बिहार की राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहां है? क्या वह सचमुच पर्दे के पीछे से रणनीति बुन रहा है? या इस बार बिहार विधानसभा चुनाव से खुद को जानबूझकर दूर रखे हुए है? मोहन भागवत की लगातार यात्राएं क्या केवल संगठनात्मक समीक्षा का ही हिस्सा हैं? या उनके पीछे बिहार की चुनावी ज़मीन को परखने की कोई गहरी राजनीतिक मंशा छिपी है? क्या बिहार की सामाजिक और राजनीतिक मिट्टी अब भी उस विचारधारा को स्वीकार नहीं कर पा रही, जिसे उत्तर भारत के अन्य राज्यों में हिंदुत्व के नाम पर उर्वरता मिली? और क्या संघ का ‘मिशन त्रिशूल’ जातिगत समीकरणों की उस भूलभुलैया में उलझ गया है, जहां हिंदू एकता का विचार अपने ही आधार खो देता है?
यही वे प्रश्न हैं जिनके इर्द-गिर्द बिहार की राजनीति का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस बार बिहार में अपनी भूमिका को और संगठित रूप देने के लिए ‘मिशन त्रिशूल’ नाम का एक खास प्लान तैयार किया है. इस योजना के तीन केंद्रीय उद्देश्य हैं:
- उन मतदाताओं को पार्टी के पक्ष में लामबंद कराना जो नाराज हैं.
- उन मुद्दों का आकलन करना जिसकी प्रभावशीलता ज़्यादा है.
- यह विश्लेषण करना कि कौन-से प्रश्न बीजेपी के लिए लाभकारी हैं और कौन-से उसकी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं.
संघ की रणनीति यह है कि वह इस जानकारी को बूथ स्तर तक पहुंचाए, ताकि चुनावी अभियान केवल नारों पर नहीं बल्कि ठोस सामाजिक-राजनीतिक फीडबैक पर आधारित हो. इसी रणनीति के केंद्र में संघ प्रमुख मोहन भागवत की सक्रियता को देखा जा रहा है. बीते कुछ महीनों में उनकी बिहार यात्राओं के सिलसिले ने यह संकेत दे दिया है कि संघ अब बिहार को केवल संगठनात्मक विस्तार का क्षेत्र नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रभाव के एक नए मैदान के रूप में देख रहा है.
आगामी चुनाव से ठीक पहले 10 जून 2025 को भागवत का दो दिवसीय पटना प्रवास इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण संकेत माना जा रहा है. वह केशव सरस्वती विद्या मंदिर में चल रहे कार्यकर्ता प्रशिक्षण वर्ग में शामिल हुए, जहां वे वर्ग का निरीक्षण करने के साथ कार्यकर्ताओं को संबोधित भी किया. यह प्रशिक्षण वर्ग 24 मई 2025 से चल रहा है और इसका समापन 13 जून 2025 को हुआ यानी भागवत की यात्रा इस वर्ग के निर्णायक चरण से ठीक पहले हो चुकी है, जो स्वाभाविक रूप से बिहार के चुनाव में राजनीतिक अर्थ ग्रहण कर लेती है.
बिहार की राजनीति से टकराता हिंदू समाज का विचार
यह महज़ संयोग नहीं है कि पिछले चार महीनों में यह उनकी दूसरी बिहार यात्रा थी. इससे पहले मार्च में वे पांच दिनों के लिए बिहार आए थे. जिनमें तीन दिन मुजफ्फरपुर और दो दिन अन्य क्षेत्रों में प्रवास किया था. यह लगातार उपस्थिति बताती है कि संघ इस बार बिहार को अपने “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” के नए प्रयोग स्थल के रूप में गंभीरता से देख रहा है. फिर भी, बिहार की ज़मीन पर हिंदुत्व की यह परियोजना सीधी नहीं है. यहां जातिगत समीकरण केवल सामाजिक वर्गीकरण नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्तित्व का आधार हैं.
मंडल की राजनीति ने पिछड़ों, दलितों और अति पिछड़ों की पहचान को राजनीतिक चेतना में बदल दिया है. ऐसे में, संघ का एकीकृत हिंदू समाज का विचार उस विविधता से टकराता है जो बिहार की राजनीति की आत्मा है. यही कारण है कि मिशन त्रिशूल के तीन बिंदु: नाराज वोटरों की पहचान, मुद्दों का आकलन और राजनीतिक समीकरणों का विश्लेषण जातीय वास्तविकताओं से टकरा कर सीमित असर पैदा करते दिख रहे हैं.
संघ की रणनीति का दूसरा हिस्सा यह है कि वह सीधे राजनीति में न उतरकर, परोक्ष रूप से भाजपा के पक्ष में वातावरण तैयार करता है. उसकी शाखाओं, बस्ती बैठकों और प्रशिक्षण वर्गों के माध्यम से एक वैचारिक ऊर्जा का संचार किया जाता है जो बाद में राजनीतिक समर्थन में बदल जाती है. इस दृष्टि से, मोहन भागवत की यात्राएं केवल संगठनात्मक निरीक्षण नहीं, बल्कि चुनाव-पूर्व ‘मनोवैज्ञानिक तैयारियों’ का हिस्सा भी कही जा सकती हैं.
फिर भी, सवाल वही है. क्या बिहार की राजनीतिक ज़मीन हिंदुत्व के लिए तैयार है? जहां उत्तर प्रदेश में मंदिर और राष्ट्रवाद का मिश्रण बीजेपी की रीढ़ बना, वहीं बिहार में सामाजिक न्याय और जातिगत प्रतिनिधित्व की राजनीति अब भी सबसे गहरी जड़ें रखती है. संघ की चुनौती यही है कि वह इन जातीय रेखाओं के पार एक सांस्कृतिक एकता गढ़ सके, पर यह कार्य न तो सरल है, न शीघ्र.
यूपी से मिले सबक के बाद संघ का नया फोकस: बिहार
हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में एक और परत जुड़ती है. पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा के अपेक्षाकृत कमजोर प्रदर्शन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सार्वजनिक रूप से यह स्पष्ट किया था कि वह भारतीय जनता पार्टी की “फ़ील्ड फ़ोर्स” नहीं है. संघ की पत्रिका ऑर्गनाइज़र में प्रकाशित एक लेख के माध्यम से यह संदेश दिया गया कि संघ एक “सांस्कृतिक संगठन” है, न कि भाजपा का चुनावी विस्तार. यह आत्मपरिभाषा केवल नाराज़गी का प्रतीक नहीं थी बल्कि उस वैचारिक और संगठनात्मक असंतुलन की प्रतिक्रिया थी जो दोनों संगठनों के बीच कुछ वर्षों से बढ़ता जा रहा था.
इस तनाव की शुरुआत तब और गहरी हुई जब तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने यह कह दिया कि अब बीजेपी को आरएसएस की आवश्यकता नहीं रही. यह कथन केवल एक राजनीतिक वक्तव्य नहीं था बल्कि उस ऐतिहासिक सहनिर्भरता को चुनौती थी जिसने दशकों तक बीजेपी और संघ को एक साझा वैचारिक मंच पर बांधे रखा था.
संघ के भीतर इसे “अहम” और “विचारधारा के अवमूल्यन” के रूप में देखा गया. नतीजातन, संघ ने अपने कार्यकर्ताओं को बीजेपी की प्रत्यक्ष चुनावी गतिविधियों से दूरी बनाए रखने का संकेत दिया और यह भी जताया कि बीजेपी की सत्ता-सफलता का आधार संघ की वैचारिक और सामाजिक जड़ें हैं. इस पृष्ठभूमि में संघ का बिहार में मौन सक्रियता या सतर्क दूरी दोनों ही प्रतीकात्मक बन जाते हैं.
एक ओर संघ अपने संगठनात्मक प्रशिक्षण और ‘मिशन त्रिशूल’ के ज़रिए अपने प्रभाव की पुनर्स्थापना की कोशिश कर रहा है, वहीं दूसरी ओर वह बीजेपी के चुनावी संघर्ष में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से बच रहा है. यह वही द्वंद्व है जो आज बीजेपी-संघ संबंधों को परिभाषित कर रहा है; सत्ता और विचारधारा के बीच एक मौन संघर्ष, जिसमें यह सवाल केंद्र में है कि हिंदुत्व की राजनीति का असली वैचारिक स्वामी कौन है?
BJP का कमजोर आधार, संघ की बढ़ती मुश्किलें
मोहन भागवत के शिविरों और बिहार प्रवास पर सक्रिय भूमिका निभाने वाले एक कार्यकर्ता से हुई मेरी बातचीत में यह बात स्पष्ट हुई कि बिहार में शाखाओं को एकीकृत कर उन्हें बीजेपी के पक्ष में लामबंद करना अत्यंत कठिन काम है.
इसके पीछे कई जटिल कारण हैं:
- बिहार की राजनीति परंपरागत रूप से जातिगत लामबंदी पर टिकी रही है, जहां हर जाति की अपनी अलग सामाजिक आकांक्षा और राजनीतिक महत्वाकांक्षा है, जो किसी साझा वैचारिक एकता को स्थायी नहीं बनने देती.
- राज्य में बीजेपी के पास ऐसा कोई करिश्माई चेहरा नहीं है जिसे जनता हिंदुत्व के प्रतिनिधि रूप में स्वीकार करे या जिसके चारों ओर एक वैचारिक ऊर्जा संगठित हो सके.
- बीजेपी यहां संगठनात्मक रूप से स्वतंत्र पहचान गढ़ने में अब तक सफल नहीं हो पाई है. उसकी राजनीतिक छवि ज़्यादातर नीतीश कुमार के साथ गठबंधन की वजह से दबकर देखी जाती है.
यही कारण है कि बिहार में हिंदुत्व की राजनीति न तो भावनात्मक ऊर्जा पैदा कर पा रही है और न ही सामाजिक स्तर पर कोई स्थायी एकजुटता बना पा रही है.
संघ की रणनीति में यह दुविधा साफ झलकती है. एक तरफ वह अपने अनुशासित कैडर और वैचारिक ढांचे के माध्यम से बीजेपी के लिए ज़मीन तैयार करना चाहता है, तो दूसरी ओर वह अपने “सांस्कृतिक संगठन” के दावे को भी बनाए रखना चाहता है. लेकिन बिहार की जाति-आधारित सामाजिक संरचना और बीजेपी की सीमित संगठनात्मक उपस्थिति इस योजना के लिए गंभीर चुनौती बनकर सामने आ रही है. इसलिए, सवाल अब यह नहीं है कि संघ चुनाव में सक्रिय है या नहीं, बल्कि यह कि क्या उसकी वैचारिक रणनीति बिहार की सामाजिक यथार्थ से मेल खा पाएगी या फिर ‘मिशन त्रिशूल’ जातिगत समीकरणों की जटिलता में कहीं उलझकर रह जाएगी.
इसलिए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बिहार में दृश्य से अनुपस्थित होकर भी उपस्थित है. उसके प्रयासों की प्रतिध्वनि चुनावी भाषणों में नहीं, बल्कि बस्तियों और शाखाओं के मौन संवादों में सुनाई देती है. मोहन भागवत की यात्राएं, मिशन त्रिशूल की रूपरेखा और संघ की बूथ-स्तरीय गतिविधियां, सब मिलकर यह संकेत देती हैं कि संघ बिहार को हिंदुत्व की उस नई प्रयोगशाला में बदलने की कोशिश कर रहा है, जहां जाति और धर्म की पुरानी सीमाएं फिर से परिभाषित की जा रही हैं.
लेकिन यह प्रयोग कितना सफल होगा, इसका जवाब अभी बिहार की जनता के मौन में छिपा है.
डॉ. प्रांजल सिंह, दिल्ली यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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