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Sunday, 26 October, 2025
होमदेशअनसुनी चेतावनियों से लेकर ‘ढाकछाप’ तक—1983 के नेल्ली नरसंहार की फिर पड़ताल, असम सरकार छापेगी रिपोर्ट

अनसुनी चेतावनियों से लेकर ‘ढाकछाप’ तक—1983 के नेल्ली नरसंहार की फिर पड़ताल, असम सरकार छापेगी रिपोर्ट

18 फरवरी, 1983 को छह घंटे के भीतर लगभग 3,000 लोग, ज्यादातर प्रवासी मुस्लिम पुरुष, महिलाएं और बच्चे, मारे गए थे. 668 एफआईआर दर्ज होने के बावजूद किसी को सज़ा नहीं हुई.

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नई दिल्ली: यह 15 फरवरी, 1983 की बात है. नगांव थाने के तत्कालीन थाना प्रभारी जहीरुद्दीन अहमद ने वायरलेस के ज़रिए वरिष्ठ अधिकारियों और आसपास के स्टेशनों को संदेश भेजा. यह एक विनती और स्पष्ट चेतावनी थी कि कुछ भयानक घटित होने वाला है:

“सूचना मिली है कि रात में नेल्ली के आसपास के गांवों के लगभग एक हज़ार असमियां लोग घातक हथियारों के साथ ढोल बजाकर नेल्ली में इकट्ठा हो गए हैं. अल्पसंख्यक लोग भयभीत हैं और किसी भी पल हमले की आशंका जता रहे हैं. शांति बनाए रखने के लिए तुरंत कार्रवाई की सिफारिश.”

तीन दिन बाद, 18 फरवरी की सुबह, यह चेतावनी असम के इतिहास के सबसे काले अध्यायों में बदल गई. धारधार हथियारों, भाले और बंदूकें लेकर भीड़ ने नेल्ली और पास के तेरह गांवों को घेर लिया. छह घंटे में कम से कम 3,000 लोग, ज्यादातर प्रवासी मुस्लिम पुरुष, महिलाएं और बच्चे, मारे गए. यह नरसंहार लगभग बिना रोक-टोक हुआ, जबकि जहीरुद्दीन अहमद की खुफिया सूचना को नज़रअंदाज़ किया गया था.

मोरीगांव पुलिस ने कुल 668 एफआईआर दर्ज की, लेकिन किसी को कभी सज़ा नहीं मिली. जैसा कि दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता ने 2023 में अपने कॉलम First Person Second Draft में लिखा, अहमद का वायरलेस संदेश पहला था जिसे ढक दिया गया. यह जिम्मेदारी को व्यवस्थित रूप से मिटाने की प्रक्रिया की शुरुआत थी, जो दशकों तक चली.

अब, 40 साल से अधिक वक्त बाद, यह नरसंहार फिर सुर्खियों में आया है. असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने घोषणा की है कि लंबे समय से दबाई गई तिवारी आयोग रिपोर्ट, जिसने इस नरसंहार की जांच की थी, अगले महीने विधानसभा में पेश की जाएगी.

सीएम सरमा ने कहा, “इस रिपोर्ट को अब तक पेश नहीं किया गया क्योंकि असम सरकार के पास मौजूद प्रति में आयोग के अध्यक्ष का हस्ताक्षर नहीं था. हमने उस समय के अधिकारियों के इंटरव्यू और फोरेंसिक जांच के जरिए इसकी पुष्टि की.”

लेकिन इस कदम के समय ने नए सवाल खड़े कर दिए हैं. अब क्यों? और रिपोर्ट पर आयोग के अध्यक्ष, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी त्रिभुवन प्रसाद तिवारी, ने हस्ताक्षर क्यों नहीं किए? लगातार सरकारों ने इसे चार दशकों तक दबाए क्यों रखा? रिपोर्ट का पेश होना विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हो रहा है.

दिप्रिंट इस हिंसा, जांच के लिए गठित समिति और उन घटनाओं की श्रृंखला को फिर से देखता है जो असम में बांग्लादेश से ‘अवैध आव्रजन’ के विरोध में घबराहट के चरम पर घटित हुई थी.

एक चुनाव, बहिष्कार और 6 घंटे का नरसंहार

18 फरवरी, 1983 को स्वतंत्र भारत ने असम के नेल्ली में अपने सबसे भयानक सांप्रदायिक हिंसा के किस्सों में से एक देखा. केवल छह घंटे में कम से कम लगभग 3,000 लोग, ज्यादातर बंगाली भाषी मुस्लिम, निर्दयता से मारे गए, जबकि वह भागने की कोशिश कर रहे थे. यह हिंसा उस समय के असम में विदेशी विरोधी आंदोलन के संदर्भ में हुई, जो 1979 में शुरू हुआ था और इसका उद्देश्य ‘अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों’ की पहचान और उन्हें निकालना था.

कार्रवाई के दिन पर, लालुंग जनजातियों के लोग एकत्र हुए और गांवों के समूह को घेरे में लेकर आतंक फैला दिया. माकिको किमुरा ने अपनी किताब The Nellie Massacre of 1983: Agency of Rioters में लिखा, “150,000 सशस्त्र जवान कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए तैनात थे—हर 57 मतदाताओं पर एक सेना का जवान—असम को एक लोकतांत्रिक राज्य की बजाय सैन्य मैदान में बदल दिया गया.”

‘विदेशियों’ का मुद्दा विभाजन तक जाता है, लेकिन 1970 के दशक में बांग्लादेश से अवैध प्रवासियों के बड़े पैमाने पर आने के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ. 1985 में, केंद्रीय सरकार, असम सरकार और असम आंदोलन के नेताओं ने असम समझौता (Assam Accord) पर हस्ताक्षर किए, आंदोलन समाप्त हुआ और 24 मार्च 1971 को कट-ऑफ डेट घोषित की गई. दर्ज किए गए कई मामलों को भी वापस लिया गया.

इस हिंसा के तत्काल कारण को माना जाता है कि 1983 में राज्य चुनाव कराए जाने का फैसला, जबकि ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और ऑल असम गण संघर्ष परिषद (AAGSP) जैसी संगठनों ने इसका जोरदार विरोध किया था. उस वक्त की कांग्रेस सरकार ने चुनावी रोल से ‘विदेशियों’ के नाम हटाने से इनकार किया था, जबकि हिंसा और चेतावनियां पहले ही हो चुकी थीं. जनवरी में उस साल AASU के शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार किया गया.

AASU और अन्य समूहों ने अस्थिर माहौल में चुनाव का बहिष्कार किया. संगठन ने आंदोलन शुरू किया और केंद्र में इंदिरा गांधी सरकार के साथ बातचीत निष्कर्षहीन रही. इन समूहों, जिसमें AASU, ऑल गुवाहाटी स्टूडेंट्स यूनियन और ऑल कामरूप डिस्ट्रिक्ट स्टूडेंट्स यूनियन शामिल थे, जिन्होंने बड़े पैमाने पर विरोध और आंदोलन किया, जो जल्दी ही हिंसा में बदल गया.

पुलों को जला दिया गया, मतदान केंद्रों तक जाने वाले रास्ते बंद किए गए और चुनाव रोकने की कईं कोशिशें हुईं. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, जनवरी से मार्च के बीच 545 हमले हुए, साथ ही लगभग 100 अपहरण के मामले, 290 पुलिस फायरिंग और लाठीचार्ज की घटनाएं दर्ज हुईं.

नेल्ली पर आरोप, राजनीति और लंबी चुप्पी

पत्रकार हेमेंद्र नारायण ने 19 फरवरी 1983 को द इंडियन एक्सप्रेस में अपनी रिपोर्ट में आदिवासियों की यह युद्ध-क्रंदन उद्धृत की, “हम इन सभी बिदेशी मियां को मार देंगे. उन्होंने हमें अपने ही देश में बिदेशी बना दिया है.”

नरसंहार के बाद, 14 जुलाई 1983 को असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने सेवानिवृत्त आईएएस त्रिभुवन प्रसाद तिवारी के नेतृत्व में एक आयोग नियुक्त किया, ताकि इस हिंसा की परिस्थितियों की जांच की जा सके और संबंधित अधिकारियों द्वारा उठाए गए कदमों की समीक्षा की जा सके.

547 पृष्ठों की इस रिपोर्ट के अंश, जिसमें सैकड़ों गवाहों, अधिकारियों और संबंधित पक्षकारों के इंटरव्यू शामिल थे, वर्षों बाद समाचार प्रकाशनों तक पहुंचे. आयोग की रिपोर्ट में AASU और AAGSP को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया, लेकिन यह भी कहा गया कि यह पूरी तरह से सांप्रदायिक नहीं थी.

2012 में पत्रकार मुज़ामिल जलील ने द इंडियन एक्सप्रेस में आयोग की रिपोर्ट का हवाला दिया, “जांचाधीन घटनाओं को सांप्रदायिक रंग देना पूरी तरह अनुचित है…कुछ स्थानों पर हमलावर असमिया थे और पीड़ित बंगाली भाषी लोग, दोनों हिन्दू और मुस्लिम. कुछ अन्य जगहों पर मुस्लिम हमलावर थे और असमिया पीड़ित. कई क्षेत्रों में झड़पें असमिया के विभिन्न वर्गों के बीच हुई. कुछ जगहों पर मुस्लिमों ने अपने धर्मसमाज के लोगों के खिलाफ हमले में हाथ मिलाया. चौलकवा में, अल्पसंख्यक समुदाय का एक हिस्सा आप्रवासियों पर हमला करने में शामिल हुआ.”

आयोग ने वायरलेस संदेशों का भी पता लगाया. तीन अधिकारियों से नगांव थाने के एसएचओ जहीरुद्दीन अहमद से टेलीग्राम मिलने के बारे में पूछा गया. ये अधिकारी थे—एम.एन.ए. कबीरा, जो उस समय असम पुलिस की 5वीं बटालियन के कमांडेंट और मोरीगांव में कानून-व्यवस्था के प्रभारी थे; प्रमोद चेतिया, मोरीगांव के उपविभागीय पुलिस अधिकारी; और भद्र केंता चेतिया, जगिरोड़ पुलिस स्टेशन के प्रभारी. तीनों ने इस संदेश को प्राप्त करने से इनकार किया; एक ने कहा कि उनकी पत्नी ने यह प्राप्त किया, दूसरे ने कहा कि यह उनकी मेज पर था और तीसरे ने कहा कि यह उनके “पुट अप बास्केट” में था.

दिप्रिंट से बातचीत में 1980 के दशक के एक पूर्व असम कैडर आईएएस अधिकारी ने कहा, “रिपोर्ट इसलिए प्रस्तुत नहीं की गई क्योंकि इसमें असम आंदोलन के नेताओं पर दोष लगाया गया था. लगातार सरकारें यह नहीं चाहती थीं. प्रोटोकॉल के अनुसार, साइन की गई रिपोर्ट की एक प्रति इसे दायर किए छह महीने के भीतर विधानसभा में पेश की जानी चाहिए थी. अब इसे राजनीति के लिए पेश किया जा रहा है.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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