(आसिम कमाल)
नयी दिल्ली, 16 नवंबर (भाषा) बिहार विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की हार ने इस बात को रेखांकित किया है कि अक्सर कई नये राजनीतिक दल अपनी किस्मत आजमाने के लिए सियासी अखाड़े में उतरते हैं लेकिन उनमें से कुछ ही सफल हो पाते हैं।
हालांकि, जन सुराज पार्टी शिकस्त का सामना करने वाले दलों की इस फेहरिस्त में नया नाम है लेकिन अन्य पार्टियां भी हैं जो चर्चा के केंद्र में रही थीं लेकिन सफल नहीं हो पाईं।
अभिनेता से राजनेता बने कमल हासन की मक्कल नीधि मैयम ऐसा ही एक उदाहरण है। 2021 के तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में उसका खाता तक नहीं खुला था।
वहीं, अब सबकी निगाहें तमिलगा वेत्री कझगम (टीवीके) पर टिकी हैं, जिसकी स्थापना अभिनेता से नेता बने विजय ने पिछले साल की थी। हालांकि, फिल्म कलाकारों द्वारा गठित कई राजनीतिक दल दक्षिण भारत में पहले भी अच्छा प्रदर्शन कर चुके हैं। ऐसे में अगले साल होने वाले तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में इस पर सभी की नजर रहेगी।
पूर्व कांग्रेस नेता और राजनीतिक विश्लेषक संजय झा ने कहा कि नये राजनीतिक दल को आगे बढ़ने में कठिनाई होती है, क्योंकि वैचारिक स्पष्टता हासिल करने में समय लगता है।
बिहार में पुष्पम प्रिया चौधरी की ‘प्लुरल्स’ पार्टी जैसे बहुत छोटे राजनीतिक दल भी हैं। उनकी पार्टी ने बिहार में लगातार दो विधानसभा चुनाव लड़े हैं, लेकिन दोनों में उसे कोई सफलता नहीं मिली।
इसके अलावा, कुछ छोटी पार्टियां हैं जिनकी सीमित महत्वाकांक्षाएं हैं। वे जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) और उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा हैं।
उत्तर प्रदेश में निषाद पार्टी, पीस पार्टी, अपना दल (सोनेलाल) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) जैसी पार्टियां हैं।
भारत में नये-नये राजनीतिक दलों का गठन होता रहता है और चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद अक्सर वे गायब हो जाते हैं। लेकिन किशोर के जन सुराज के बारे में फिलहाल ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसने विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की राजनीति में हलचल मचा दी थी और कई लोगों ने भविष्यवाणी की थी कि यह आम आदमी पार्टी (आप) की तरह ही (बिहार) उभर सकती है।
हालांकि, मीडिया में इसे लेकर जो उत्साह था वह मृगतृष्णा साबित हुआ क्योंकि पार्टी (जन सुराज) चुनाव में बुरी तरह हार गई और खाता तक नहीं खोल सकी।
निर्वाचन आयोग के अनुसार, जन सुराज के ज़्यादातर उम्मीदवारों को कुल डाले गए वोटों के 10 प्रतिशत से भी कम वोट मिले और उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई।
अपवादों को छोड़कर, भारत में जिन पार्टियों ने पैर जमाए हैं, उन्हें मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में बांटा गया है — किसी आंदोलन से उपजी और किसी नाम, व्यक्तित्व या वंश के इर्द-गिर्द केंद्रित तथा किसी सामाजिक या धार्मिक समूह या किसी विशिष्ट विचारधारा के इर्द-गिर्द विकसित।
किशोर एक जानी-मानी हस्ती हैं, लेकिन वे उन लोगों से अलग हैं जिन्होंने चुनावी राजनीति में अतीत में सफलता पाई। उनमें से ज़्यादातर फ़िल्म कलाकार या स्थापित राजनेता थे जो अपनी मूल पार्टियों से अलग हो गए थे।
देश के राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र डालें तो छह राष्ट्रीय दल हैं- भाजपा, कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और आम आदमी पार्टी (आप)।
माकपा का गठन एक विशेष विचारधारा को केंद्र में रखकर किया गया था। एनपीपी का गठन एक जाने-माने राजनेता (पी ए संगमा) ने किया था जो अपनी मूल पार्टी से अलग हो गए थे। बसपा का गठन दलितों की पैरोकारी के लिए किया गया था और आम आदमी पार्टी ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आंदोलन से उभरी थी।
वर्ष 1982 में क्षेत्रीय तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) के उदय के बाद से कुछ ही नये राजनीतिक दलों ने अच्छा प्रदर्शन किया है और वह भी फिल्म अभिनेता एन टी रामाराव की लोकप्रियता पर आधारित थी।
बाद में कुछ पार्टियां अपनी मूल पार्टी से अलग हुई किसी राजनीतिक हस्ती के कारण जैसे कि ममता बनर्जी, या वंशवादी पृष्ठभूमि (नवीन पटनायक और असदुद्दीन ओवैसी) को लेकर क्षेत्रीय ताकत बनकर उभरी हैं। हालांकि, एआईएमआईएम का गठन बहुत पहले हुआ था, लेकिन इसे ओवैसी के नेतृत्व में लोकप्रियता मिली।
लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राकांपा (एसपी) और शिवसेना (उबाठा) जैसी अन्य पार्टियां भी ऐसे उदाहरण हैं जो इन दो श्रेणियों में से किसी एक में आती हैं – अलग हुए गुट या वंशवादी।
विदुथलाई चिरुथैगल काची (वीसीके) दलितों की सुरक्षा के लिए एक आंदोलन के इर्द-गिर्द गठित हुई थी और तमिलनाडु में इसे सीमित सफलता मिली है।
चुनाव विश्लेषक और सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के पूर्व निदेशक संजय कुमार इस धारणा पर विश्वास नहीं करते कि राजनीतिक ‘स्टार्टअप’ उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में अधिक सफल होते हैं, लेकिन उन्होंने कहा कि यह विशिष्ट कारकों पर निर्भर करता है।
उन्होंने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि आपको एक ऐसी पृष्ठभूमि की जरूरत होती है जिसके आधार पर एक नयी पार्टी बनाई जा सके। पहला, आपको लोग जानते हों और आपका व्यक्तित्व बड़ा हो। दक्षिण में, ज़्यादातर उदाहरण फ़िल्म कलाकारों के हैं। आम लोग आपको जानते हों, आपके काम से नहीं आपके चेहरे से। दूसरा, पार्टी का गठन कुछ आंदोलनों की पृष्ठभूमि में हुआ हो, उदाहरण के लिए आम आदमी पार्टी और असम गण परिषद।’’
उन्होंने कहा, ‘‘प्रशांत किशोर की पार्टी समेत जो पार्टियां असफल रही हैं, वे इन दोनों में से किसी भी मानदंड पर खरी नहीं उतरतीं। दक्षिण भारत में, ज्यादातर पार्टियां फिल्म कलाकारों द्वारा स्थापित की गई हैं, लोग उन्हें बखूबी जानते हैं और यही कारण है कि वे उत्तर भारत की कुछ पार्टियों की तुलना में अधिक सफल रही हैं।’’
झा ने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि प्रशांत किशोर ने अच्छी रणनीति पर काम किया था। लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि (प्रधानमंत्री नरेन्द्र) मोदी के नेतृत्व में भारत अधिक रूढ़िवादी, कम जोखिम लेने वाला और परंपरावाद पर चर्चा में उलझा हुआ हो गया है।’’
भाषा सुभाष नरेश
नरेश
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