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Thursday, 20 November, 2025
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अब भारत को आगे बढ़ना होगा, ‘नौतून बांग्लादेश’ से जुड़िए

पांच दशक पुराने इतिहास से जुड़ी कोई भी लंबी चाहत अब वर्तमान रिश्तों को हमेशा के लिए नुकसान पहुंचाएगी.

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बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने, एक तरह से, अपनी ही बनाई दवा चखी है. इंटरनेशनल क्राइम्स ट्राइब्यूनल—वह विशेष अदालत जिसे उन्होंने 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान मानवता के खिलाफ अपराध के आरोपियों के मुकदमों के लिए बनाया था, उसने उन्हें मौत की सज़ा दी है. यह फैसला उनके उस रोल के लिए सुनाया गया है, जो उन्होंने पिछले साल अपने पद से हटने से पहले हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुई हिंसा और मौतों में निभाया था.

हालांकि, 17 नवंबर को आए 400 से ज्यादा पन्नों के फैसले का वक्त चौंकाने वाला हो सकता है, लेकिन उसका स्वरूप अप्रत्याशित नहीं था. जो माहौल बदल रहा था, वह काफी समय से स्पष्ट था, खासकर इस साल मई में आवामी लीग पर प्रतिबंध लगने के बाद से. जो लोग अभी भी उम्मीद कर रहे थे कि हसीना बांग्लादेश लौट आएंगी, अब उन्हें इस फैसले को स्वीकार करना होगा. बांग्लादेश ने एक नया पन्ना खोल लिया है, जैसे वह पहले भी कई बार कर चुका है.

जैसे बांग्लादेश की जनता को नए नियमों को अपनाकर आगे बढ़ना होगा, वैसे ही ढाका के पड़ोसियों और वैश्विक समुदाय को भी यह करना पड़ेगा और इस नए अध्याय के साथ जुड़ना पड़ेगा.

भारत के लिए, बांग्लादेश के साथ साझा इतिहास इस स्वीकार्यता को थोड़ा कठिन बनाता है. एक स्वतंत्र बांग्लादेश का उदय भारत के समर्थन और 1971 में भारतीय सेना के बलिदान के बिना संभव नहीं था. फिर भी, अगर आज की राजनीतिक नेतृत्व उस साझा इतिहास को मिटाने या तोड़-मरोड़कर दिखाने की कोशिश करता है, तो पड़ोसी देशों के लिए उसे बार-बार याद दिलाना बेकार हो जाता है.

यह बांग्लादेशियों पर निर्भर करता है कि उनके लिए क्या बेहतर है और आने वाला नेतृत्व उनका अपना फैसला होगा—बशर्ते चुनाव धांधली वाले न हों, लेकिन पांच दशक पुराने इतिहास से जुड़ी कोई भी लंबी चाहत मौजूदा रिश्तों को हमेशा के लिए नुकसान पहुंचाएगी.

इतिहास की सीमित उम्र

1971 का मुक्ति युद्ध, जैसे किसी भी देश की आज़ादी का बड़ा घटनाक्रम, बांग्लादेश में आने वाले दशकों तक गूंजता रहा है और उसे राजनीतिक मकसद से भी इस्तेमाल किया गया है. मुक्ति युद्ध का महिमामंडित इतिहास, जिसे हसीना बार-बार राष्ट्रीय भावनाएं जगाने के लिए इस्तेमाल करती थीं, उसे ऐसे तरीके से पेश किया गया जो उनके नज़रिये को बढ़ावा देता था.

जो लोग उस कहानी को मान लेते थे, उन्हें ही फायदे मिलते थे और उनकी वफादारी हासिल होती थी. यही वजहों में से एक जुलाई-अगस्त 2024 के आंदोलन की भी थी. सत्ता में बैठे लोगों ने एक बुनियादी ऐतिहासिक सच्चाई को नज़रअंदाज़ कर दिया था: इतिहास की एक सीमित उम्र होती है, और हर पीढ़ी के साथ उसका असर कम होता जाता है.

बांग्लादेश हो या नेपाल, राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ युवाओं द्वारा चलाए गए आंदोलनों ने दिखाया है कि नई पीढ़ी पुरानी विरासत का बोझ नहीं उठाती. नेपाल में 200 साल पुरानी शाह राजशाही का 2006 में खत्म होना, फिर इस साल केपी शर्मा ओली सरकार का गिरना और आवामी लीग के 1971 युद्ध वाले नैरेटिव का खारिज होना, सब एक ही बात बताते हैं. एक दिन सब खत्म हो जाता है. अगर इतिहास को सही से बचाकर न रखा जाए, तो नई और पुरानी पीढ़ी के बीच दूरी बढ़ती है और इतिहास को ही नुकसान होता है.

1971 की चमक अब शेख हसीना के जाने के साथ धुंधली पड़ गई है. पिछले महीने, एक संयुक्त घोषणा—जुलाई चार्टर पर हस्ताक्षर किए गए, जिसे बांग्लादेश के अंतरिम प्रमुख मोहम्मद यूनुस ने “नए बांग्लादेश” का जन्म बताया. शासन और संविधान में सुधार लाने, लोकतांत्रिक संस्थाओं को पारदर्शिता और न्याय के साथ बहाल करने का वादा करते हुए, यह “नूतन बांग्लादेश” की नई आधारशिला बन सकता है.

नई दिल्ली-ढाका समीकरण

शेख हसीना के फैसले के जवाब में, भारत ने सबसे बेहतर तरीके से यह जताया है कि वह “बांग्लादेश के लोगों के सर्वोत्तम हितों के लिए प्रतिबद्ध है, जिसमें उस देश में शांति, लोकतंत्र, समावेश और स्थिरता शामिल है” और वह “सभी हितधारकों के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ने” के लिए तैयार है.

यह जुड़ाव एकतरफा नहीं हो सकता, यह तो साफ है. मोहम्मद यूनुस की अगुवाई वाली सरकार और भविष्य की चुनी गई सरकारों को इस मामले में भारत के साथ पूरी पारदर्शिता रखनी होगी, लेकिन 1971 से आगे बढ़ना ही शायद एकमात्र व्यावहारिक रास्ता है.

अगर मान लिया जाए कि भारत इतिहास से आगे बढ़कर एक नया जुड़ाव ढांचा बनाने की तैयारी कर रहा है, तो ढाका का शेख हसीना को प्रत्यर्पित करने का दबाव भारत की तुलना में बांग्लादेश के लिए कहीं ज्यादा कठिन और संतुलन वाला कूटनीतिक मामला है. भारत ने प्रत्यर्पण के अनुरोध को स्वीकार किया है, लेकिन आगे के कदम इस बात पर निर्भर करेंगे कि वह फैसले की कानूनी मजबूती और पूर्व प्रधानमंत्री को वापसी पर होने वाले संभावित खतरों का कैसे मूल्यांकन करता है.

इसके अलावा, ढाका को अपने भौगोलिक स्थान और क्षेत्रीय शांति में अपनी भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए. चाहे नए हितधारक भारत से जुड़ने में कम इच्छुक हों, फिर भी उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि बांग्लादेश की धरती का इस्तेमाल किसी पड़ोसी देश के खिलाफ न हो—यह एक पड़ोसी की दूसरे पड़ोसी से सबसे बुनियादी उम्मीद है.

अंत में, मुकदमे, फैसले और न्याय की वैधता ऐसे सवाल हैं जिन्हें इतिहास हमेशा व्याख्या के लिए खुला रखेगा, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि शेख हसीना की सड़क पर पकड़ (स्ट्रीट पावर) उस वफादारी का नतीजा थी, जो उन्होंने समय के साथ सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करके हासिल की थी.

हालांकि, यह सब फैसले के साथ खत्म हो गया है और आवामी लीग को फिर से ज़िंदा करने या हसीना को वापस लाने की कोई भी कोशिश देश को अस्थिरता और ज्यादा हिंसा और अराजकता के दौर में धकेल देगी.

ऋषि गुप्ता ग्लोबल अफेयर्स पर कॉमेंटेटर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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