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Friday, 22 November, 2024
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राजकोषीय घाटे से जुड़े 3 प्रतिशत के लक्ष्य को भूल जाना चाहिए

आखिर हमारे वित्त मंत्रियों को करीब 6 प्रतिशत को 3.5 प्रतिशत बताने की बाजीगरी क्यों करनी पड़ती है? खुले और पूर्ण एकाउंटिंग को बढ़ावा क्यों न दिया जाए ताकि देश को वित्तीय घाटे की वास्तविक तस्वीर मिले?

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वित्तीय ज़िम्मेदारी से संबंधित कानून को अलविदा कह देने का समय आ गया है, क्योंकि यह फायदा से ज़्यादा नुकसान दे रहा है. कानूनन वित्तीय घाटे का जो लक्ष्य तय किया जाता है वह किसी भी साल हासिल नहीं होता. इस सिलसिले में केवल 2007-08 का साल अपवाद था. अपेक्षित वित्तीय घाटे (सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत) को हासिल करने का साल हमेशा आगे बढ़ाया जाता रहा है या ‘स्थगित’ किया जाता रहा है.

दरअसल समस्या यह है कि जब हमारे वित्तमंत्री लक्ष्य के करीब तक पहुंचने में विफल रहते हैं तो वे हिसाब-किताब में गोलमाल करते रहे हैं और वित्तीय बोझ से परेशान सार्वजनिक उपक्रमों पर डाल देते रहे हैं और सरकार के आंकड़ों को पूरा करने के लिए उनके खजाने में हाथ डाला जाता है. इसका एक नतीजा यह हुआ है कि एक समय नकदी के मामले में समृद्ध रहीं तेल कंपनियों के पास आज निवेश करने के लिए नकदी का अकाल है.

वित्तीय ज़िम्मेदारी कानून के तहत तय लक्ष्यों को पूरा करने की दूसरी चाल यह है कि बिलों का भुगतान न किया जाए (मंत्री जी के इस ताजा निर्देश पर गौर कीजिए कि छोटे और मझोले उपक्रमों की बकाया देनदारियों का जल्द भुगतान किया जाए, इसका अर्थ यह हुआ कि बाकी को छोड़ दिया जाए हालांकि उनके भुगतान भी लटके हुए हैं).

इसके अलावा, राजस्व के आंकड़ों को दुरुस्त करने के दबाव में टैक्स अधिकारी कंपनियों पर ज़ोर डालते हैं कि वे साल के आखिरी महीने में ज्यादा टैक्स भर दें, अगले साल जल्दी रिफ़ंड कर दिया जाएगा. फिर भी, इन चालों के बावजूद घाटे के आंकड़े रास्ते पर न आने की ज़िद पकड़े रहते हैं.

किसी को वास्तविक स्थिति को लेकर संदेह हो तो जरा वह पढ़ लीजिए, जो सीएजी ने वित्त आयोग से कहा कि जैसा कि संसद को बताया गया, 2017-18 में वित्तीय घाटा 3.46 प्रतिशत नहीं बल्कि इससे कहीं ज्यादा 5.85 प्रतिशत था.


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आखिर हमारे वित्त मंत्रियों को यह तोड़मरोड़ क्यों करनी पड़ती है कि वे करीब 6 प्रतिशत को 3.5 प्रतिशत बताएं? खुले और पूर्ण एकाउंटिंग को बढ़ावा क्यों न दिया जाए ताकि देश को वास्तविक तस्वीर मिले? असली घाटे को कम करके बताने से सरकार के अहम लोगों को यह मान बैठने की प्रेरणा मिलती है कि वे ज्यादा खर्च कर सकते हैं जबकि उनके पास इसकी गुंजाइश नहीं होती.

चेतावनी की बत्ती चमकाते सही आंकड़े शायद ज्यादा वित्तीय ज़िम्मेदारी बरतने का प्रोत्साहन दे सकते हैं और कुछ नहीं तो निजी क्षेत्र के अर्थशास्त्री, रेटिंग एजेंसियां और तमाम वे लोग, जो आज घाटे के सरकारी आंकड़े रटते रहते हैं वे अलग असलियत से वाकिफ होंगे और वित्तीय सुधार के लिए बाज़ार का दबाव बढ़ाएंगे.

वैसे, वित्तीय ज़िम्मेदारी कानून को खत्म करना ही काफी नहीं होगा, क्योंकि हेर-फेर तो यह कानून बनने से पहले से जारी है. कानून को रद्द करने के साथ ही दूसरे ऐसे बदलाव भी करने होंगे. ताकि हेरफेर करना मुश्किल हो जाए. एक उपाय तो यह है कि नकदी एकाउंटिंग की मौजूदा पुरानी व्यवस्था को हटाया जाए, जिसे दूसरे देश भी हटा चुके हैं.

नकदी एकाउंटिंग में सरकार द्वारा किए जाने वाले उन खर्चों को खाते में दर्ज नहीं किया जाता, जिनका अभी भुगतान नहीं किया गया है (मसलन सड़कों, पुलों आदि पर किए जाने वाले कामों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनियों को भुगतान). ज़्यादातर कंपनियां कर्ज़ देने वालों के देय पैसे को अपने खाते में दर्ज़ करती हैं. मगर सरकार ऐसा नहीं करती और नकदी एकाउंटिंग तरीके का इस्तेमाल करके बच निकलती हैं.

दूसरा पूरक कदम यह हो सकता है कि पब्लिक सेक्टर के उधारों का पूरा हिसाब दिया जाए. इससे यह पता चल जाएगा कि सरकार का जिन पर नियंत्रण है उन पर वह आज दबाव डाल कर कैसे खर्चे करवा रही है- मसलन खाद्य निगम पर, जिसने खाद्य सब्सिडी पर खर्च करने के लिए लघु बचत कोश से उधार लिया जबकि इसके लिए बजट में प्रावधान होना चाहिए था.


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अगर इन बदलावों से भी विश्वसनीय बजटिंग नहीं होती, तो केंद्र के वित्तीय घाटे के अपेक्षित स्तर को 3 प्रतिशत पर निर्धारित करना कोई बड़ी बात नहीं है. जैसा कि टीसीए श्रीनिवास-राघवन कई बार लिख चुके हैं कि आंकड़े को सीधे यूरोपीय आंकड़े से नकल कर लिया जाता है. हालांकि, भारत का आर्थिक संदर्भ यूरोप से एकदम अलग है.

उदाहरण के लिए, बहुत संभव है कि तेज आर्थिक वृद्धि दर वाली भारतीय व्यवस्था ऊंचे घाटे- भले ही आज जितने ऊंचे स्तर पर न हो– के बावजूद सभी आम मैक्रो-एकोनोमिक संकेतकों पर सही उतरे. इस तरह के सवालों का निपटारा वास्तविक आंकड़ों की दुनिया में तब तक नहीं हो पाएगा जब तक हर किसी को घाटे की हकीकत मालूम न हो.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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