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Saturday, 25 October, 2025
होममत-विमतमुसलमान हलाल खाते हैं, हिंदू सात्विक भोजन करते हैं, जैन मांस से बचते हैं, इसमें आतंकवाद कहां है?

मुसलमान हलाल खाते हैं, हिंदू सात्विक भोजन करते हैं, जैन मांस से बचते हैं, इसमें आतंकवाद कहां है?

अजीब है कि निर्यात के मामले में हलाल सर्टिफिकेशन को बिल्कुल सही माना जाता है. क्यों ऐसा है, कोई नहीं जानता.

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर हलाल सर्टिफिकेशन को आतंकवाद से जोड़ने वाले अपने बयान से हलचल मचा दी है. उनका यह बयान, जो चुनावी मौसम की धारदार भाषा में दिया गया, राजनीतिक और सामाजिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गया है.

कुछ लोगों के लिए यह बीजेपी सरकार द्वारा धार्मिक तुष्टिकरण के खिलाफ कड़ा रुख दिखाने का उदाहरण है. वहीं, दूसरों के लिए यह उस नैरेटिव को और गहरा करता है, जो मुस्लिम समुदाय को संदिग्ध दिखाती है.

आदित्यनाथ ने केवल हलाल सर्टिफिकेशन पर प्रतिबंध की बात नहीं की, बल्कि इसे समाज के लिए हथियार और खतरे के रूप में पेश किया. दुर्भाग्य से यह कहना कि इस उद्योग की 25,000 करोड़ रुपये की आमदनी आतंकवाद, “लव जिहाद” और धर्मांतरण में लगती है, न केवल एक अतिशयोक्ति है बल्कि डर फैलाने के लिए जानबूझकर बनाया गया नैरेटिव भी है.

एक मुस्लिम के रूप में, मुझे यह हास्यास्पद और परेशान करने वाला लगता है. हलाल कोई छिपी हुई साजिश नहीं है; यह एक साधारण, व्यक्तिगत धार्मिक प्रथा है. यह तय करती है कि हम क्या खाते और पीते हैं, और उन चीज़ों से बचते हैं जिन्हें हमारा धर्म मना करता है—जैसे शराब या मांस जिसे धर्म के अनुसार तैयार नहीं किया गया. यह किसी जैन के मांस से बचने, किसी हिंदू के सात्विक नियमों का पालन करने, या किसी यहूदी के कोशेर खाने से अलग नहीं है.

फिर भी, यहां एक सामान्य धार्मिक विकल्प को साजिश में बदला जा रहा है. हलाल सर्टिफिकेशन केवल एक निजी धार्मिक संस्था द्वारा खाद्य नियमों के पालन को प्रमाणित करना है. कंपनियां इसे अपने उत्पादों को मुस्लिम समुदाय को बेचने के लिए इस्तेमाल कर सकती हैं.

असल में, मुसलमानों को हलाल सर्टिफिकेट की ज़रूरत सिर्फ मांस खाने और कुछ मामलों में खाद्य सामग्री धर्म के अनुसार है या नहीं, यह जानने के लिए होती है, लेकिन अगर कोई भी—मुस्लिम, हिंदू, या ईसाई—कानूनन गलत काम में पैसा लगा रहा है, तो राज्य का काम है जांच करना और रोकना. आप बिना किसी प्रमाण के किसी धर्म को प्रतिबंधित नहीं कर सकते और न ही पूरी समुदाय को दुष्प्रचार के आधार पर दोषी ठहरा सकते हैं.

सार्वजनिक भय पैदा करने की जानबूझकर कोशिश

मुझे सबसे ज्यादा चिंता इस भाषा के पीछे की मंशा है. यह लाखों लोगों को संदेश देती है कि उनका धर्म, उनकी रोज़मर्रा की प्रथाएं केवल राजनीति हैं. यह सिर्फ किसी सर्टिफिकेट पर प्रतिबंध लगाने की बात नहीं है. यह एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश है, जिसमें मुसलमानों से जुड़े हर काम को संभावित खतरे के रूप में देखा जाता है और जब ऐसी बातें राज्य के शीर्ष नेतृत्व से आती हैं, तो यह शक को सामान्य बनाती हैं, पूर्वाग्रह को बढ़ावा देती हैं और बहुलवादी, समावेशी लोकतंत्र के मूल विचार को कमज़ोर करती हैं.

अगर चिंता हलाल सर्टिफिकेशन में किसी वैकल्पिक प्रणाली या आधिकारिक निगरानी की कमी को लेकर है, तो इसे शांतिपूर्ण ढंग से, तथ्यों के साथ और नियामक समाधान के विचार के साथ उठाया जा सकता था. 25,000 करोड़ रुपये आतंकवाद, “लव जिहाद” या धर्मांतरण में लगने का कोई सबूत नहीं है. यह आंकड़ा कहां से आया? कोई भरोसेमंद स्रोत नहीं, कोई जांच नहीं, बस डर फैलाने के लिए सार्वजनिक बहस में फेंका गया एक नंबर.

फिर भी, अजीब बात यह है कि निर्यात के मामले में हलाल सर्टिफिकेशन को पूरी तरह सही माना जाता है. क्यों ऐसा है, कोई नहीं जानता. योगी के भाषण का दूसरा हिस्सा—“लव जिहाद” और राजनीतिक इस्लाम के बारे में को गंभीरता से नहीं देखा जा रहा और यह ही बहुत कुछ बताता है.

राजनीतिक इस्लाम एक अच्छी तरह से अध्ययन किया गया विषय है; इसके बारे में पर्याप्त शोध और साहित्य मौजूद है. अगर तर्क यह है कि राजनीतिक इस्लाम भारत के लिए खतरा है, तो इसे सोच-समझकर कई तरीके से चर्चा की जा सकती है, लेकिन यह भाषण वैसा नहीं लगता. इसके बजाय, यह एक समुदाय के लिए सनातन के लिए घोषणा जैसा लगता है, न कि पूरे राज्य के मुख्यमंत्री की ओर से संदेश.

हर नागरिक के लिए समान नियम

न्याय, निष्पक्षता, अधिकारों की सुरक्षा—ये हर नागरिक के लिए सार्वभौमिक होने चाहिए, चाहे वह सनातनी हो या किसी अन्य धर्म का अनुयायी. फिर भी, इस भाषा और फोकस से ऐसा नहीं लगता; शासन को न्याय और कानून के सिद्धांतों की बजाय पहचान राजनीति की भाषा में बदल दिया गया है.

योगी का दावा कि “राजनीतिक इस्लाम ने सनातन पर उपनिवेशवाद से अधिक प्रहार किया” एक सरल और दोषपूर्ण ऐतिहासिक तर्क है. यह दिखाता है कि राजनीति इतिहास को विभाजन के लिए कैसे मोड़ देती है. सदियों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक बदलावों को केवल एक वाक्य में समेट दिया गया है. उपनिवेशवाद, आंतरिक सामाजिक सुधार और विभिन्न समुदायों की आंदोलनों ने इस धरती को आकार दिया, लेकिन एक धर्म को नुकसान का कारण बताना विश्लेषण नहीं, बल्कि उत्तेजना है.

ऐसे बयानों की गंभीर समस्या यह है कि मुख्यमंत्री सभी नागरिकों के नेता के रूप में नहीं, बल्कि एक समुदाय के प्रवक्ता के रूप में बोल रहे हैं—लगभग इसे राष्ट्र के समान बनाते हुए और यह अब क्यों? क्या उद्देश्य हमें सह-अस्तित्व सिखाना, अधिक सामंजस्यपूर्ण समाज बनाना, या पिछले गलतियों पर विचार करना है? या यह शक और डर पैदा करने के लिए है?

आज हम उपनिवेशवाद की बात कर सकते हैं, उसकी गलतियों को मान सकते हैं, उससे सीख सकते हैं, और फिर भी ब्रिटेन के साथ व्यापार और कूटनीतिक संबंध बनाए रख सकते हैं, लेकिन “अतीत का राजनीतिक इस्लाम” इस संदर्भ में क्या सिखाता है और इसे “सबसे बड़ा प्रहार” क्यों बताया जाता है? जवाब स्पष्ट लगता है: यह इतिहास के बारे में नहीं, बल्कि नैरेटिव के बारे में है.

योगी के लिए यह चर्चा जनसंख्या, “लव जिहाद,” और धर्मांतरण जैसे मुद्दों को बड़े “राजनीतिक इस्लाम” के हिस्से के रूप में उजागर करने का एक तरीका बन जाती है, जिसमें सनातन को खतरे में दिखाकर सुरक्षा की ज़रूरत बताई जाती है. यह पीड़ित और वफादारी की एक रची हुई कहानी है, जो उन्हें राजनीतिक रूप से लाभ पहुंचाती है: हर नागरिक और उनके अधिकारों के प्रति जवाबदेह होने के बजाय, वे एक ऐसे वोट बैंक को एकजुट कर सकते हैं जो उन्हें अपना रक्षक मानता है.

मैंने अपने समुदाय में यह पैटर्न पहले देखा है, जहां “दूसरे” के डर को जगाया जाता है, लोग अपने नेताओं से अक्सर कम जवाबदेही और अधिक सुरक्षा की मांग करते हैं और एक राजनीतिज्ञ इससे ज्यादा और क्या मांग सकता है?

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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