ये रहे इस बिहार चुनाव परिणाम से हमारे 10 झटपट निष्कर्ष
● पहला यह कि चाहे यह जीत कितनी भी बड़ी क्यों न लग रही हो, पर पुराने जमे हुए वोट बैंक वहीं हैं. जैसे-जैसे मुकाबले सीधे होने लगते हैं—या तो दो पार्टियों के बीच या दो गठबंधनों के बीच—हार और लैंडस्लाइड जीत का फासला बस कुछ प्रतिशत वोटों का ही होता है. जेडीयू को 2020 में 15.39% वोट मिले थे और इस बार यह बढ़कर करीब 4 प्रतिशत बढ़कर 19.26% (लिखते वक्त अस्थायी आंकड़े) हो गया है. बीजेपी को भी बढ़त मिली है, लेकिन सिर्फ 1 प्रतिशत के साथ यह 20.11% (अस्थायी आंकड़े) हुई है. दोनों ने इस बार कम सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन इसे मामूली बदलाव मान सकते हैं क्योंकि बाकी सीटें उनके सहयोगियों को दी गईं. सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी, पासवान परिवार की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी), ने इस बार सिर्फ 29 सीटों पर चुनाव लड़ा, जबकि 2020 में उसने 135 सीटों पर चुनाव लड़ा था. उसका वोट प्रतिशत लगभग 5% के आसपास जमे हुए जैसा ही है. यह साफ है कि जिन सीटों पर एलजेपी ने उम्मीदवार नहीं उतारे, वहां उसका छोटा वोट बीजेपी या जेडीयू की तरफ गया होगा.
अब सिक्के का दूसरा पक्ष देखें. यादव परिवार की आरजेडी का वोट शेयर लगभग 23% पर स्थिर है और कांग्रेस का करीब 9% पर. साफ है कि इन दोनों गठबंधन पार्टियों का वोट शेयर कम नहीं हुआ. फर्क यह पड़ा कि एनडीए ने पासवान की एलजेपी और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (एचएएम) के साथ एक मजबूत गठबंधन बनाया, जिससे बीजेपी/जेडीयू के स्थिर वोट के ऊपर अतिरिक्त 5-8 प्रतिशत का बढ़त मिली. यही 5-8% का बढ़त यह तय करता है कि परिणाम हार होगा या लैंडस्लाइड जीत. यही इस चुनाव का मुख्य संदेश है—विपक्ष आपका पक्का वोट बैंक नहीं छीन सकता. “दूसरों” को जोड़ने के लिए आपको गठबंधन बनाना होगा.
● दूसरा, लेन-देन वाले वादे तब काम करते हैं जब काफी संख्या में मतदाता उन्हें सच मानते हैं. चुनाव से ठीक पहले और दौरान 1.4 करोड़ महिलाओं को दिए गए 10,000 रुपये और आगे 2 लाख रुपये देने का वादा—यह सब एक ऐसे राज्य में बहुत मायने रखता है जहां प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय सिर्फ 69,000 रुपये है. ऊपर से, मतदाताओं को सबूत मिला कि यह सच में दिया भी गया है. लेन-देन वाले चुनाव में, जिसके पास सत्ता और चेकबुक हो, उसी के पास बढ़त होती है.
● तीसरा, इसके बाद आता है मार्केटिंग का सबसे पुराना सच—सबसे बुरी तरह वही चीज़ फेल होती है जो साफ झूठ या असंभव हो. यही था तेजस्वी यादव का वादा कि राज्य के 2.76 करोड़ परिवारों में से हर एक को सरकार की नौकरी दी जाएगी. यह एक ऐसे राज्य में, जहां मुश्किल से 20 लाख सरकारी कर्मचारी हैं, लोगों को हंसी और तिरस्कार दोनों का कारण लगा: “क्या यह आदमी सच में गंभीर है? या समझता है कि हम बेवकूफ हैं?”
● चौथा, मुस्लिम वोट का बाहर हो जाना चौंकाने वाली बात है. असदुद्दीन ओवैसी की थोड़ी सफलता यह दिखाती है कि मुसलमान भी अपने लंबे समय से चले आ रहे ‘सेक्युलर’ पार्टियों के समर्थन पर पछता रहे हैं. अगर सेक्युलर पार्टियां हमारे बीच से नेता नहीं खड़ी करेंगी, न हमें जिताएंगी—तो हम अपनी पार्टी को क्यों न वोट दें? सेक्युलर पार्टियों, खासकर कांग्रेस, की दुविधा हमेशा यही रही: “हम चाहते हैं कि मुसलमान हमें वोट दें क्योंकि वो बीजेपी से डरते हैं. पर क्या हम खुले तौर पर मुसलमान नेताओं को आगे ला सकते हैं? ओवैसी या बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से गठबंधन कर सकते हैं? क्या इससे हिंदू नाराज़ नहीं होंगे?” अब इस कपट का समय खत्म हो चुका है. मुस्लिम बहुल सीमांचल के नतीजे बताते हैं कि मुसलमान अब थक चुके हैं.
● पांचवां और यह कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण है—लोगों की याददाश्त लंबी होती है, जो पीढ़ियों तक चलती है. मध्य प्रदेश में लोग आज भी दिग्विजय सिंह के ‘गैर-विकास’ के खिलाफ वोट कर रहे हैं; ओडिशा में जे.बी. पटनायक के भ्रष्टाचार और अहंकार के खिलाफ और बिहार में लालू के ‘जंगल राज’ के खिलाफ. यह भी गहरा विश्वास दिखाता है कि यादव और मुस्लिम मिलकर बाकी सभी—ऊंची जाति और दलित—को दबाते थे. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चोट दलित वोट का खोना है.
● छठे नंबर पर, है नीतीश कुमार—उनकी बिगड़ती सेहत के बावजूद उनका दौर जारी है. लोग उनके आभारी भी हैं, क्योंकि वे आज की बढ़ती अपराध की घटनाओं को भी “जंगल राज” नहीं मानते. साथ ही, 2011 से राज्य को 13% CAGR (औसत सालाना वृद्धि दर) देना कम उपलब्धि नहीं. बिहार आज भी बहुत गरीब है, लेकिन नीतीश से पहले के दौर से कहीं बेहतर है. लालू के दौर में लोगों को स्थानीय सशक्तिकरण मिला था, जिसका असर है कि उनका गठबंधन अब भी करीब 40% वोट रखता है. पर कोई भी यह नहीं मानता था कि लालू के बेटे के नेतृत्व में विकास हो सकता है. नीतीश + मोदी का संयोजन एक शक्तिशाली ‘विकास + भरोसे’ वाला पैकेज बन गया. तेजस्वी और राहुल इसकी बराबरी नहीं कर पाए. इसी ने उन 3-5% अनिर्णय वाले वोटर्स को एनडीए की तरफ खींच लिया.
● सातवां, एक और दिलचस्प निष्कर्ष—‘घुसपैठियों’ जैसी शुरुआती बातों को छोड़ दें, तो यह अभियान काफी हद तक गैर-सांप्रदायिक रहा. आप चाहें तो इसका श्रेय नीतीश की नैतिक छवि और उनकी ‘ज़रूरत’ को दे सकते हैं. अच्छी बात यह है कि यह दिखाता है—बिना हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के भी एक बड़ा हिंदी राज्य जीता जा सकता है. यह 2014 और 2015 के चुनावों से अलग रहा.
● आठवां, अब अंडरडॉग (कमज़ोर पक्ष) के लिए नई चुनौती है—बिना नई कल्पना के कुछ नहीं होगा. वही पुराने मुद्दे—जाति न्याय, अल्पसंख्यक कल्याण, वोट चोरी के आरोप, अंबानी-अडाणी—अब असरदार नहीं. पीछे लौटकर देखें तो तेजस्वी, विपक्ष के नेता, इन अभियानों से खुद दूर रहे. आरजेडी और कांग्रेस के बीच यही असली दूरी थी.
● नौवां, प्रशांत किशोर की नाकामी को कैसे समझें? उनके पास तो नए विचार भी थे. इसलिए हमारा नौवां बिंदु यह है कि—यहां तक कि नई तरकीबें होने के बावजूद वक्त लगता है, खासकर जब आप पीढ़ियों से जमे वोट बैंक से लड़ रहे हों. दिल्ली में AAP के पास भी ढेरों नए आईडिया थे और एक बेहद अप्रिय कांग्रेस सरकार—फिर भी पहली बार (2013) बहुमत नहीं आया, न पंजाब में (2017). पीके खुद भी यह समझ रहे थे, इसलिए उन्होंने कहा था: “अर्श पर या फर्श पर.” राजनीति धैर्य और कठिन सबक का खेल है.
● दसवां और अंतिम बिंदु, बिहार का भविष्य. यह चुनाव लालू के राजनीतिक प्रभाव का अंत तय करता है. नीतीश भी कुछ ही वक्त के मेहमान हैं—शायद एक या दो साल. बिहार में नेतृत्व की सीटें अब खाली हो रही हैं. इस पर सबसे ज्यादा नज़र बीजेपी की होगी. अब वे पोस्ट-नीतीश बिहार की तैयारी कर सकते हैं, जहां वे सबसे प्रमुख शक्ति बन सकते हैं—बस अगर उन्हें कोई मजबूत स्थानीय नेता मिल जाए.
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