अट्ठारह महीने पहले लोकसभा चुनाव में लड़खड़ाने के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में शानदार जीत और अब बिहार! नरेंद्र मोदी के अनुयायी अब फिर से उनकी अजेयता पर यकीन कर सकते हैं और भारत की राजनीति फिर से एक घोड़े वाली घुड़दौड़ बन गई है.
इसी के साथ, मोदी के विरोधी अब यह सोचेंगे कि आखिर वे कहां गलती कर रहे हैं. सरकार विरोधी भावना का उन्हें या उनके सहयोगियों को नुकसान क्यों नहीं हो रहा है, और ‘इंडिया’ गठबंधन ने 2024 की गर्मियों में जो गति पकड़ी थी वह कैसे खो गई. वे अपने चिंतन-मनन की शुरुआत खुद से कुछ कड़े सवाल पूछकर कर सकते हैं. खासकर वे कांग्रेस पार्टी से सवाल पूछ सकते हैं. लोकसभा चुनाव में विपक्ष का जो भारी पतन हुआ वह कांग्रेस की वजह से हुआ था.
कांग्रेस की वापसी के बिना भाजपा के खिलाफ कोई चुनौती नहीं खड़ी की जा सकती. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन मोदी को परे रख सकते हैं. केरल की राजनीति अलग ही तरह की है, लेकिन भाजपा लगभग पूरी तरह कांग्रेस की कीमत पर ही फल-फूल रही है. जिन राज्यों में कांग्रेस समृद्ध वोट बैंक वाली क्षेत्रीय पार्टी के सहारे है वहां वह उस पार्टी के लिए एक बोझ है. 2017 के उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सपा का उदाहरण लीजिए और 2020 में तथा अब के बिहार में राजद का उदाहरण ले लीजिए.
2024 की उत्साहवर्द्धक अल्पकालिक चमक के बाद से जहां भी कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी टक्कर हुई वह कोई मुकाबला ही नहीं साबित हुई. फिर भी कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर 20 फीसदी वोट की मालिक तो है ही. 2014 में उसे 44 सीटें मिली हों या 2024 में गठबंधन करने के बाद उसे 99 सीटें मिली हों, यह वोट प्रतिशत उसके लिए सुरक्षित रहा. पांच में से एक भारतीय कांग्रेस के चुनाव चिह्न पर ही बटन दबाता रहा है. इसे इस तरह देखें: 2014 में कांग्रेस ने 21.4 प्रतिशत वोट हासिल किए. यह एनडीए और इंडिया गठबंधनों की बाकी आठ पार्टियों को मिले कुल वोटों से ज्यादा है.
देखा जाए तो इतने वोट काफी होते हैं, लेकिन सवाल यह है कि यह पार्टी इसे किस तरह देखती है? इसके दो निष्कर्ष हैं और एक निष्कर्ष दूसरे को जन्म देता है.
पहला निष्कर्ष यह है कि मोदी को हराने के लिए कांग्रेस को 37 फीसदी वोट (जितने वोट भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिले) नहीं चाहिए. 5 फीसदी वोट के इधर-उधर होने से ही भारतीय राजनीति का स्वरूप बदल जाएगा. भाजपा 31.2 फीसदी वोट के साथ भी सत्ता में बनी रह सकती है, लेकिन यह वह सही गठबंधन के बूते ही कर सकती है. इससे भाजपा के अंदर ही नेतृत्व को लेकर होड़ शुरू हो सकती है. क्या कांग्रेस के पास वह चतुराई, हिम्मत और सबसे अहम वह समझदारी है कि वह सोच सके कि ये 5 फीसदी वोट कैसे हासिल किए जा सकते हैं? उसके वोटों का प्रतिशत 22 से बढ़कर 27 कैसे हो सकता है?
समझदारी की बात करें तो अगला सवाल यह खड़ा होता है कि कांग्रेस को पांच में से एक मतदाता का जो वोट मिलता है उसे वह किस तरह देखती है? क्या वह इसे अपनी स्थायी विरासत मानती है और इसलिए वह खुद को भारत की ‘ग्रांड ओल्ड पार्टी’ के रूप में ही या ज्यादा करके इस रूप में देखती रहती है कि वह तो सत्ता में ही रहने के लिए बनी पार्टी है?
इसका अर्थ यह हुआ कि वह यह माने बैठी है कि आखिरकार जल्दी ही मतदाताओं को यह एहसास होगा कि वे मोदी को वोट देकर कितनी बेवकूफी कर रहे थे? और तब वे कहां जाएंगे, सिवाय अपने ‘घर’ लौटने के? यह प्रतिस्पर्द्धी राजनीति का अपमान है. अगर मोदी के 11 साल के शासन के बावजूद लोग इस ‘दुस्वप्न’ को लेकर जागरूक नहीं हुए तो यह घड़ी अब ‘कितनी जल्द’ आएगी?
खुद को ‘ग्रांड ओल्ड पार्टी’ के रूप में देखने की जगह कांग्रेस क्या अपने को मोदी युग की एक ‘स्टार्ट-अप’ कंपनी के रूप में बदल सकती है, जिसकी शुरुआती पूंजी 20 प्रतिशत वोट है? चूंकि किसी भी ‘स्टार्ट-अप’ कंपनी के लिए अपनी एक ‘यूएसपी’ होनी चाहिए, यह पूंजी ही उसकी ‘यूएसपी’ मानी जा सकती है, लेकिन पीढ़ियों से संयोग से सत्ताधारी रही पार्टी को एक ‘स्टार्ट-अप’ के रूप में नई शुरुआत करने के लिए समझदारी की ज़रूरत होगी. राहुल गांधी और उनके बढ़ते अ-राजनीतिक तेवर का इधर प्रदर्शन नहीं हुआ है. थोड़ी-सी भी आलोचना के जवाब में सोशल मीडिया पर तीखी गाली-गलौज शुरू हो जाती है. इस मामले में कांग्रेस आज भाजपा को मात दे रही है.
विरासत में मिली अपनी पूंजी को और मजबूत करने में कांग्रेस की बार-बार विफलता के कारण इसके निर्विवाद नेता राहुल गांधी की ओर नज़र घूमती है.
2013 के बाद से राहुल मोदी, आरएसएस और भाजपा की कमज़ोरियों को ही निशाना बनाते रहे हैं. पहले उनका मुद्दा था सांप्रदायिकता, उसके बाद जज बृजगोपाल हरकिशन लोया की मौत मुद्दा बनी, फिर राफेल विमानों की खरीद, अडाणी और हिंडनबर्ग, अंबानी-अडाणी और ‘मोदी जी के मित्र’, चुनाव आयोग के जरिए वोट की चोरी, सामाजिक असमानता, जिसे दूर करने के लिए वे जातीय जनगणना करवाना चाहते हैं. ये सार मुद्दे अगर इतनी बुरी तरह नाकाम हो गए, तो इससे ज़रूर कोई संदेश उभरता है.
अगर कांग्रेस में समझदारी होती तो उसने अपना इतिहास पढ़ा होता. 1971 में इंदिरा गांधी ने भारत को एक बेहतर भविष्य देने का वादा किया था और विपक्षी दलों ने उन्हें गद्दी से उतारने का आह्वान किया था.
कांग्रेस ने इस जवाब के साथ वह चुनाव भारी बहुमत से जीत लिया था कि ‘वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, और इंदिरा जी कहती हैं गरीबी हटाओ. अब फैसला आप करें’. भारत में आबादी का जो स्वरूप है उसके कारण मतदाताओं में युवाओं की हमेशा अधिकता रहेगी, जो अतीत की ओर देखने की बजाय भविष्य पर नज़र रखते हैं.
उनके मामले में सत्ताधारी के प्रति कड़वापन, नफरत या उससे डर यानी ‘मौजूदा नेता के बदले कोई भी मंजूर होगा’ जैसे आक्रोश की जगह सकारात्मक एजेंडा ही ज्यादा कारगर हो सकता है. निराशा भी हो तो वह ज्यादा गहरी होनी चाहिए. यह सब हम 1977 में (इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी) और 1989 में राजीव गांधी के मामले में कारगर होता देख चुके हैं. 2014 में यूपीए का खात्मा नकारात्मकता के कारण ही थोड़े अंतर से हुआ. तब मोदी ने ‘अच्छे दिन’ लाने का जो सकारात्मक वादा किया था वह कारगर रहा था.
राहुल गांधी ‘अच्छे दिन’ जैसा क्या वादा कर रहे हैं? 2014 में पराजय के बाद से वे क्या वादा कर रहे हैं? ‘न्याय’, मुफ्त बस यात्रा और मुफ्त बिजली, नकदी सहायता, जैसे कुछ वादे उन्होंने किए, लेकिन हर एक के जवाब में मोदी ने ऊंची पेशकश कर डाली. खजाना उनके कब्ज़े में है.
राहुल का हमेशा ‘एंग्री यंगमैन’ वाली मुद्रा में रहना कारगर नहीं हो रहा है. अमिताभ बच्चन के लिए यह सत्तर वाले दशक में कारगर साबित हुआ था जब भारत मुद्रास्फीति की 30 फीसदी की दर, घोर गरीबी और निराशा से जूझ रहा था. वैसे भी, ज़मीनी राजनीति मनमोहन देसाई की कोई फिल्म नहीं है. मोदी विकसित भारत का वादा कर रहे हैं, लेकिन राहुल वोट चोरी, जातीय जनगणना से आगे नहीं बढ़ रहे. बिहार के चुनाव नतीजे ने दिखा दिया है कि लोगों ने वोट चोरी वाले मुद्दे को खारिज कर दिया है. और जातीय जनगणना के मुद्दे को मोदी ने हड़प लिया.
जीवन के किसी पहलू को लेकर गुस्से को तभी मुद्दा बनाया जा सकता है जब उसका समझदारी से, सोच-समझकर और पूरी सावधानी से इस्तेमाल किया जाए. आपको पता होना चाहिए कि रुकना कहां है और सकारात्मकता के डिब्बे पर कब सवार होना है. राहुल के पिता जी से उधार लेते हुआ हम इसे ‘मेरा भारत महान’ वाली ट्रेन कह सकते हैं.
मोदी आपके साथ खेल करेंगे और राजनीति में यह तो जायज़ ही है. गहरा, स्थायी आक्रोश आपसे गैर-ज़रूरी गलतियां करवा सकता है. बिहार में पहले चरण के मतदान से ठीक एक हफ्ते पहले राहुल ने दो बातें कही, जिन पर उन्होंने पहले विचार किया होता तो अच्छा होता. एक तो उन्होंने कह दिया कि वही 10 फीसदी अगड़ी जातियां दूसरी तमाम संस्थाओं से लेकर सत्ता केंद्रों और सेना को भी ‘कंट्रोल’ कर रही हैं. दूसरे उन्होंने कहा कि पूरे भारतीय क्रिकेट पर जय शाह ने कब्ज़ा कर रखा है, लेकिन हकीकत यह है कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद सेना के प्रति श्रद्धा भाव अपने चरम पर है और भारत की पुरुष और महिला टीमों ने आईसीसी की तीन ट्रॉफी जीती है और पाकिस्तानी टीम को लगातार तीन बार हराकर एशिया कप जीता है. वैसे भी, भारतीय सेना और क्रिकेट को भारत में पवित्र से भी पवित्र गाय के रूप में पूजा जाता है. कोई नासमझ या बेहद क्रुद्ध शख्स ही उनकी आलोचना करने की हिम्मत कर सकता है, लेकिन इससे आपको वोट नहीं मिलने वाले.
ज़ाहिर है, कांग्रेस का जब तक कायाकल्प नहीं होता, वह मोदी के लिए चुनौती नहीं बन सकती. इस चुनौती का नेतृत्व करने लायक बनने के लिए कांग्रेस को गुस्सा, तिरस्कार भाव, मोदी के प्रति विद्वेष को भी छोड़ना होगा और थोड़ी समझदारी बरतनी होगी. शुरू में खुद से यह सवाल पूछने बेहतर होगा कि मोदी जीतते ही क्यों रहते हैं और हम हारते ही क्यों रहते हैं. सर्व-विजेता प्रतिद्वंद्वी से संघर्ष की सबसे अच्छी शुरुआत उसके प्रति तल्खी नहीं बल्कि कुछ सम्मान दिखाकर की जा सकती है. इस तरह का बदलाव किए बिना उनकी पार्टी ऐसी स्टार्ट-अप कंपनी की तरह लुप्त हो जा सकती है, जो इस अकड़ में होती है कि ‘मैन भी जल्दी ही यूनिकॉर्न’ बनने वाली हूं. यह जिस तरह आगे बढ़ रही है उसके कारण इसके क्षेत्रीय सहयोगी भी इसे नाकाबिले बर्दाश्त बोझ मानने लगेंगे और इससे दूर होते जाएंगे और मोदी से लड़ने की जगह उनसे कामचलाऊ समझौते के रास्ते तलाशने लगेंगे, जैसे चंद्रबाबू नायडु ने तलाश लिया है.
और क्या पता किसी कंपनी के शेयरधारकों की बगावत तथा मैनेजमेंट में बदलाव की तरह का कोई राजनीतिक परिवर्तन करने का समय बिलकुल आ ही चुका हो!
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