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Monday, 10 November, 2025
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बिहार में शिव-आंदोलन आकार ले रहा है—कैसे ‘शिव चर्चाएं’ वंचित समाज में जड़ें जमा रही हैं

पिछले एक दशक से 'शिव चर्चा' की घटना उत्तरी और मध्य बिहार में फैल गई है—जिससे यह क्षेत्र में निम्न वर्गीय धार्मिकता के सबसे प्रमुख रूपों में से एक बन गया है.

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पटना/दरभंगा: छठ पूजा के दौरान कमला नदी में स्नान करने के बाद से गीता देवी पासवान को बुखार है. पिछले कुछ दिनों से 45 साल की यह तीन बच्चों की मां घर पर आराम कर रही हैं. लेकिन अपने गांव में “शिव चर्चा” शुरू करने वाली गीता देवी इन कार्यक्रमों के बारे में बात करते ही उत्साहित हो उठती हैं, जिन्हें वह पिछले 15 साल से आयोजित कर रही हैं.

“2011 में स्वामी हरेंद्रानंद दरभंगा आए और कुछ लोगों से मिले,” वह मैथिली और हिंदी के बीच सहजता से बोलते हुए कहती हैं. “वह बड़े आदमी थे, बहुत तेजस्वी व्यक्तित्व. लेकिन उन्होंने हम सभी से बहुत सम्मान से मुलाकात की. उनका केवल यही संदेश था—‘शिव को अपना साहब बनाओ और उनके शिष्य बनो’.”

“उन्होंने यह भी कहा कि उनका संदेश घर-घर पहुंचाओ… तभी से मैं इस काम में लग गई हूं,” वह दिप्रिंट को बताती हैं. पिछले कुछ वर्षों से, हर हफ्ते गीता देवी अपने गांव की महिलाओं को इकट्ठा करती हैं. मंदिर या घरों में बैठकर वे ‘शिव चर्चा’ करती हैं. वे भजन गाती हैं, शिव पुराण पढ़ती हैं और नैतिकता, आस्था और संस्कृति पर चर्चा करती हैं. महिलाओं का एक समूह कहीं भी बैठकर सत्र कर सकता है.

गीता देवी की तरह ही, उनके गांव सोभन में ‘शिव चर्चा’ में शामिल होने वाली सभी महिलाएं दलित हैं. इन बैठकों में प्रतिभागियों की हाशिये पर खड़ी धार्मिक स्थिति का स्पष्ट अहसास है. अनुष्ठानों को कम-से-कम रखने का विशेष ध्यान रखा जाता है.

“हमें धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति मिलती है,” गीता देवी कहती हैं. “‘शिव चर्चा’ के लिए न तो पुजारी चाहिए, न बड़े अनुष्ठानों का कोई पूर्व ज्ञान. सब कुछ सरलता से और जल्दी सिखाया जाता है,” जैसे किसी स्थानीय भाषा में खुला छोटा-सा पाठ्यक्रम.

लेकिन ‘शिव चर्चा’ सिर्फ़ सोभन या दरभंगा तक ही सीमित नहीं है. पिछले एक दशक में, यह चलन उत्तरी और मध्य बिहार में तेज़ी से फैल रहा है—जिससे यह इस क्षेत्र में निम्नवर्गीय धार्मिकता के सबसे प्रभावशाली रूपों में से एक बन गया है.

शुरुआत में ‘शिव चर्चाएं’ ‘नीची’ और ‘पिछड़ी’ जातियों की महिलाओं के लिए आकर्षक थीं, लेकिन इन्हें करने की आसान प्रक्रिया और संदेश की सादगी ने पुरुषों और अन्य प्रभावशाली उप-जातियों को भी आकर्षित किया है.

कई युवा पुरुष और महिलाएं—इस नए जन-आध्यात्मिक आंदोलन के अनुयायी—रुद्राक्ष की कंगन पहनते हैं. पटना भर में गाड़ियों में शिव की तस्वीरें आम हैं. किताबों की दुकानों में शिव भक्ति पर अंग्रेजी और हिंदी की छोटी पुस्तकें मिलती हैं. यूट्यूब पर भोजपुरी, मैथिली और हिंदी में ‘शिव चर्चा’ के दर्जनों गीत मिल जाते हैं. और गांवों में शिव की छवि वाले भगवा झंडे हवा में लहराते दिखते हैं.

Geeta Devi, a ‘Shiv Charcha’ pioneer in her village, says it makes her ‘feel religiously and spiritually empowered’ | ThePrint/Praveen Jain
अपने गांव में ‘शिव चर्चा’ की अग्रणी गीता देवी कहती हैं कि इससे उन्हें ‘धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से सशक्त महसूस होता है’ | दिप्रिंट/प्रवीण जैन

गीता देवी, अपने गांव में ‘शिव चर्चा’ की अग्रणी, कहती हैं कि इससे उन्हें “धार्मिक और आध्यात्मिक शक्ति” मिलती है.

सामाजिक कार्यकर्ताओं का दावा है कि यह चलन आरएसएस की उस कोशिश का हिस्सा है, जिसमें वह बिहार में अपनी जड़ें मजबूत करना चाहता है—जहां संघ को ऐतिहासिक रूप से जमीन नहीं मिली. उनका कहना है कि “रणनीति” लोगों को शिव के इर्द-गिर्द जोड़ने की है, क्योंकि बिहार में राम की तुलना में शिव की अधिक स्वाभाविक लोकप्रियता है. शिवरात्रि और सावन लंबे समय से गांवों की धार्मिक संस्कृति का हिस्सा रहे हैं.

यह सही है कि ‘शिव चर्चाएं’ आरएसएस के उस ढांचे को आगे बढ़ाती हैं, जिसमें दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित समुदायों को हिंदुत्व की बड़ी कहानी में शामिल करने की कोशिश की जाती है.

हालांकि, बिहार में इस नए शिव-आंदोलन से जुड़े कई लोग आरएसएस के बारे में जानते तक नहीं.

उनके लिए ‘शिव चर्चाएं’ पूरी तरह से गैर-राजनीतिक, सरल और आसानी से अपनाई जाने वाली धार्मिक लोकतांत्रिक प्रथा हैं.

शिव चर्चा—‘जादुई गोली’

“‘साहब’, जैसा गीता देवी हरेंद्रानंद को बुलाती हैं, भूमिहार थे. गीता देवी कहती हैं कि वह पहले कलेक्टर थे, जिन्होंने 2011 में अपनी आरामदायक सरकारी नौकरी छोड़कर भक्ति का रास्ता अपना लिया. “वह रांची में रहते थे, और बिल्कुल साधारण इंसान की तरह थे, किसी पारंपरिक बाबा जैसे नहीं दिखते थे,” वह श्रद्धा से भरी आंखों के साथ कहती हैं. “उन्होंने हमें तीन बातें कहीं. पहला, साहब (शिव) से कहो कि वह तुम्हें अपना शिष्य बना लें. दूसरा, उनका संदेश फैलाओ. और तीसरा, रोज 108 बार उनका नमन करो.”

“महादेव को तो सदियों से हर कोई जानता है और पूजता है. लेकिन ‘शिव चर्चाओं’ ने हमारे विश्वास को एक ठोस रूप दिया है,” वह कहती हैं. “इससे यह भी सुनिश्चित हुआ कि हमारा धार्मिक विश्वास भी दूसरों की तरह संगठित रूप में दिखे,” वह ‘सवर्णों’ की ओर इशारा करते हुए कहती हैं.

Women taking part in 'Shiv Charcha' at a house in Patna. | Picture: Suraj Singh Bisht/ThePrint
पटना के एक घर में ‘शिव चर्चा’ में हिस्सा लेती महिलाएं | सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

जब गीता देवी ने महिलाओं के बीच ‘शिव चर्चा’ शुरू की, तो अक्सर वही बात सुनने को मिलती—‘हमें कुछ नहीं आता.’ लेकिन गीता देवी को उनके “साहब”, हरेंद्रानंद ने अच्छे से प्रशिक्षित किया था. उन्होंने बताया था कि उनका काम ही उन लोगों का हाथ पकड़ना है, जो अभी “प्रकाशित” नहीं हुए हैं.

“मैं उन्हें शांत होकर कहती, ‘तुम बस मेरे साथ बैठो और वही करो जो मैं कहूं’,” वह बताती हैं. “अब ऐसा कोई घर नहीं जहां शिव चर्चा न होती हो,” वह खुशी से कहती हैं.

“अगर किसी को बेटा चाहिए, बेटी चाहिए, बच्चों की नौकरी चाहिए, कुछ भी, तो हमें शिव चर्चा करने के लिए बुलाया जाता है,” वह बताती हैं.

ड्राइवर रंजन यादव भी बताते हैं कि पिछले करीब 20 साल से उनकी मां सक्रिय रूप से ‘शिव चर्चा’ करती आ रही हैं. इसकी “सरलता” और “प्रभाव” का ज़िक्र करते हुए, रुद्राक्ष की कंगन पहने यादव कहते हैं कि वह खुद भी अब चर्चाओं में शामिल होते हैं. “इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. यह बहुत सरल तरीका है महादेव से जुड़ने का. बस महादेव से कहना है कि वह आपको अपना शिष्य बना लें.”

‘आरएसएस का कार्यक्रम’

पटना की वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता कंचन बाला मानती हैं कि पिछले एक दशक में उत्तरी बिहार में ‘शिव चर्चाएं’ “तेजी से बढ़ी” हैं. “यह प्रथा पहले यहां बिल्कुल नहीं थी,” वह कहती हैं. “लेकिन पिछले डेढ़ दशक में, जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार है और आरएसएस पहले से कहीं अधिक मजबूत हुआ है, यह सब अचानक उभर कर फैल गया है.”

“पहले ये मंदिरों में होती थीं, अब घरों में होने लगी हैं,” वह कहती हैं और जोड़ती हैं कि इसके पीछे आरएसएस है. “आरएसएस दलितों और पिछड़ों को पूरे देश में ऐसे ही जोड़ती है—नई धार्मिक प्रथाएं बनाकर, जो उन्हें अपना महसूस कराएं.”

वह बताती हैं कि राम मंदिर आंदोलन का असर बिहार में वैसा कभी नहीं हुआ जैसा उत्तर प्रदेश या देश के अन्य हिस्सों में हुआ था. “एक वजह तो यह थी कि तब लालू जी सांप्रदायिकता के खिलाफ दीवार बने हुए थे, और दूसरी वजह यह कि बिहार में राम को वैसे नहीं पूजा जाता… यहां तो सीता की पूजा अधिक होती है. यही कारण है कि आप सीता के इर्द-गिर्द लामबंदी देखते हैं.”

शिव, राम की तुलना में यहां हमेशा अधिक लोकप्रिय रहे हैं. शैव और बौद्ध परंपराएं प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र में प्रमुख रही हैं. “इसलिए बिहार में ‘जय श्री राम’ के झंडों की बजाय, वे (आरएसएस) शिव के झंडे लगाते हैं.”

A group of women at a Shiv Charcha gathering in Patna. | | Picture: Suraj Singh Bisht/ThePrint
पटना में शिव चर्चा सभा में महिलाओं का एक समूह | सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

वह जोड़ती हैं कि बिहार में हजारों स्थानीय शिवार्चनाएं (शिवालय) हैं, जिन्हें लोग खुद संभालते हैं. “वे इन्हें भी जोड़ रहे हैं और इन्हें ‘भव्य’ बना रहे हैं.”

हालांकि बिहार में ऐतिहासिक रूप से आरएसएस उतना प्रभावी नहीं रहा, कंचन बाला कहती हैं कि ये मासूम दिखने वाली प्रथाएं उन्हें जमीन दे रही हैं. “ये चीजें सामने से आक्रामक नहीं हैं, लेकिन भविष्य की आक्रामकता का मजबूत आधार बना रही हैं.”

राज्य के वरिष्ठ बीजेपी नेता संजय पासवान इन आरोपों को खारिज करते हैं.

“यह सच है कि पिछले 10–15 साल में यह चलन तेजी से फैला है,” वह कहते हैं. “लेकिन इसका आरएसएस से कोई संबंध नहीं है. कोई भी धार्मिक गतिविधि होती है, तो लोग स्वतः ही आरएसएस को उसका श्रेय दे देते हैं, लेकिन यह सही नहीं है.”

“पहले भी गांवों में मंदिर और पुजारी थे… लेकिन समाजवाद और वामपंथ के प्रभाव के कारण यहां की महिलाएं धर्म से कट गई थीं,” पासवान कहते हैं. “लेकिन पिछले वर्षों में इस रुझान ने लोगों को धर्म से दोबारा जोड़ दिया है, धर्म को सरल बनाकर,” वह जोड़ते हैं.

“वे कहते हैं कि ‘शिव चर्चा’ बेहद कम सामग्री से भी हो सकती है—लोटा, गुड़, चीनी, जो भी हो… इसने बड़ी संख्या में पिछड़ी महिलाओं को आकर्षित किया है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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