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Sunday, 12 October, 2025
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छिंदवाड़ा की कोल्डरिफ मौतें दिखाती हैं भारत की खतरनाक विडंबना—दुनिया की फार्मेसी, लेकिन देश में फेल

भारत के फार्मास्यूटिकल सेक्टर का मूल्य 50 अरब डॉलर है. इसने अपनी पहचान किफायती और सुलभ दवाओं पर बनाई है, लेकिन छिंदवाड़ा में हुई मौतें एक अलग कहानी बताती हैं.

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एक ऐसे देश में जो खुद को दुनिया की फार्मेसी कहता है, दवा शब्द में भरोसा होना चाहिए, लेकिन मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में, यह भरोसा दुख में बदल गया और फिर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खबरों और पहले पन्ने की सुर्खियां बन गया. पिछले महीने में, कम से कम 21 बच्चे मध्य प्रदेश में और राजस्थान में तीन अन्य, ज्यादातर पांच साल से कम उम्र के, कोल्डरिफ नाम के कफ सिरप का सेवन करने के बाद मौत के घाट उतर गए.

यह सिरप श्रीसन फार्मास्यूटिकल के तहत बनाया गया था और डॉक्टरों द्वारा वर्षों से बच्चों में खांसी और सामान्य सर्दी के इलाज के लिए दिया जाता रहा.

लेकिन यह पहली बार नहीं है जब भारत में बना कोई सिरप ज़हरीली साबित हुआ हो. दिसंबर 2019 और जनवरी 2020 के बीच, जम्मू और कश्मीर में 12 बच्चे दूषित कफ सिरप पीने के बाद मरे. गाम्बिया में 2022 में 66 बच्चे भारतीय निर्मित सिरप पीने के बाद मरे, जिसमें डाइएथिलीन ग्लाइकोल (डीईजी) और एथिलीन ग्लाइकोल मिलाया गया था. अगले साल, उज्बेकिस्तान और इंडोनेशिया ने भी दर्जनों ऐसी मौतों की रिपोर्ट की. हर बार वही पैटर्न दोहराया गया—वही “ज़हर”, वही लापरवाही, और वही धीमी आधिकारिक प्रतिक्रिया.

कोल्डरिफ मौतें सिर्फ एक त्रासदी नहीं हैं. ये याद दिलाती हैं कि हर सिरप की बोतल के पीछे जिम्मेदारी की एक श्रृंखला होती है, जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है. यह सामूहिक उदासीनता भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की संवेदनशीलता को कई स्तरों पर उजागर करती है और यही वजह है कि कोल्डरिफ मौतें दिप्रिंट की इस हफ्ते की न्यूज़मेकर हैं.

बुखार से शुरू हुआ सब

मध्य प्रदेश में कुछ बुखार के मामले जैसे शुरू हुए, वे अब इस राष्ट्रीय गुस्से में बदल गए हैं कि कैसे नकली दवाएं आसानी से भारत के नियामक चक्रों से निकल जाती हैं.

त्रासदी का केंद्र राज्य के पारसिया ब्लॉक में है, यह एक छोटा गो-क्षेत्र है जिसमें कोयला खदानें हैं, हरियाली से घिरे हिल्स के बीच, छिंदवाड़ा शहर से 30 किमी दूर. परिवार अस्पतालों से मीलों दूर रहते हैं. जिला अस्पताल तक एक ही सवारी के लिए एम्बुलेंस 5,000-6,000 रुपये चार्ज करती है—जो जिले के लोगों की एक हफ्ते की कमाई से ज्यादा है. आपातकाल में दवाइयां जीवनरेखा बन गई हैं, लेकिन अब पैनिक की वजह से बंद हैं. पैनिक यह कि उनका लाइसेंस जब्त हो जाएगा.

चार साल के उसैद खान को कविताएं सुनाना पसंद था, जब अगस्त के अंत में उन्हें बुखार हुआ, उसके माता-पिता उसे डॉ. प्रवीण सोनी की स्थानीय क्लिनिक लेकर गए. डॉक्टर ने कोल्डरिफ का सिरप लिखकर दिया, जिसे हर माता-पिता पहचानते और भरोसा करते थे. कुछ ही दिनों में उसैद का शरीर सूज गया. वह पेशाब नहीं कर पा रहा था. उसके माता-पिता उसे छिंदवाड़ा और फिर नागपुर ले गए. उसकी किडनी फेल हो चुकी थी. उसका दिमाग सूज गया था. छोटी नसों पर डायलिसिस से पहले, उसने अपनी मां की ओर देखा और धीरे से कहा, “‘अ’ से अनार का मीठा दाना.” कुछ घंटे बाद, वह मर गया.

उसैद अकेला नहीं था. पास के गांवों में दर्जनों बच्चे, जिनमें से कई उसी डॉक्टर के मरीज थे, को वही सिरप दिया गया था. उनके लक्षण भी समान थे, जब तक स्वास्थ्य अधिकारी हस्तक्षेप कर पाए, मौतें बढ़ चुकी थीं. पहली रिपोर्ट की गई मौत के एक महीने बाद किए गए टेस्ट में पता चला कि तमिलनाडु में निर्मित कोल्डरिफ सिरप (SR-13) के एक बैच में 48.6 प्रतिशत डीईजी था. यह ब्रेक फ्लुइड और एंटीफ्रीज़ में इस्तेमाल होने वाला रसायन है और सिरप में इसकी अनुमत सीमा 0.1 प्रतिशत है.

अब, फैक्ट्री के मालिक एस. रंगनाथन को मध्य प्रदेश की विशेष जांच टीम ने गिरफ्तार कर लिया है. राज्य सरकार ने लापरवाही के लिए कई अधिकारियों, जिसमें ड्रग इंस्पेक्टर शामिल हैं, को निलंबित किया है, लेकिन जवाबदेही वहीं रुक जाती है जहां उसे शुरू होना चाहिए था. फैक्ट्री ने कुछ महीने पहले सुरक्षा जांच पास की थी और बच्चों की मौतें शुरू होने के बाद ही राष्ट्रीय स्तर पर सतर्कता आई.

इस बीच, भारतीय मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. दिलीप भानुशाली ने डॉ. सोनी का बचाव किया. उन्होंने कहा, “असल विफलता फार्मा कंपनियों और सरकार की है.”

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव को जनता का गुस्सा झेलना पड़ा जब उनके फोटो सामने आए जिसमें वह काजीरंगा में हाथियों को गन्ना खिला रहे थे, जबकि मौतों में अचानक बढ़ोतरी हो रही थी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जवाबदेही की मांग कर रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक इस त्रासदी पर कोई टिप्पणी नहीं की है.

खुद से इलाज करने की आम आदत

वैश्विक निगरानी के बावजूद, घरेलू निरीक्षण कमज़ोर ही बना हुआ है. भारत की सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन 10,000 से ज्यादा निर्माताओं की निगरानी करती है, लेकिन यह हमेशा ही स्टाफ की कमी से जूझती रही है. राज्य के ड्रग लैब्स अक्सर सामग्री और उनके मिश्रणों की समय पर जांच करने की क्षमता नहीं रखते. कई छोटी फार्मास्यूटिकल कंपनियां लागत बचाने के लिए औद्योगिक ग्रेड सॉल्वेंट का इस्तेमाल करती हैं, यह मानकर कि इंस्पेक्टर नज़रअंदाज़ करेंगे और कागज़ी कार्रवाई आसान होगी.

2024 की एक स्टडी में पाया गया कि लगभग 64 प्रतिशत भारतीय खुद दवा लेते हैं और इसकी सबसे अधिक दर उत्तर भारत में पाई गई. खांसी और सर्दी उन सबसे आम चीज़ों में थी जिनका इलाज बिना प्रिस्क्रिप्शन के किया जाता था, अक्सर स्थानीय केमिस्ट से सीधे खरीदे गए कफ सिरप और बुखार घटाने वाली दवाओं से. स्टडी में यह भी नोट किया गया कि ज्यादातर लोग डॉक्टरों की बजाय फार्मासिस्ट, पुराने पर्चों या परिवार की सलाह पर भरोसा करते हैं, आर्थिक प्रतिबंध और स्वास्थ्य सेवा की सीमित पहुंच को कारण बताते हुए. शोधकर्ताओं ने लिखा कि ओटीसी दवाओं का इतना ओवरडोज़, गलत डायग्नोज़ और संक्रमण का गंभीर खतरा पैदा करता है.

2025 में मैसूरू के JSS मेडिकल कॉलेज द्वारा किए गए हॉस्पिटल बेस्ड कम्युनिटी स्टडी में पाया गया कि 46 प्रतिशत माता-पिता पांच साल से कम उम्र के बच्चों का इलाज ओटीसी दवाओं से करते हैं. इनमें से 75 प्रतिशत ने कफ सिरप, 72 प्रतिशत ने बुखार घटाने वाली दवाएं और 58 प्रतिशत ने एंटीबायोटिक दवाएं इस्तेमाल की. स्टडी में यह भी नोट किया गया कि शहरी माता-पिता और गृहिणियां दूसरों की तुलना में खुद दवा लेने की अधिक संभावना रखते हैं. शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी कि, खासकर बहुत छोटे बच्चों के लिए बिना निगरानी ओटीसी दवा का इस्तेमाल का यह पैटर्न स्वास्थ्य सेवा में अंतर और भारत में खुद से इलाज करने की खतरनाक सामान्य होती आदत दोनों को दर्शाता है.

एक खतरनाक विडंबना

छिंदवाड़ा और इसके आसपास के गांवों के परिवारों के लिए दुख गरीबी और इसके बाद आए कर्ज़ से अलग नहीं है. परिवारों ने अपनी सारी संपत्ति खर्च कर दी और अस्पताल में भर्ती और डॉक्टर की सलाह के लिए और उधार लिया. उन्होंने आभूषण और वाहन बेच दिए, लेकिन फिर भी कोई जवाब नहीं मिला. उन्हें राज्य से केवल 4 लाख रुपये मुआवजे के रूप में मिले.

केंद्र स्वास्थ्य मंत्रालय ने छह राज्यों में फार्मास्यूटिकल प्लांट्स की जोखिम-आधारित जांच का आदेश दिया है और कोल्डरिफ सहित कई सिरप ब्रांड्स को भी प्रतिबंधित कर दिया है, लेकिन ये कदम प्रतिक्रियात्मक हैं, न कि रोकथाम के लिए. यह वही नकार और नुकसान नियंत्रण का चक्र है. त्रासदी के बाद त्रासदी, पैटर्न वही रहता है.

भारत के फार्मास्यूटिकल सेक्टर का मूल्य 50 अरब डॉलर है. इसने अपनी पहचान किफायती और सुलभ दवाओं पर बनाई है, लेकिन छिंदवाड़ा की मौतें एक खतरनाक विडंबना को उजागर करती हैं. भारत कई देशों को जीवन रक्षक दवाएं निर्यात कर रहा है, जबकि अपने ही शहरों में बच्चे ऐसी दवाओं से मर रहे हैं, जो बुनियादी जांच में फेल हो गई हैं.

(इस न्यूज़मेकर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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