बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठेठ लफ्फाजी भरा भाषण दिया. उन्होंने बड़बोला दावा किया: “गंगा बिहार से होकर बंगाल तक बहती है. बिहार में हमारी जीत ने इस नदी की तरह बंगाल में जीत का रास्ता बना दिया है.”
भूगोल और चुनावी राजनीति के बीच की यह तुलना चुनावों के प्रति मोदी के नजरिए का खुलासा करती है. वे मानते हैं कि चुनाव में जीत इलाके फतह करने, भौगोलिक क्षेत्रों पर शाही वर्चस्व कायम करने के समान है; यह रियासतों पर आक्रामक कब्जा करने जैसा है जिन्हें भाजपाई साम्राज्य की जमीन में समाहित किया जा सकता है. मोदी और गृह मंत्री अमित शाह चुनाव प्रचार को अश्वमेध यज्ञ जैसा मानते हैं जिसमें बेलगाम शाही घोड़ा प्रदेशों को एक-एक करके जीतते हुए आगे बढ़ता जाता है.
भाजपा का नेतृत्व चुनाव को अपना प्रतिनिधि चुनने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आधुनिक प्रक्रिया के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे विजयी सेना का भू-क्षेत्रों पर कब्जे की कूच, साम्राज्य निर्माण के अभियान के रूप में देखता है. इसलिए बिहार और बंगाल उसके लिए एक इलाका, एक क्षेत्र से ज्यादा कुछ नहीं है, जिस पर अंततः भाजपा का ही वर्चस्व कायम होना है, जैसे कोई विशाल नदी पहाड़ों, घाटियों, तमाम इलाकों को अपने आगोश में लेते हुए आगे बढ़ती जाती है. ऐसा लगता है कि मोदी यह मान बैठे हैं कि बिहार के बाद बंगाल की बारी है.
लेकिन अफसोस है प्रधानमंत्री जी! आप इसमें गलत हैं. बंगाल बिहार नहीं है और न कभी बिहार बनेगा. भाजपा बंगाल पर कभी ‘विजय’ नहीं हासिल कर सकती. इसकी कुछ वजहें नीचे बताई जा रही हैं.
अजेय नेता
सबसे पहली वजह है नेतृत्व. बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बराबर का कोई नेता नहीं है. भाजपा का कोई चेहरा, या किसी और पार्टी का कोई सदस्य ममता बनर्जी के कद, उनकी उपलब्धियों, या जनता के साथ उनके जुड़ाव का मुक़ाबला नहीं कर सकता. वे भारत के अंतिम बड़े जन नेताओं में शुमार हैं, और अपने आपमें एक अनूठी राजनीतिक घटना हैं : एक अकेली महिला ने बिना किसी पुरुष पूर्वज के वरदहस्त के एक पार्टी और आंदोलन को अकेले अपने संघर्ष के बूते खड़ा किया है.
ममता बनर्जी ने भीषण वाममोर्चे से तीन दशकों तक संघर्ष किया, सड़कों पर उससे निडर होकर लड़ीं-भिड़ीं. रोज-रोज उन्होंने जनता से जुड़ाव बनाए रखा, हर सप्ताह पश्चिम बंगाल के अलग-अलग इलाके के दौरे करती रहीं, जरूरतमंद गरीबों की सहायता करती रहीं, प्राकृतिक आपदाओं में मददगार की भूमिका निभाती रहीं. दीदी कभी जनता का साथ नहीं छोडतीं, वे हमेशा उसके बीच रहती हैं.
बेहद सादगी भरा निजी जीवन जीते हुए उन्होंने पद के प्रलोभनों को कोई छूट नहीं दी की वे उनकी छवि को बदल दें. ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि वे तमाम मुख्यमंत्रियों में ‘सबसे गरीब’ मुख्यमंत्री हैं.
ममता बनर्जी तीन बार मुख्यमंत्री, सात बार सांसद, और चार बार केंद्रीय मंत्री रही हैं, जो आज उन्हें देश में सबसे अनुभवी प्रशासकों में शुमार करता है. बिहार में नीतीश कुमार के सौम्य व्यक्तित्व, राज्य की सेवा में बिताए उनके लंबे समय, उनके साफ-सुथरे निजी रेकॉर्ड और महिलाओं के बीच उनकी पैठ ने एनडीए को चुनाव जिताया. भाजपा नीतीश कुमार की उंगली पकड़कर आगे निकल गई. बिहार को मोदी ने नहीं, नीतीश कुमार ने जीता.
आज के बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व और बांहें फैलाए नेता की उनकी छवि के करिश्मे की कोई काट नहीं है. बंगाल में भाजपा के पास नीतीश कुमार जैसी कोई हस्ती नहीं है. पार्टी का चेहरा माने गए शुभेन्दु अधिकारी कोई चुनौती नहीं पेश करते; वे न केवल तृणमूल काँग्रेस के सदस्य रह चुके हैं बल्कि उनके कड़वे, बेतुके भाषण, खुला बड़बोलापन, उनका अप्रिय और आक्रामक आचरण उन्हें बंगाल के नफीस मतदाता के लिए विकल्प के रूप में खारिज कर देता है.
महिला वाला पहलू
भाजपा बंगाल को बिहार की तरह कभी नहीं जीत सकती, इसकी दूसरी वजह है महिला ‘फैक्टर’. बिहार में भाजपाई गठजोड़ ने ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना’ के तहत चुनाव से पहले दस-दस हजार रुपये की रिश्वत बांटी. ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी)’ के जरिए यह पैसा मतदान के दौरान भी बांटा गया. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार में पुरुषों के मुक़ाबले 10 फीसदी ज्यादा महिलाओं ने मतदान किया.
बंगाल में महिला सशक्तीकरण और महिला कल्याण ममता बनर्जी सरकार का सबसे अग्रणी और केंद्रीय कार्यक्रम रहा है. बंगाल की सरकार का ‘कन्याश्री प्रकल्प’ कार्यक्रम एक दशक से भी ज्यादा पुराना है और इसे जनसेवा के लिए संयुक्त राष्ट्र से पुरस्कार भी मिल चुका है.
‘रूपश्री प्रकल्प’, ‘लक्ष्मीर भंडार’ जैसी कई स्कीमों और ‘स्वास्थ्य साथी’ (जिसमें स्वास्थ्य बीमा का भुगतान किया जाता है) जैसे नये कार्यक्रमों ने, जिनमें महिला को घर का मुखिया माना जाता है (इसमें परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला को स्मार्ट कार्ड दिया जाता है), महिलाओं के समग्र कल्याण के लिए ठोस बहुआयामी मंच तैयार कर दिया है. राज्य की इस तरह की स्कीमों का ज़ोर शिक्षा के अवसर बढ़ाने, छोटे कारोबार के लिए फंड जुटाने, और स्वास्थ्यसेवा के लिए फंड जुटाने पर है. बंगाल में महिलाओं को सिर्फ चुनाव से पहले एक बार भुगतान नहीं दिया जाता, बल्कि महिला केंद्रित रुख ही व्यवस्थित सरकारी नीति है.
बिहार (जहां नये मंत्रिमंडल में केवल तीन महिलाओं को शामिल किया गया है) की तरह बंगाल में महिलाएं राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में पिछड़ी नहीं हैं. आज लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सांसदों में 40 फीसदी महिलाएं हैं. लोकसभा में टीएमसी की मुख्य सचेतक और उप-नेता महिला हैं. पार्टी जीतने वाली सीटों पर महिलाओं को खड़ा करती है; बंगाल की सरकार में महिलाओं को नौ मंत्री पद मिले हैं, जिनमें वित्त तथा वाणिज्य और उद्योग जैसे अहम विभाग शामिल हैं.
तामिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जे. जयललिता की तरह ममता बनर्जी ने भी महिलाओं का अटूट समर्थन जीता है और यह वोट उनके साथ पत्थर की तरह अटल है. महिलाओं को ममता बनर्जी से अलग करना भाजपा के लिए असंभव ही है, खासकर इसलिए कि मोदी को उनका मखौल उड़ाते हुए “दीदी ओ दीदी” की आवाज लगाते सुना जा चुका है. बंगाल में आप महिलाओं का खुला मखौल उड़ाकर उनसे वोट पाने की उम्मीद नहीं कर सकते.
‘असुरक्षित’ झूठ
तीसरे, बिहार में भाजपा लालू प्रसाद यादव के दौर को ‘जंगल राज’ बताने में सफल रही, जिसमें लालू ने अराजकता और हिंसा के दौर में जनता को आतंकित किए रखा था. भाजपा और उसका दुष्प्रचार तंत्र बंगाल को ‘असुरक्षित’ घोषित करने के लिए एड़ी-चोटी एक कर रही है. मुख्यधारा के टीवी एंकर बात-बात पर ‘बंगाल आतंक’ के शो करके शोर मचा रहे हैं. लेकिन जीत सच्चाई की ही हो रही है.
भाजपा ने संदेशखली में तथाकथित ‘सामूहिक बलात्कार’ कांड का जो मामला उछाला था वह गलत साबित हुआ. पिछले साल आर.जी. कर मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल में बलात्कार और हत्या के अपराधी को तुरंत गिरफ्तार किया गया, और हाल में दुर्गापुर में हमले की वारदात की खबर कुछ गलत तरह से दी गई थी. दुर्गापुर में ‘विरोध’ करने आई भाजपा की आवाज अचानक शांत हो गई.
कोलकाता पुलिस पूरी मुस्तैद है, वह न केवल अपराध पर नियंत्रण कर रही है बल्कि विशाल जमावड़ों को काबू में भी रख रही है. उसने दुर्गा पूजा के दौरान लाखों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए 10,000-15,000 के पुलिसबल को तैनात किया और कोई भगदड़ न होने दी. बंगाल ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए पिछले साल एक सख्त ‘अपराजिता महिला एवं बाल विधेयक’ पास किया. राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) कोलकाता को पिछले चार वर्षों से महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित शहर घोषित कर रहा है. ‘असुरक्षित बंगाल’ भाजपा का एक झूठा प्रचार है जिसकी हकीकत बंगाल के मतदाताओं ने जान ली है.
बंगाल की आर्थिक वृद्धि और पहचान
चौथे, उद्योगों की कमी के चलते घोर गरीबी और बेरोजगारी से त्रस्त बिहार की आर्थिक स्थिति के विपरीत, बंगाल प्रगति के रास्ते पर है. ‘इंडिया टुडे’ पत्रिका ने बताया है कि कोलकाता आईटी का अगला केंद्र बनने जा रहा है. इस साल के शुरू में बंगाल ने निवेश को बढ़ावा देने के लिए बंगाल ग्लोबल बिजनेस समिट का सफल आयोजन किया. राज्य का घरेलू उत्पाद 2010-11 में 4 लाख करोड़ रुपये के मूल्य का था, जो आज 18 लाख करोड़ रुपये के मूल्य का हो गया है. बंगाल में मैनुफैक्चरिंग ने 7 फीसदी से ज्यादा की अच्छी वृद्धि दर्ज की है.
गंभीर चुनौतियां बेशक मौजूद हैं. उद्योग के प्रति वाममोर्चा सरकार की उपेक्षा ने बड़ी कीमत वसूली है लेकिन उस जड़ता को तोड़ दिया गया है. बंगाल के बारे में जो दुष्प्रचार किया जाता है कि वह अभावों और दरिद्रता के अंधेरे में पड़ा है उसे इसने बहुत पीछे छोड़ दिया है. इसकी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ रही है, जीवंत सिविल सोसाइटी उद्यम की संस्कृति को मजबूत कर रही है और उद्योग जगत के दिग्गज बंगाल लौट रहे हैं.
पांचवीं और अंतिम वजह है बंगाली पहचान, जो बांग्ला भाषा, भक्ति परंपरा, खानपान, और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से जुड़ी है. इस पहचान को भाजपा की हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान के छाते में कभी जब्त नहीं किया जा सकता. बंगाल की पहचान की जड़ें विश्व बंधुत्व में धंसी हैं. यह ऐसा लोकाचार है जो धार्मिक मतभेदों पर नहीं बल्कि उसकी भाषा और विरासत पर आधारित है. ‘भद्रलोक’ वाली संस्कृति इस समाज का झीना आवरण हो सकता है, लेकिन मजबूत एकता, समाहित प्रगतिशील मूल्य और साझा भाषायी परंपराएं सबको बांटने के बजाय जोड़ने का काम कर रही हैं.
बंगाल को धर्म के आधार पर बांटना हमेशा से एक औपनिवेशिक मंसूबा रहा है. पहले यह ब्रिटिश सरकार का मंसूबा था, आज नये उपनिवेशवादी संघ परिवार का है. लेकिन ऐसे धार्मिक ध्रुवीकरण को भाषा, खानपान, साझापन और वर्षों पुराने सामुदायिक संबंधों की बहुआयामी धारा की जोड़ने वाली ताकत से चुनौती दी जा रही है.
अपनी अनूठी पहचान से मजबूती से जुड़े बंगाल में भाजपा के एक-भाषा-एक-खानपान-एक-पोशाक-एक- धर्म के बुलडोजर का स्वागत करने वाले गिनती के लोग ही मिलेंगे. बिहारी पहचान एक व्यापक रूप से फैली भावना है जिसकी तुलना हमारी विविधतापूर्ण सांस्कृतिक विरासत के प्रति बंगालियों के लगाव से नहीं की जा सकती. एक बंगाली अपनी पहचान के प्रतीकों को मुख्यतः उत्तर भारतीय हिंदीभाषी राजनीतिक दल के आगे सरेंडर नहीं कर सकता, चाहे यह बांग्ला में बात करना हो या सामिष भोजन खाना हो या मां दुर्गा और मां कालि की पूजा करना हो. बंगाल को ऊपर-ऊपर से देखने वाले इसके अंदर बहने वाली सामूहिक स्मृति तथा भावना की अदृश्य अंतर्धारा को नहीं भेद सकते.
रवींद्रनाथ ठाकुर लिख चुके हैं: “बांगालीर पोन, बांगालीर आशा, बांगालीर काज, बांगालीर भाषा, सत्य हाऊक, सत्य हाऊक, सत्य हाऊक”. हिंदी के वर्चस्व को आगे बढ़ाने के लिए बंगाल की मूल्यवान पहचान को मिटा डालने के संघ परिवार के मकसद को महाकवि ठाकुर का समर्थन कभी नहीं मिलता.
इसलिए, मोदी जी आप धोखे में हैं. भाजपा बंगाल को कभी उस तरह नहीं जीत पाएगी जिस तरह गंगा बिहार से चलकर बंगाल पहुंचती है. गंगा पर बंगाल एक ऐसा पुल है, जो भाजपा की पहुंच से बहुत दूर है और लंबे समय तक दूर ही रहेगा.
लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद (राज्यसभा) हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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