“हमारे मीर की उम्र लंबी हो!”— यही नारा उज़बेक योद्धा लगा रहे थे जब ईस्ट इंडिया कंपनी के जासूस मोहन लाल ज़ुत्शी 1832 की गर्मियों में कुंदुज़ के दरवाज़े पर पहुंचे. योद्धाओं ने अपने चांदी के गदा हवा में लहराए. मगर ज़ुत्शी ने लिखा कि उनकी यह उम्मीद हकीकत से बिल्कुल उलटी थी: उस सूबे का शासक, उज़बेक सरदार मीर मुराद अली बेग, अपनी मौत के करीब था. “अति चरित्रहीन ज़िंदगी, जिसे उसने चरम तक पहुंचाया था, अब उसे बार-बार दौरे पड़ने लगे हैं और वह किसी काम को निपटाने में सक्षम नहीं रहा.”
लेकिन इसका फर्क ज़्यादा नहीं पड़ा. राज्य का कामकाज बड़े काबिलियत से देख रहे थे दीवान बेगी, यानी प्रधानमंत्री आत्मा राम, जो पेशावर के एक हिंदू व्यापारी थे. “हालांकि वे हिंदू धर्म के सभी रीति-रिवाजों का पालन करते हैं और अपने देश के लोगों को पसंद करते हैं, फिर भी सभी मुसलमान उनका सम्मान करते हैं.”
यहां तक कि कुछ सांस्कृतिक नियम भी आत्मा राम के लिए ढीले कर दिए गए थे: “एक खास व्यक्ति होने के नाते, उनके पास कई मुस्लिम दास लड़कियां और लड़के हैं, यह सुविधा तुर्किस्तान के किसी और हिंदू को नहीं दी जाती.”
पिछले हफ्ते, जब अफगानिस्तान की इस्लामिक अमीरात ने व्यापारियों को पाकिस्तान के साथ अपना कारोबार खत्म करने के लिए 3 महीने की समय सीमा दी, तो यह इतिहास के खिलाफ एक बड़ा और नाटकीय कदम था. पांच सदियों तक, पंजाब के खत्री और बनिया समुदायों ने बोलन दर्रे के मुहाने पर बसे छोटे से कस्बे शिकारपुर से लेकर ओडेसा और यहां तक कि सेंट पीटर्सबर्ग तक एक अद्भुत व्यापारिक नेटवर्क चलाया था.
अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर झड़पें अक्सर भड़कती रही हैं, लेकिन हालिया टकराव के बादस जिसमें तुरखम क्रॉसिंग पर नाश होने वाले सामान ट्रकों में ही सड़ गए, तालिबान के उप-प्रधानमंत्री अब्दुल गनी बरादर ने व्यापारियों से कहा कि “पाकिस्तान की जगह अन्य वैकल्पिक रास्तों पर अपना व्यापार मोड़ें.” लेकिन कहना आसान है, करना मुश्किल: पाकिस्तान 2024 में अफगानिस्तान का सबसे बड़ा अकेला ट्रेड पार्टनर रहा है, जो उसके 45% निर्यात खरीदता था.
तालिबान ने तय किया लगता है कि पाकिस्तान की आर्थिक पकड़ से छुटकारा पाने के लिए कुछ आर्थिक परेशानी झेलना मंजूर है. यह बदलाव 2021 में इस्लामिक अमीरात के सत्ता में आने से पहले ही शुरू हो चुका था. पत्रकार फरंगिस नजीबुल्लाह के मुताबिक, पाकिस्तान के साथ व्यापार 2011 के 5 बिलियन डॉलर से घटकर 2024 में सिर्फ 1 बिलियन डॉलर रह गया है. वहीं पांच मध्य एशियाई देशों—उज़बेकिस्तान, कज़ाखिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिज़स्तान और ताजिकिस्तान, के साथ व्यापार बढ़कर 1.7 बिलियन डॉलर से ज्यादा हो गया है.
तालिबान के नेता उम्मीद कर रहे हैं कि ये नए रिश्ते उन्हें दुनिया में अपनी जगह को दोबारा गढ़ने में मदद करेंगे. भारत का समर्थन इसमें अहम होगा, जिस तरह दो सौ साल पहले था.
हिंदू व्यापारी, इस्लामी दुनिया
सदियों से, अफगानिस्तान से बाहर जाने वाले सबसे भरोसेमंद और तेज़ व्यापारिक रास्ते काबुल से दक्षिण की ओर चलते हुए कराची बंदरगाह तक पहुंचते रहे हैं, लेकिन इसका कारण प्रकृति ने तय नहीं किया था. इतिहासकार स्टीफन डेल बताते हैं कि बार-बार व्यापारिक कारवां पर होने वाले हमलों से तंग आकर, सम्राट अकबर ने 1587 में अटॉक से काबुल तक के रास्ते पर मजबूत सरायों की एक श्रृंखला बनवाई. काकड़ जैसी जनजातियों, जो लूट-पाट से जीविका चलाती थीं, को सख्त सज़ा दी गई. दस साल से भी कम समय में, सड़क को पहियों वाले यातायात के लिए उन्नत कर दिया गया.
इसके बाद व्यापार खूब फला-फूला. कपड़ा, नील और चीनी के निर्यात से भारत में हज़ारों तुर्की घोड़ों का आयात संभव हो पाया. मारवाड़ी और अग्रवाल व्यवसायियों ने अपने कारोबार पश्चिम की ओर बढ़ाए और ईरान के बंदरगाह बंदर अब्बास के ज़रिए लिनन का व्यापार किया.
1623 में ईरान के इस्फहान पहुंचे रूसी व्यापारी एफ.ए. कोटोव ने वहां मुल्तान से आए हिंदू और मुस्लिम दोनों तरह के व्यापारियों को देखा. जर्मन डॉक्टर एंगेलबर्ट केम्पफर ने अनुमान लगाया कि 1684–1685 में शहर में लगभग 10,000 मुल्तान-मूल के व्यापारी रह रहे थे. बड़ी संख्या में भारतीय पुरुषों ने तुर्क महिलाओं से शादी की और इस तरह एक पूरा इलाका आबाद हो गया जिसका नाम पड़ा ‘अग्रिज़ान’.
अफगानिस्तान के शाही प्रशासक माउंटस्टुअर्ट एल्फिन्स्टन ने 1800 के दशक में लिखा कि बड़ी संख्या में हिंदू “दलाल, व्यापारी, बैंकर, सुनार और अनाज बेचने वाले” थे. इतिहासकार स्कॉट लेवी बताते हैं कि ताशकंद, बुखारा और समरकंद में भी हिंदुओं की बड़ी आबादी थी.
ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट मोहन लाल ने टिप्पणी की: “शिकारपुर अमृतसर से अधिक धनी इसलिए है, क्योंकि इसके निवासी जो ज़्यादातर खत्री हैं, पूरे मध्य एशिया के लगभग सभी इलाकों में फैल गए हैं.”
“आप देखेंगे कि सभी दुकानदार हूंडी या विनिमय बिल लिख रहे हैं, जिन्हें आप उनके एजेंटों के नाम पर बॉम्बे, सिंध, पंजाब, ख़ुरासान, अफगानिस्तान, फारस के कुछ हिस्सों और रूस में भुना सकते हैं.”
जंग की स्थिति
लेकिन अफगान बादशाह उस तरह की मज़बूत सरकार नहीं बना पाए, जो देश को आधुनिक बना सके और उनकी अर्थव्यवस्था को हिंद महासागर के बड़े बंदरगाहों से जोड़ सके. उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी केंद्र सरकार के खिलाफ लगातार होने वाले विद्रोह. आधुनिक अफगानिस्तान के निर्माता माने जाने वाले अमीर अब्दुर रहमान के शासनकाल में 40 से ज़्यादा बगावतें हुईं, जिन्हें 82,000 से ज्यादा सैनिकों वाली सेना तैनात करके कुचला गया, लेकिन इतनी बड़ी सेना को चलाना खजाने के लिए मुश्किल था. आगे आने वाले शासक विद्रोहों को दबाने के लिए जनजातीय ताकतों पर निर्भर रहे, जिसने केंद्र की सत्ता को और कमज़ोर कर दिया.
1953 से, राजनीतिक वैज्ञानिक एंटोनियो जियोस्तोज़ी लिखते हैं, कि प्रधानमंत्री मुहम्मद दाऊद खान की सरकार ने केंद्रीकृत, राष्ट्रीय चेतना बनाने की कोशिश की. इसके लिए उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को दी गई पश्तून इलाकों को वापस लेने का मुद्दा उठाया, लेकिन इससे पाकिस्तान के साथ एक धीमी, लंबी लड़ाई शुरू हो गई और खान को पीछे हटना पड़ा.
ज़हीर शाह के शासन में थोड़ी-सी उदारीकरण की शुरुआत हुई, लेकिन वह भी जल्द रुक गई. 1969 के चुनावों में ज़मींदारों, जनजातीय नेताओं और मौलवियों जैसे रूढ़िवादी तत्वों से भरी संसद चुनी गई. विदेशी सहायता में कमी और संसद द्वारा नए कर लगाने से इंकार करने के कारण देश एक गहरी संकट में फंस गया. अफगानिस्तान की दो-तिहाई इंडस्ट्री राज्य के हाथ में थी, लेकिन वह नए, शिक्षित वर्ग को पर्याप्त रोज़गार नहीं दे पा रही थी और यह वर्ग कट्टर वामपंथ की ओर मुड़ गया.
नतीजा था एक अस्थिर राजनीति और विदेशी मदद पर निर्भर, कमज़ोर अर्थव्यवस्था, जो एक संकट से दूसरी संकट में गिरती चली गई. 1991 में सोवियत संघ के टूटने और अफगानिस्तान में लंबी गृहयुद्ध ने उत्तर की ओर जाने वाले बाज़ार बंद कर दिए और पाकिस्तान पर निर्भरता और बढ़ा दी.
तालिबान का दांव
किसी ने उम्मीद नहीं की थी कि इस्लामिक अमीरात पाकिस्तान के खिलाफ इस तरह खड़ा हो जाएगा. अगस्त 2021 में सत्ता संभालने के बाद से अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था एक-चौथाई सिकुड़ चुकी है. टैक्स से होने वाली कमाई बढ़ी है और काबुल में नई इमारतें भी बन रही हैं, लेकिन तालिबान को कर्मचारियों की तनख्वाह घटानी पड़ी है और लोगों को नौकरी से निकालना पड़ा है. लगता है कि तालिबान ने यह तय कर लिया है कि पाकिस्तान उनकी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में कोई बड़ी भूमिका नहीं निभा सकता. इसलिए वे थोड़े समय की मुश्किलें झेलकर रणनीतिक स्वतंत्रता पाना चाहते हैं.
तालिबान नेताओं को शायद लगता है कि पाकिस्तान के साथ मिलकर तहरीक-ए-तालिबान के खिलाफ लड़ाई में शामिल होने से उन्हें एक लंबा, महंगा सैन्य अभियान लड़ना पड़ेगा, जो बहुत अलोकप्रिय फैसले और अनिश्चित सैन्य नतीजे देगा.
इस बात का अभी कोई अंदाज़ा नहीं कि यह दरार लंबी अवधि में क्या रूप लेगी. अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था को पाकिस्तान की निर्भरता से हटाकर मध्य एशिया, ईरान और चीन से जोड़ना आसान नहीं है, इसके लिए बड़े लॉजिस्टिक इंतज़ाम और निवेश चाहिए. अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों ने पाकिस्तान से इसके अलग होने का समर्थन किया है. ईरान ने तो अपने इलाके से जाने वाले माल पर अच्छी-खासी सब्सिडी भी दी है, लेकिन यह पूरा समाधान नहीं है. इसके लिए ईरान के रास्ते लॉजिस्टिक ढांचा खड़ा करने में भारत का सहयोग बेहद अहम होगा.
भारत के विभाजन के बाद, अफगानिस्तान लगभग पूरी तरह एक दुश्मन पड़ोसी पर निर्भर रह गया. साथ ही, भारत से जुड़े वे व्यापारी नेटवर्क भी टूट गए, जो उसे ईरान और मध्य एशिया से जोड़ते थे. तालिबान यह दांव लगा रहा है कि समय और भू-राजनीतिक परिस्थितियां बदलेंगी और वे इन पुराने नेटवर्क को फिर से खड़ा कर पाएंगे. यह एक बहुत बड़ा दांव है जिसके नतीजे भूकंप जैसे बड़े हो सकते हैं.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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