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Friday, 22 November, 2024
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राष्ट्रवाद, मॉब लिंचिंग और शरणार्थी समस्या पर कांशीराम के विचार

उत्तर भारत में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की मज़बूत आवाज़ बनकर उभरे कांशीराम का 9 अक्टूबर को 13वां परिनिर्वाण दिवस है. राष्ट्र आज जिन सवालों से जूझ रहा है, उन पर वे किस तरह सोचते थे.

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बहुजन नायक के नाम से प्रसिद्ध हुए मान्यवर कांशीराम ने भारतीय समाज के दबे-कुचले वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए बामसेफ, डीएसफ़ोर, बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर और फिर बीएसपी की स्थापना की और इन वर्गों की आवाज़ को जन-जन तक पहुंचाने के लिए ऑप्रेस्ड इंडियन, बहुजन नायक, बहुजन टाइम्स जैसे अख़बारों/पत्रिकाओं का सम्पादन और प्रकाशन किया था. कांशीराम की लम्बे समय तक इस बात के लिए आलोचना होती रही कि वे आंबेडकरवाद को नुक़सान पहुंचा रहे हैं. ख़ासकर इस बात के लिए कि वे जातियों के उन्मूलन की बात नहीं करते बल्कि जातियों को मज़बूत बनाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि अपने समय की समस्याओं को बाबासाहेब आंबेडकर के विचार और संदेश से जोड़ते हुए कांशीराम आंबेडकरवाद को नयी बुलंदियों तक ले गए.

जब किसी राजनेता को उसके जन्मदिवस या फिर परिनिर्वाण दिवस या बरसी पर याद किया जाता है, तो अमूमन उनके द्वारा किए गए अच्छे कार्यों का लेखा-जोखा तैयार किया जाता है. जबकि किसी राजनेता को अगर एक सामाजिक विचारक के तौर पर याद किया जाना हो तो ये जानना बेहतर होगा कि वर्तमान समय में जो सवाल देश और समाज के सामने हैं, उन पर उक्त नेता के क्या विचार थे. इस लेख में वर्तमान समय के बड़े सवालों पर कांशीराम के विचार जानने की कोशिश की गयी है. कांशीराम के इन विचारों को इस लेखक ने उनके सहयोगी रहे मनोहर आप्टे की किताब ‘द एडिटोरीयल्स ऑफ़ कांशीराम’ से निकाला है.

राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्र प्रेम का सवाल

पिछले कुछ समय से हमारे देश में राष्ट्रवाद पर काफ़ी बहस चल रही है. वैसे भारत में यह बहस कोई नयी नहीं है. ये बहस महात्मा फुले, बाल गंगाधर तिलक, मोहनदास करमचंद गांधी, बाबासाहेब बीआर आंबेडकर, मान्यवर कांशीराम के समय से होकर हम तक पहुंची है. हर समय यह बहस अलग-अलग मुद्दे के आस पास होती रही है, लेकिन उसके मूल में एक सवाल ये जरूर रहता है कि राष्ट्र का सम्मान या अपमान किसमें है? कांशीराम के समय में इस सवाल को मंदिर-मस्जिद विवाद की आड़ में उठाया गया था, और यह कहा जा रहा था कि मध्यकालीन समय में मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा अयोध्या में राम मंदिर का गिराया जाना, राष्ट्र का अपमान था. ऐसा कहने वाले कोई ऐतिहासिक साक्ष्य भी पेश नहीं कर रहे थे.


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कांशीराम का कहना था कि प्राचीन समय में किसी मंदिर के गिराए जाने से ज़्यादा हमारे राष्ट्र का सम्मान उस वक्त नीचे गिरता है, जब कुछ लोग महिलाओं का रेप कर देते हैं, जब कुछ लोग सरे आम नौजवानों की हत्या करते हैं, आम लोगों को ज़िंदा जला देते हैं, और कमज़ोर लोगों की झोपड़ियों को उजाड़ देते हैं और यह सब करते हुए उन्हें किसी तरह का भय भी नहीं होता है. कांशीराम राष्ट्र को किसी सांस्कृतिक प्रतीक, धर्म, पहचान की जगह, उसमें रहने वाले नागरिकों से जोड़कर देख रहे थे. इस मामले में वे बाबा साहब के बिल्कुल साथ खड़े नजर आते हैं.

अराजक भीड़ का राज और मॉब लिंचिंग

आज हम देख रहे हैं कि किस तरह से भीड़ सरेआम दलितों और मुसलमानों को गाय मारने या खाने आदि का आरोप लगा कर मार दे रही है. हालात ऐसे हो गए हैं कि पशुपालन के लिए गाय ले जाना या मरी गाय का खाल उतारना भी जोखिम भरा काम हो गया है. अब तो भीड़ का निशाना पुलिस अधिकारी और पत्रकार भी होने लगे हैं. कांशीराम ने भीड़ द्वारा क़ानून को अपने हाथ में लेने की प्रवृत्ति को मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन और बाबरी मस्जिद गिराए जाने तक में देखा था. वे भीड़ के शासन को काफ़ी ख़तरनाक बताते हैं.

कांशीराम के अनुसार भारत में लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने की कोशिश हो रही है, जहां क़ानून के शासन की जगह भीड़ शासन करने लगती है. भीड़ का शासन ही फ़ासीवाद का मूल है. भीड़ के शासन में संवैधानिक लोकतंत्र का कोई मायने नहीं रह जाता. ग्रीक दार्शनिक प्लेटो की लोकतंत्र की आलोचना को आधार बनकर कांशीराम बताते हैं कि जब भीड़ शासन करने लगती है, तो लोकतंत्र सबसे ख़राब शासन प्रणाली बन जाता है. प्राचीन यूनान में जब लोकतंत्र का मतलब बहुमत का शासन था तब बहुमत कब भीड़ में बदल जाता था, उसका कोई पता नहीं चल पाता था. विदित हो कि बहुमत के भीड़ में बदल जाने की वजह से ही प्राचीन यूनान में महान दार्शनिक सुकरात को वहां के देवताओं का अपमान करने और युवाओं को भड़काने का आरोप लगाकर ज़हर का प्याला पीने की सज़ा दी गयी थी, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी थी. प्लेटो ने इसी घटना के आधार पर प्राचीन लोकतंत्र को सबसे ख़राब शासन प्रणाली बताया था, क्योंकि वह समाज के ज्ञानी लोगों के ख़िलाफ़ होता है. जिस समाज में ज्ञानी लोग न हो, उसकी उन्नति कभी भी नहीं होती. गौर करने की बात है कि बाबा साहेब भी भीड़तंत्र और उग्र आंदोलनों के सख्त खिलाफ थे और अपनी मांगों को संवैधानिक तरीके से हासिल करने के पक्षधर थे. उग्र आंदोलनों को वे ग्रामर ऑफ एनार्की कहते थे.

घुसपैठिए या शरणार्थी

भारत को अंग्रेज़ों से आज़ादी के साथ-साथ विभाजन का अभिशाप भी झेलना पड़ा है, जिसकी वजह से बड़ी संख्या में शरणार्थी पाकिस्तान से भारत में आए. बाद में बड़ी संख्या में शरणार्थी तिब्बत और पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश से भी आए. पाकिस्तान से शरणार्थी के तौर पर आने वाले सवर्ण भी थी और तथाकथित निचली जाति के भी थे. कांशीराम के अनुसार सवर्ण जाति के शरणार्थियों को सरकार ने सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करायीं, जबकि निचली जाति के शरणार्थी शहरों के किनारे बनी झुग्गियों में जीवन जीने को मजबूर हैं. कांशीराम कहते हैं कि आज उन शरणार्थियों को भारत से निकलने की बात चल पड़ी है.


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ग्रामीण क्षेत्रों से विस्थापित होकर शहरों में आए लोग भी कांशीराम के अनुसार शरणार्थी ही हैं, क्योंकि यह विस्थापन बड़ी संख्या में देशी रियासतों को भारत में विलय करने, ज़मीदारों द्वारा भगाए जाने आदि की वजह से भी हुआ. कांशीराम सभी शरणार्थियों को सम्मान पूर्वक प्रश्रय और जीने के अवसर देने के पक्षधर थे.

शरणार्थियों पर बात करते समय हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ख़ुद बाबासाहेब आंबेडकर ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समक्ष मुद्दा उठाया था कि अछूत शरणार्थियों को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा है. विभाजन के समय पाकिस्तान में उनको ज़बरदस्ती गंदे कार्य कराने के लिए रोका गया था. आज जब पाकिस्तान के 1971 के विभाजन के बाद आए शरणार्थियों को भारत से भगा देने की बात चल रही है, तो इस बात की तहक़ीक़ात की जानी चाहिए कि कहीं बाद में शरणार्थी के तौर पर वो अछूत तो नहीं आए, जिनको आज़ादी के समय पाकिस्तान में ज़बरदस्ती रोक लिया गया था, या फिर भारत आने नहीं दिया गया था.

साम्प्रदायिक दंगे और अल्पसंख्यकों का सवाल

धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिक हिंसा और घृणा का विस्तार भारत में आज का आम चलन है. कांशीराम इन दंगों की पीछे की मानसिकता बताते हैं कि ऐसा करने के पीछे का उद्देश्य अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पैदा करना और उनको उनके बिजनेस से विस्थापित करके उन्हें ग़ुलाम बनाने की भावना होती है. असुरक्षा की भावना होने से धार्मिक अल्पसंख्यक वोट बैंक में तब्दील हो जाता है, और बिना अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखे वोट देने लगता है. कांशीराम इस चीज़ से अल्पसंख्यकों को निजात दिलाने की बात करते थे.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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