दिल्ली में कोई बड़ा समर्थक या वफादार नहीं है; लखनऊ में भी बहुत कम हैं. सिर्फ खुद ही अपना ब्रांड एंबेसडर होना, किसी महत्वाकांक्षी नेता के लिए आदर्श स्थिति नहीं है.
दूसरी बात, मोदी के पास अमित शाह हैं, ऐसे व्यक्ति जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी अपने नेता की सेवा में लगा दी. जैसा कि मैंने अपने सितंबर 2022 के लेख में लिखा था, शाह आज जितने ताकतवर नेता और चुनावी रणनीतिकार हैं, वह ज़्यादातर मोदी की सीख का नतीजा है. 24×7 राजनीति में डूबा हुआ, इतना वफादार साथी होना मोदी की बड़ी ताकत रहा है. योगी के पास शाह जैसा कोई नहीं है. यूपी के सीएम के पास कुछ अफसर और गैर-राजनीतिक लोग हैं, जिन पर वे भरोसा करते हैं. ये लोग उन्हें नोएडा-दिल्ली बॉर्डर से आगे नहीं बढ़ा सकते. उन्हें बीजेपी में दोस्त चाहिए जो कि आज बहुत कम हैं और तब तक ज़्यादा नहीं होंगे, जब तक आरएसएस को नए बीजेपी राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन में भूमिका नहीं मिलेगी.
तीसरी बात, मोदी के पास राजनीति से मेल खाती जाति की पहचान है, लेकिन ठाकुर होना योगी के लिए फायदेमंद नहीं है. यह एक बॉक्स है जिसे वे चाहकर भी टिक नहीं कर सकते. उल्टा, उनके ही पार्टी के साथी और सहयोगी उनकी सरकार पर पिछड़ी जातियों के हितों की अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं. 2027 में, जब जाति जनगणना के आंकड़े आएंगे और ओबीसी समुदाय की ओर से और आरक्षण या हिस्सेदारी की मांग बढ़ेगी, तब एक ठाकुर नेता की स्थिति और संभावनाओं की कल्पना कीजिए.
योगी आदित्यनाथ की सबसे बड़ी और नज़दीकी चुनौती है अगला यूपी विधानसभा चुनाव, जो अब सिर्फ 15 महीने दूर है. उन्हें सिर्फ विपक्ष से ही नहीं लड़ना है. बीजेपी के अंदर ही उनके विरोधी कम ताकतवर नहीं हैं. अगर वे 2027 की लड़ाई हारते हैं, तो आने वाले समय में किसी भी बॉक्स को टिक करने की नौबत ही नहीं आएगी.
आरएसएस का यह “समर्थन” उन्हें ऐसे वक्त में मिला है, जब इसकी उन्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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