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Thursday, 27 November, 2025
होममत-विमतSC का लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन पर आदेश भारतीय धर्मनिरपेक्षता की खासियत को कैसे अनदेखा करता है?

SC का लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन पर आदेश भारतीय धर्मनिरपेक्षता की खासियत को कैसे अनदेखा करता है?

कार्यक्रमों की वर्षगांठ, मंदिरों का उद्घाटन और कई धर्मों की परेड — ये सब उसी समय संभव हैं जब हर नागरिक के विश्वास और असहमति के अधिकार की कड़ी सुरक्षा की जाए.

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भारत के गणराज्य में सेक्युलरिज़्म का मतलब अक्सर बहस का विषय बन जाता है, खासकर हाल की उन परिस्थितियों में जब सरकार और धर्म के बीच की रेखा धुंधली दिखती है. यह तब दिखाई देता है जब केंद्र सरकार अयोध्या में राम मंदिर के प्राणप्रतिष्ठा समारोह में खुलकर शामिल होती है या श्री गुरु तेग बहादुर की 350वीं शहादत वर्षगांठ जैसे सिख धार्मिक अवसरों को बड़े स्तर पर मनाती है. ऐसे समय में सेक्युलरिज़्म की परीक्षा सिर्फ सरकारी दफ्तरों में नहीं, बल्कि काम की जगहों, यूनिफॉर्म और अदालतों में भी होती है.

यूनिफॉर्म और अंतरात्मा का सवाल: लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन का केस

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने लेफ्टिनेंट सैमुअल कमलेसन की सेवा समाप्ति के फैसले को सही ठहराया. यह फैसला उन चुनौतियों को दिखाता है जो सेना जैसी अनुशासित संस्थाओं में काम करने वाले लोगों को पेश आती हैं. कमलेसन प्रोटेस्टेंट क्रिश्चियन थे और भारतीय सेना की 3rd कैवेलरी रेजीमेंट में ट्रूप लीडर थे. उन्हें इसलिए बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी रेजीमेंट के मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने से इनकार कर दिया था, हालांकि वे बाकी समय धार्मिक परेड में शामिल होते थे और सम्मान भी दिखाते थे.

उनका तर्क, जो उनके वकील ने कोर्ट में रखा, यह था कि उनके धर्म की पहली आज्ञा—“तुम मेरे सिवा किसी और को भगवान मत मानो”—के अनुसार किसी दूसरे धर्म के पवित्र स्थान में सक्रिय रूप से प्रवेश करना उनकी धार्मिक अंतरात्मा के खिलाफ है. सेना और अंत में सुप्रीम कोर्ट ने इसे निजी आस्था का मामला नहीं, बल्कि रेजीमेंट के अनुशासन और एकता से जुड़ी अस्वीकार्य कार्रवाई माना. कोर्ट ने साफ कहा कि सेना में सेवा करने का मतलब है कि व्यक्ति अपनी कुछ स्वतंत्रता त्यागता है ताकि यूनिट की एकजुटता बनी रहे. भारतीय सेना के लिए सेक्युलरिज़्म का मतलब है कि जवानों को अलग-अलग धार्मिक कार्यक्रमों में समान रूप से हिस्सा लेना चाहिए ताकि मनोबल और एकता बनी रहे.

लेकिन यह मामला सिर्फ सैन्य कानून का मुद्दा नहीं है. यह एक बुनियादी सवाल उठाता है: क्या सेक्युलरिज़्म का मतलब यह है कि सार्वजनिक जीवन से धर्म को पूरी तरह अलग कर दिया जाए, या फिर ऐसा माहौल बनाया जाए जिसमें सभी धर्मों का सम्मान हो सके? और असली गलती क्या होती है—जब किसी पर धार्मिक रस्म निभाने का दबाव डाला जाए, या जब निजी अंतरात्मा के आधार पर खड़ा होने पर उसे सजा दी जाए?

सिद्धांत और अंतरात्मा: जस्टिस कुरियन जोसेफ का मामला

भारत की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को समझने के लिए न्यायपालिका की एक अहम घटना को याद करना उपयोगी है. 2015 में, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जो एक कट्टर सिरो-मलाबार कैथोलिक हैं, ने तत्कालीन चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एच.एल. दत्तू को पत्र लिखकर इस बात पर दुख जताया कि चीफ जस्टिसेज़ कॉन्फ्रेंस और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ आधिकारिक डिनर का आयोजन गुड फ्राइडे के दिन रखा गया था. यह दिन ईसाइयों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. जस्टिस जोसेफ ने विनम्रता से कार्यक्रम में शामिल होने से मना किया और कहा कि उनकी अनुपस्थिति विरोध नहीं, बल्कि सम्मान का संकेत है. उन्होंने अपील की कि सरकारी भारत को सभी बड़े धर्मों के प्रति बराबर संवेदनशीलता दिखानी चाहिए और राष्ट्रीय कार्यक्रमों की तारीख तय करते समय इसका ध्यान रखना चाहिए.

उनके इस कदम ने तीखी प्रतिक्रियाएं पैदा कीं. आलोचकों, जिनमें एक रिटायर्ड सुप्रीम कोर्ट जज भी शामिल थे, ने उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने संस्थागत कर्तव्य से ऊपर अपनी धार्मिक पहचान को रखा. उन्होंने यह भी कहा कि सरकारी कार्यक्रम अक्सर सभी धर्मों के त्योहारों के साथ टकराते हैं. लेकिन कई लोगों ने जस्टिस कुरियन के कदम को सार्वजनिक धार्मिक नियमों की मांग नहीं, बल्कि एक ऐसे समावेशी धर्मनिरपेक्षता की अपील माना, जो भिन्नताओं को जगह देती है और भारतीयों की कई पहचान को स्वीकार करती है.

भारतीय धर्मनिरपेक्षता: राज्य की भूमिका और व्यक्ति की अंतरात्मा

भारत की धर्मनिरपेक्षता न तो फ्रांस की तरह पूरी तरह धर्म से अलग है और न ही ब्रिटेन-अमेरिका की तरह कड़ाई से अलगाववादी. इन दोनों मामलों से पता चलता है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता संवाद पर आधारित, लचीली और व्यावहारिक है. राज्य को धर्म से पूरी तरह अनजान नहीं होना चाहिए. बल्कि अदालतों और सरकार को हर विश्वास के प्रति बराबर सम्मान और गरिमा सुनिश्चित करनी चाहिए.

यह भावना तब भी दिखती है जब सरकार बड़े धार्मिक आयोजनों में शामिल होती है—चाहे वह अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन हो या सिख गुरुओं की महत्वपूर्ण वर्षगांठों का सम्मान. संविधान की मूल प्रस्तावना में “धर्मनिरपेक्ष” शब्द नहीं था, लेकिन इसकी संरचना और सोच शुरू से ही धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों पर आधारित थी. आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन में इस शब्द को जोड़ा गया. बाद में 44वें संशोधन में कई विवादित प्रावधान हटाए गए, लेकिन “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को नहीं हटाया गया. यह एक राजनीतिक और कानूनी संकेत था कि यह सिद्धांत अब मूल और अटल हो चुका है.

लचीलापन, कठोरता नहीं: भारतीय धर्मनिरपेक्षता की असली ताकत

मुद्दा यह नहीं है कि सार्वजनिक जीवन से धर्म को पूरी तरह हटाना चाहिए या व्यक्तियों को अपनी अंतरात्मा दबानी चाहिए. बल्कि भारतीय व्यवस्था की खासियत इस संतुलन में है. धार्मिक आयोजनों, मंदिर उद्घाटनों और बहुधर्मी कार्यक्रमों के साथ-साथ हर नागरिक के विश्वास और असहमति के अधिकार की कड़ी सुरक्षा—ये दोनों साथ-साथ चल सकते हैं.

यहां धर्मनिरपेक्षता का मतलब धर्म को सार्वजनिक जीवन से निकाल देना नहीं है, और न ही यह किसी व्यक्ति को “धार्मिक रीति” अपनाने या अपने मूल्यों के खिलाफ जाने के लिए मजबूर करती है. इसके बजाय यह सुनिश्चित करती है कि हर विश्वास को बराबर सम्मान मिले और विभिन्न मान्यताओं का यह विविध संसार किसी भी व्यक्ति के बहिष्कार या भेदभाव की वजह न बने. इस मॉडल में लचीलापन ही ताकत है—जहां सामूहिक परंपराएं और व्यक्तिगत अंतरात्मा, दोनों के लिए जगह है. इसी में भारत के धर्मनिरपेक्ष गणराज्य की असली शक्ति और आशा दिखाई देती है.

केबीएस सिद्धू पंजाब के पूर्व आईएएस अधिकारी हैं, जिन्होंने स्पेशल चीफ सेक्रेटरी के पद से रिटायर हुए हैं. वह @kbssidhu1961 पर लिखते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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