नई दिल्ली: अमलानंद घोष वह नाम नहीं है जो इंडियन आर्कियोलॉजी पर बातचीत में स्वाभाविक रूप से सामने आता हो. आज़ादी के बाद उन्होंने भारतीय पुरातत्व का नेतृत्व किया और आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) को उसकी औपनिवेशिक जड़ों से दूर दिशा दी.
“यह हैरानी की बात है कि हम उनके योगदान को ठीक से पहचानते ही नहीं हैं. उन्होंने मिट्टी के बर्तनों के वर्गीकरण पर ध्यान दिया, जो आज किसी भी स्थल की कालक्रम तय करने के लिए पुरातत्वविदों का सबसे बड़ा औज़ार है,” ASI के महानिदेशक यदुबीर सिंह रावत ने कहा. वह इतिहासकार हिमांशु प्रभा राय और अजय यादव की नई किताब इंडियन आर्कियोलॉजी आफ्टर इंडिपेंडेंस: अमलानंद घोष एंड हिज लेगेसी के लोकार्पण में दिल्ली के हुमायूं टॉम्ब म्यूज़ियम ऑडिटोरियम में बोल रहे थे.
रावत के साथ राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के अध्यक्ष केके बासा, ASI के अतिरिक्त महानिदेशक संजय मंजुल, पूर्व राजनयिक और इतिहासकार टीसीए राघवन, समेत लेखिका-इतिहासकार हिमांशु प्रभा राय भी पैनल में मौजूद थे. कार्यक्रम का संचालन आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर के संरक्षण वास्तुकार रतीश नंदा ने किया.
दो घंटे चली इस चर्चा में भारतीय पुरातत्व के उपनिवेश-उत्तर दृष्टिकोण पर बात हुई.
किताब आज़ादी के बाद ASI के कामकाज की पड़ताल करती है और इस धारणा को चुनौती देती है कि संस्था का मुख्य काम सिर्फ हड़प्पा स्थलों की खोज था.
“यह किताब ASI के सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले महानिदेशक के योगदान को सामने लाती है. यह कई आम धारणाओं को भी उलट देती है जिन्हें ASI के बारे में ‘सत्य’ माना जाता रहा है,” नंदा ने कहा. उन्होंने जोड़ा कि हड़प्पा और ऐसे स्थल सिर्फ पूरी पहेली का एक हिस्सा हैं.

स्वतंत्रता के बाद इंडियन आर्कियोलॉजी
रावत ने कहा कि विभाजन से पहले बहुत कम भारतीय आर्कियोलॉजिस्ट, जैसे दयाराम साहनी, के.एन. दीक्षित, को उनके योगदान के लिए पहचान मिल सकी. श्रेय हमेशा ब्रिटिश और दूसरे विदेशी अन्वेषकों को दिया गया.
रावत के अनुसार, ब्रिटिश खोजकर्ताओं और खुदाई करने वालों की मदद वास्तव में भारतीयों ने की थी. “भारतीयों को ASI में नौकरी इसलिए मिलती थी क्योंकि उन्हें संस्कृत और अभिलेख-विज्ञान का ज्ञान था,” उन्होंने कहा. उन्होंने यह भी जोड़ा कि घोष ने भी ब्रिटिश काल में ही प्रशिक्षण लिया था.
लेकिन आज़ादी के बाद घोष ने भारतीय पुरातत्व को बदल दिया और एक नया दृष्टिकोण और सोच दी.
“उनकी अकादमिक समझ उत्कृष्ट थी,” बासा ने कहा.
घोष ने सैकड़ों स्थलों का मानचित्रण किया, जिससे सिंधु घाटी सभ्यता का नाम बदलकर एक अधिक तटस्थ नाम—हड़प्पा सभ्यता—रखा गया. उन्होंने स्वतंत्र भारत की खोज में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य जोड़ा. उन्होंने बीकानेर क्षेत्र में कई बड़े उत्खननों और अन्वेषणों का नेतृत्व किया. उन्होंने ASI की वार्षिक इन-हाउस प्रकाशन “इंडियन आर्कियोलॉजी–ए रिव्यू (IAR)” भी शुरू की.
“असल पुरातत्व स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ क्योंकि हमारे पास तब अपने स्मारक थे,” रावत ने कहा. पहले स्मारक रियासतों में बँटे हुए थे. राज्यों के पुनर्गठन के बाद सभी स्मारक ASI के अधीन आ गए.
लेकिन हम विभाजन में प्रमुख हड़प्पा स्थल खो बैठे. यह सवाल उठा कि भारत में क्या बचा है, रावत ने कहा. “यही बात उस समय के पुरातत्वविदों को पुराने मार्गों की व्यवस्थित खोज के लिए प्रेरित करती थी,” उन्होंने कहा.
घोष ने इन अन्वेषणों का नेतृत्व किया और दृषद्वती या सरस्वती नदी क्षेत्र के पुराने मार्गों पर दर्जनों स्थल खोजे.
“अपनी खोज के दौरान उन्होंने एक संस्कृति देखी जिसे उन्होंने सोथी संस्कृति कहा और इसे प्रारंभिक हड़प्पा काल से जोड़ा,” रावत ने कहा. उन्होंने यह भी जोड़ा कि घोष बहुत शांत काम करने वाले व्यक्ति थे और उनकी किताब एन्साइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन आर्कियोलॉजी उनका बड़ा योगदान है.
यह संस्कृति राजस्थान की एक प्रारंभिक मिट्टी-बर्तन परंपरा और एक बस्ती स्थल है, जो हड़प्पा सभ्यता के शुरुआती चरण से पहले की है और उससे जुड़ी है.
“यह किताब औपनिवेशिक ज्ञान के निर्माण को संदर्भित करती है, औपनिवेशिक रूढ़ियों की पड़ताल करती है, उपनिवेश-मुक्ति पर बात करती है और कई बार औपनिवेशिक ज्ञान के विकल्प भी प्रस्तुत करती है,” बासा ने कहा. उन्होंने भारत पर पश्चिमी दृष्टिकोण की आलोचना की.
बासा ने कहा कि राय की किताब विभाजन के बाद के वर्षों में पुरातत्व के इतिहास के लिए एक सुधार है.
घोष की विरासत
घोष के बेटे असीम घोष और मंजुल की एक मुलाकात राय और यादव की किताब का आधार बनी.
मंजुल को घोष की दो डायरियां मिलीं, जिनमें प्रसिद्ध बीकानेर डायरी भी शामिल थी. “डायरी का बड़ा हिस्सा इस किताब में है. मैंने पूरी कोशिश की कि इस किताब के लिए सामग्री उपलब्ध करा सकूं,” मंजुल ने कहा, जो पुरातत्व संस्थान के निदेशक भी हैं—यह संस्थान घोष की ही सोच का नतीजा था.
मंजुल ने कहा कि इस संस्थान ने पड़ोसी देशों के कई पुरातत्वविदों को तैयार किया.
उन्होंने बताया कि घोष द्वारा खोजे और दर्ज किए गए 20 प्रतिशत स्थल अब लगभग गायब हो चुके हैं. “यह चिंताजनक है और दिन-ब-दिन कई स्थल खत्म होते जा रहे हैं,” उन्होंने कहा.
सितंबर में नेशनल म्यूज़ियम में चोरी के प्रयास का हवाला देते हुए, दर्शकों में मौजूद एक JNU छात्र ने मंजुल से पूछा कि क्या ASI कलाकृतियों के संरक्षण के लिए तैयार है. अशोका यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने नेशनल म्यूज़ियम से नाचती लड़की की प्रतिकृति चुराने की कोशिश की थी.
“ASI अवैध व्यापार और कलाकृतियों के संरक्षण पर नज़र रखता है. नेशनल म्यूज़ियम की घटना दुर्भाग्यपूर्ण थी,” मंजुल ने कहा.
लेकिन पूर्व राजनयिक और इतिहासकार टीसीए राघवन ने ASI के लिए एक अभिलेखागार (आर्काइव) की ज़रूरत पर जोर दिया. उन्होंने कहा कि पुरातत्व के अलावा इस संस्था का 160 साल से ज्यादा पुराना इतिहास है.
“इतिहास का मतलब है आर्काइव, और ASI के पास आर्काइव होना चाहिए तथा उसे शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध कराना चाहिए,” उन्होंने कहा.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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