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Tuesday, 26 November, 2024
होममत-विमतअब्दुल्ला और महबूबा कभी 'भारत समर्थक मुख्यधारा' में नहीं रहे, लेकिन खुलेआम विरोध भी नहीं किया

अब्दुल्ला और महबूबा कभी ‘भारत समर्थक मुख्यधारा’ में नहीं रहे, लेकिन खुलेआम विरोध भी नहीं किया

यदि संविधान की नाममात्र की शपथ लेना भारत समर्थक होने का प्रतीक है, तो फिर तो विधायक बनने पर हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी ने भी ऐसी शपथ ली थी.

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फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को सप्ताहांत में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिलने देने की अनुमति दिए जाने के बाद नई दिल्ली में ऐसी चर्चा है कि सरकार मुख्यधारा के कश्मीरी नेताओं को कुछ रियायत दे सकती है.

कश्मीर के बारे में लगातार एक निराधार बात फैलाई जाती रही है कि वहां ‘भारत समर्थक मुख्यधारा’ भारत के पक्ष में स्थिति को संभालने का काम करती है, इसलिए इसके नेताओं को सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत नजरबंद करना सरकार की भारी भूल है. ये एक विवादास्पद दलील है और इस झूठे कथानक ने लंबे समय तक भारतीय विमर्श को गलत दिशा में ले जाने का काम किया है.

शेख अब्दुल्ला से लेकर उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला और पोते उमर अब्दुल्ला तक और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की प्रमुख महबूबा मुफ्ती तक – कश्मीर में कथित मुख्यधारा के नेता– वास्तव में कभी  ‘भारत समर्थक’ नहीं रहे हैं. अधिक से अधिक वे पाकिस्तान की सहानुभूति पाने की कोशिश करने और भारत का विरोध नहीं करने के बीच झूलते रहे हैं, पर साथ ही उन्होंने लगातार पाकिस्तान के इस रुख को दोहराया है: ‘हुर्रियत से बात करो, पाकिस्तान से बात करो.’


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उदाहरण के लिए, शेख अब्दुल्ला ने भारत समर्थक होने के कारण जेल में समय नहीं गुजारे थे, बल्कि जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी दोनों ने ही कश्मीर मसले से पाकिस्तान, अमेरिका और ब्रिटेन को जोड़ने के उनके प्रयासों के कारण उन्हें सलाखों के पीछे डाला था. लेकिन फिर बिल्कुल विपरीत रुख अपनाते हुए इंदिरा गांधी ने 1975 के समझौते के बाद अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री बना दिया, हालांकि उनकी नेशनल कान्फ्रेंस (एनसी) का एक भी विधायक नहीं था, जबकि इंदिरा गांधी की कांग्रेस का 75 में से 61 सीटों पर कब्जा था.

और जहां तक महबूबा मुफ्ती की बात है, उन्होंने कश्मीर के पाकिस्तान समर्थित चरमपंथियों को ‘स्वतंत्रता सेनानी’ बताते हुए और मारे गए चरमपंथियों के घर जाकर शोक संवेदना व्यक्त करते हुए अपना राजनीतिक करिअर शुरू किया था. उनके पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 2014 में अपनी पार्टी के सत्ता हासिल करने के तुरंत बाद पाकिस्तान का शुक्रिया अदा किया था. जब केंद्र सरकार ने पुलवामा हमले – जिसमें सीआरपीएफ के 44 जवानों की मौत हुई थी – के बाद पाकिस्तान समर्थक इस्लामी संगठन जमाते इस्लामी पर प्रतिबंध लगाया तो उमर अब्दुल्ला ने उनकी पैरवी करते हुए सरकार से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया था.

कश्मीर के मुख्यधारा के नेताओं के इस कदर दोमुंहेपन की बहुत सारी वजहें हैं, पर मुख्य वजह है पाकिस्तान का उन्हें दबाव में रखना, जबकि भारत का उनके प्रति नरमी दिखाना.

चरमपंथियों का साथ

2002 के बाद से उग्रवादी संगठन नियमित रूप से एनसी और पीडीपी के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाते रहे हैं, पर इन दलों के नेताओं को वे नहीं छूते हैं.


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यदि वे ‘भारत समर्थक’ होते तो चरमपंथियों ने उन्हें ज़रूर निशाना बनाया होता. दरअसल, पाकिस्तान विश्वासघात के संदेह पर किसी की हत्या करने की अपनी इच्छा और क्षमता का प्रदर्शन कर चुका है. हुर्रियत नेता अब्दुल गनी लोन और कश्मीरी नेता मीरवाइज़ मौलवी फारूक की जान इसी वजह से गई थी. विगत दो दशकों में पाकिस्तान ने कश्मीर के वंशवादी नेताओं की आलोचना करने या उनके प्रति शत्रुता दिखाने की कभी कोई ज़रूरत नहीं महसूस की. जब इन नेताओं की बातें पाकिस्तानी प्रेस विज्ञप्तियों जैसी लगती हों तो भला पाकिस्तान उनकी आलोचना क्यों करे? कश्मीर मुद्दे पर अपनी दलील में मुफ्तियों और अब्दुल्लाओं का जिक्र करना शुरू कर चुके पाकिस्तान ने संयुक्तराष्ट्र से अपनी ताजा गुहार में ये साबित करने की कोशिश करते हुए उमर अब्दुल्ला का उल्लेख किया कि भारत कश्मीरियों का उत्पीड़न कर रहा है.

इसके विपरीत, भारत ने खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व प्रमुख ए. एस. दुलत द्वारा प्रस्तुत सिद्धांत के अनुरूप अपने हर विरोधी को पैसे के बल पर अपने पक्ष में करने की कोशिश की है, जो एक तरह से बिना कोई दबाव बनाए सिर्फ प्रोत्साहन दिए जाने जैसा है.

इसका मतलब यही हुआ कि कश्मीर में जिन्हें ‘मुख्यधारा’ में बताया जाता है वे संविधान की प्रतीकात्मक शपथ लेने के अलावा – जिसे आगे सार्वजनिक रूप से कभी दोहराया नहीं जाता – कहीं से भी ‘भारत समर्थक’ नहीं हैं. याद रहे कि हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी तक ने विधायक बनने के लिए ये शपथ ली थी. जैसा कि रॉ के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद ने मुझे बताया, ‘उनसे मुलाकात में आईएसआई पहला निर्देश यही देती है कि वे आईबी और रॉ से जाकर मिलें और उनके समक्ष डबल एजेंट बनने की पेशकश करें.’

‘अतिवादियों’ को मुख्यधारा में लाना

आइए अब इस पर गौर करें कि कैसे इन वंशवादियों ने – उनकी आर्थिक अक्षमता को परे रखते हुए – भारत के पक्ष में ‘समस्या को संभाला’. बुरहान वानी के मामले से ये बात खुलकर सामने आती है कि कैसे ‘मुख्यधारा’ ने उग्रवादियों का साथ दिया और सशस्त्र बलों के प्रभाव को कुंद करने का काम किया है. फारूक अब्दुल्ला ने 1998 में अपनी रहबर-ए-तालीम योजना के तहत जमाते इस्लामी से जुड़े शिक्षकों को सरकारी स्कूलों में नौकरी देना शुरू किया था. स्थानीय सलाहकारों के कहने पर ऐसा इस उम्मीद में किया गया था कि इससे स्थिति को सामान्य बनाने में मदद मिलेगी. उसके बाद आई विभिन्न सरकारों ने इस प्रक्रिया को तेज करने की ही कोशिशें की. अपने काम के सिलसिले में इस विषय पर नज़र रखने वाले खुफिया प्रमुखों और पुलिस अधिकारियों के अनुसार सरकारी सेवा में नियुक्त ऐसे शिक्षकों की संख्या 2,000 से ऊपर हो चुकी है. मुज़फ्फर अहमद वानी भी जमात से जुड़े इन सरकारी शिक्षकों में शामिल हैं, जिनका बेटा बुरहान वानी हिज़बुल मुजाहिदीन कमांडर था और कश्मीर में खिलाफत स्थापित करने की मंशा रखता था.

यह विषय खास तौर पर इसलिए महत्वपूर्ण है कि जमात की हिज़बुल मुजाहिदीन के लिए वही भूमिका है, जैसा कि आयरलैंड में आयरिश रिपब्लिकन आर्मी के लिए राजनीतिक दल सिन फेन की रही थी. इस दोमुहेंपन ने तब संस्थागत रूप ग्रहण कर लिया जब कभी बिना कैडर की पार्टी रही पीडीपी ने जमात से आए कार्यकर्ताओं के बल पर अपना विस्तार करना शुरू किया. वास्तव में ये व्यवस्था सीधे हिज़बुल मुजाहिदीन के नियंत्रण में होने के मुकाबले हल्की-सी दूरी भर बनाकर रखने जैसी थी. इसी पीडीपी ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार में होने के दौरान 2015 में अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा करने की घोषणा की थी. उल्लेखनीय है कि जम्मू कश्मीर मुस्लिम लीग के संस्थापक मुसर्रत के समर्थन में उसी साल लश्करे तैबा नेता हाफिज़ सईद ने लाहौर में एक रैली की थी. गिलानी के स्वागत में मसर्रत के जुलूस से ही 2016 में कश्मीर में हिंसक चरमपंथ के नए दौर की शुरुआत हुई थी जिसका अंत बुरहान वानी की मौत के साथ हुआ.

संक्षेप में कहें तो एनसी और पीडीपी दोनों ही अतिवादियों को ‘मुख्यधारा’ में शामिल करते रहे और लोगों से वे यही कहते कि इस कदम से अतिवादियों को कट्टरपंथ छोड़ने के लिए प्रोत्साहन मिल सकेगा. लेकिन इसने ‘मुख्यधारा’ की अतिवादियों पर निर्भरता बढ़ाने का और राज्य प्रशासन के साधनों के सहारे अतिवादियों के सशक्तिकरण का ही काम किया.

हतोत्साहित पुलिस बल

‘मुख्यधारा’ ने सुरक्षा बलों को हतोत्साहित करने और उनकी दक्षता कम करने में भी भूमिका निभाई, जबकि वे निष्क्रिय रहते हुए (पर जानबूझ कर) उग्रवाद को मजबूत करते रहे. उदाहरण के लिए, उग्रवाद से लड़ाई के लिए महत्वपूर्ण अनेक बंकरों और चौकियों को जबरन हटाए जाने से सिर्फ उग्रवादियों को ही लाभ हुआ. पत्थरबाजों को सरकारी नौकरी में शामिल किए जाने से पत्थरबाजी को ही बढ़ावा मिला. इसी तरह, शोपियां में कथित रूप से सुरक्षा बलों द्वारा दो महिलाओं से बलात्कार और हत्या के मामले के उमर अब्दुल्ला द्वारा कुप्रबंधन ने पुलिस के लिए चेतावनी का और उन्हें पूरी तरह हतोत्साहित करने का ही काम किया. मामले में वैज्ञानिक और शुरुआती मेडिकल साक्ष्यों की अनदेखी किए जाने से निर्दोष पुलिसकर्मियों को जेल जाना पड़ा – ये सब राजनीतिक फायदे के वास्ते खूनखराबे को हवा देने के रवैये के तहत हुआ. सीबीआई की जांच में बलात्कार और हत्या की बात साबित नहीं होने के बावजूद मुख्यधारा के मीडिया में अब भी इसका किसी वास्तविक आपराधिक घटना के रूप में उल्लेख किया जाता है.

कश्मीर की ‘भारत समर्थक मुख्यधारा’ कभी खुल्लम-खुल्ला भारत-विरोधी नहीं होगी. मौजूदा मुख्यधारा के नेता दरअसल समस्या हैं ना कि समाधान, भले ही उनके हाथों करदाताओं के पैसे से दी गई खैरात पाने वाला ‘मुख्यधारा का प्रेस’ कुछ भी कहे.

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉनफ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. उनका ट्वीट हैंडल @iyervval है. यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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