जिस वक्त हम हिन्दुस्तानी लोग विश्व के रंगमंच पर अपनी-अपनी उपलब्धियों की विजय-पताका फहराने और अंतरिक्ष भेदने के अपने कारनामे के बखान में मगन थे ठीक उसी वक्त दो जरूरी रिपोर्ट सार्वजनिक जनपद में आये मगर अदेखे रह गये. उच्च शिक्षा पर केंद्रित आठवां सालाना सर्वेक्षण 2018-19 पिछले हफ्ते मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जारी किया. इस सालाना रिपोर्ट के जारी होने के आस-पास एक और रिपोर्ट सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडिया इकॉनॉमी (सीएमआइई) ने अनएम्पलॉयमेंट इन इंडिया- ए स्टैटिस्टिकल प्रोफाइल (मई-अगस्त 2019) प्रकाशित की. ये रिपोर्ट चार माह के अन्तराल से साल में तीन बार प्रकाशित होती है.
दोनों ही रिपोर्ट को साथ मिलाकर देखें तो आंखों के आगे एक तस्वीर उभरती है कि अपने देश में शिक्षित लोगों के बीच बेरोजगारी बड़ा विकराल रूप धारण करती जा रही है. बेरोजगारी का ये विकराल रूप आर्थिक मंदी का ही एक संकेत है और सरकार के लिए एक बड़ी राजनीतिक चुनौती बन सकता है.
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ये बात तनिक विचित्र लग सकती है लेकिन सच यही है कि उच्च शिक्षा के बाबत जो आंकड़े हमारे सामने मौजूद हैं वो अपनी गुणवत्ता में स्कूली शिक्षा के बाबत मौजूद आंकड़ों से भी कमतर ठहरते हैं. इस बात को भांपकर केंद्र सरकार ने साल 2011-12 में एआइएसएचई की स्थापना की. अब हमारे पास इस बात के आधिकारिक आंकड़े मौजूद हैं कि देश में उच्च शिक्षा के कितने और किस किस्म के संस्थान हैं, छात्रों का नामांकन कितना है, उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की तादाद कितनी है. साथ ही, ये आंकड़े ये भी बताते हैं कि उच्च शिक्षण के संस्थानों में अध्यापकों की संख्या कितनी है और शिक्षण क्षेत्र से जुड़े कर्मचारी कितने हैं.(यों इन आंकडों का सत्यापन नहीं हुआ और ये आंकड़े उच्च शिक्षा के संस्थानों द्वारा स्वयं बतायी गई संख्या पर आधारित हैं). अफसोस की एक बात ये भी है कि इस सर्वेक्षण रिपोर्ट से सीखने-सिखाने और शोध की गुणवत्ता के बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिलती. उच्च शिक्षा के मामले में हमारे पास वैसी कोई सर्वेक्षण रिपोर्ट मौजूद नहीं जैसी कि प्रथम नाम की संस्था द्वारा प्रकाशित होने वाला ‘असर’ रिपोर्ट या फिर एनसीईआरटी से प्रकाशित होने वाला ऑल इंडिया स्कूल एजुकेशन सर्वे.
डिग्री तो है मगर हुनर नहीं
हाल में प्रकाशित एआइएसएचई 2018-19 नाम की रिपोर्ट आंकड़ों के पहाड़ के पीछे जरूरी सच्चाई को छिपाने का एक सुंदर नमूना है. रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में विश्वविद्यालयों की संख्या 993 तक जा पहुंची है जबकि 2011-12 में विश्वविद्यालयों की संख्या 642 थी यानि रिपोर्ट के मुताबिक आठ सालों के भीतर विश्वविद्यालयों की तादाद में लगभग 50 फीसद का इजाफा हुआ है. लेकिन बढ़वार के इस आंकड़े के भीतर झांककर देखें तो नजर आयेगा कि 50 फीसद की बढ़ती निजी विश्वविद्यालयों के कुकुरमुत्ते की तरह उग आने के कारण हुई है. पिछले आठ सालों के दरम्यान जो 351 विश्वविद्यालय बढ़े हैं उनमें 119 राज्य सरकारों से मान्यता प्राप्त निजी विश्वविद्यालय हैं. इन निजी विश्वविद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता क्या है, इसके बारे में रिपोर्ट में कुछ भी नहीं लिखा. मुझे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का एक वक्त तक सदस्य रहने का अनुभव हासिल है और इस अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि शिक्षा की घटिया दर्जे की इन दुकानों से खुद शिक्षा का ही नाम कलंकित होता है. सो, विश्वविद्यालयों की ये बढ़वार कोई अच्छी खबर नहीं.
जहां तक उच्च शिक्षा के संस्थानों में छात्रों के दाखिले का सवाल है, कुल 3.74 करोड़ युवाओं ने इन संस्थानों में एक ना एक किस्म के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया है. लेकिन अगर नियमित रुप से पढ़ाई की मांग करने वाले पाठ्यक्रम का ख्याल रखें और पल भर के लिए दूरस्थ शिक्षा (डिस्टेंस एजुकेशन) के नाम पर चलने वाले मजाक को भूल जायें तो फिर ऐसे कोर्स में दाखिला लेने वाले छात्रों की तादाद घटकर 3.34 करोड़ ही रह जाती है. अब ये आंकड़ा भी बहुत असरदार लग सकता है लेकिन यहां हमें बस इतना भर याद करने की जरुरत है कि देश में 18 साल से 23 साल की उम्र के युवाओं की जितनी संख्या है उसका मात्र 26 फीसद हिस्सा ही उच्च शिक्षा के संस्थानों में दाखिला पा सका है. इसका मतलब हुआ कि युवाओं की जिस तादाद को उच्च शिक्षा के संस्थानों में अभी होना चाहिए उसका तीन चौथाई हिस्सा अभी इन संस्थानों में नहीं है. उच्च शिक्षा के हमारे संस्थान साल में तकरीबन 1 करोड़ (ठीक-ठीक कहें तो 90.92 करोड़) डिग्रियां बांटते हैं. इनमें से ज्यादातर तादाद (करीब 65 लाख) स्नातक स्तर की डिग्री पाने वाले छात्रों की होती है. स्नातक स्तर की डिग्री पाने वाले अधिककर विद्यार्थियों को ज्ञान, जीवन-यापन के हुनर या रोजगार पा सकने लायक कोई और कौशल बहुत कम हस्तगत हो पाता है. यों हमारे देश का आकार बड़ा विशाल है लेकिन यहां 2 लाख से भी कम एम.फिल या पी.एचडी डिग्रीधारी सालाना विश्वविद्यालयों से निकलते हैं- सो विद्यार्थियों की बस इतनी छोटी सी तादाद के बारे में एक हद तक माना जा सकता है कि उन्हें शोध-कार्य का कुछ हुनर मालूम है. जाहिर है, हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था के आगे चुनौती दोहरी है, छात्रों की संख्या बढ़ानी है और शिक्षा की गुणवत्ता भी.
रिपोर्ट की एक अच्छी बात ये है कि उसमें उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला लेने वाले छात्रों और पढ़ाने वाले शिक्षकों की सामाजिक पृष्ठभूमि का उल्लेख है. रिपोर्ट से जाहिर होता है कि उच्च शिक्षा के संस्थानों में कम से कम तादाद के लिहाज से स्त्री और पुरुष के बीच का अन्तर घटता जा रहा है. उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लेने वाले छात्रों में लगभग 49 फीसद संख्या महिलाओं की है. लेकिन दाखिला लेने वाले कुल छात्रों के लिहाज से देखें तो असल संकट अनुसूचित जाति (आबादी में अनुपात 16 प्रतिशत, छात्रों का दाखिला 14.9 प्रतिशत) या अनुसूचित जनजाति (आबादी में तादाद 8 प्रतिशत, छात्रों का दाखिला 5.5 प्रतिशत) में नहीं बल्कि मुस्लिम आबादी के लिहाज से नजर आता है. मुस्लिम समुदाय के छात्रों का उच्च शिक्षा के संस्थानों में दाखिला महज 5.2 फीसद है जबकि पिछली जनगणना के मुताबिक मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या देश की आबादी में 14.2 प्रतिशत थी. सो, इस समुदाय के जितने लोगों का दाखिला कायदे से उच्च शिक्षा संस्थानो में होना चाहिए फिलहाल उसके एक तिहाई हिस्से को ही ये सौभाग्य हासिल है.
यही स्थिति शिक्षकों के मामले में भी है जहां अनुसूचित जाति (शिक्षकों की तादाद 8.5 प्रतिशत) तथा अनुसूचित जनजाति ( उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की संख्या 2.3 प्रतिशत) के शिक्षकों की तादाद आरक्षण की अनिवार्य व्यवस्था लागू होने के बावजूद बहुत कम है. साथ ही, शिक्षा के मामले में अवसरों की समानता के मोर्चे पर चुनौती बदस्तूर बरकरार है.
शिक्षित बेरोजगार
अब जरा ऊपर के आंकड़ों का मिलान बेरोजगारी पर केंद्रित सीएमआइई की नई रिपोर्ट के तथ्यों से कीजिए. सीएमआइई की हाल की रिपोर्ट मई-अगस्त 2019 की अवधि के लिए है और इसका एक संकेत है कि इस अवधि में बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ते हुए मई माह के 7.03 प्रतिशत से बढ़कर अगस्त माह में 8.19 फीसद जा पहुंची है. ( सीएमआइई ने बेरोजगारी दर का आकलन जिस पद्धति से किया है वह नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस द्वारा अपनायी जाने वाली पद्धति से तनिक अलग है, सो दोनों के बेरोजगारी दर से संबंधित आंकड़े के बीच आपको कुछ अन्तर दिखेगा). अब बेरोजगारी दर के इस आंकड़े की तुलना जरा अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकड़े से करें जिसमें बताया गया है कि वैश्विक स्तर पर बेरोजगारी दर 4.95 प्रतिशत है. जाहिर है, भारत में बेरोजगारों की तादाद वैश्विक स्तर पर मौजूद बेरोजगारी दर से बहुत ज्यादा है.
यहां गौर करने की एक बात ये भी है कि ज्यों-ज्यों शिक्षा का स्तर बढ़ता दिखता है, आंकड़ों में बेरोजगारी दर में भी बढ़ती के रुझान हैं. अशिक्षित अथवा प्राथमिक स्कूल के स्तर तक शिक्षा प्राप्त लोगों में बेरोजगारी नाम-मात्र को है. और, इसकी बड़ी वजह है कि ऐसे लोग बिना रोजगार के अपना जीवन चंद रोज भी नहीं चला सकते. स्नातक स्तर या इससे ज्यादा ऊंची शिक्षा प्राप्त लोगों के बीच बेरोजगारी की दर 15 फीसद है यानि राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद बेरोजगारी दर से दोगुना ज्यादा.
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अब चाहे किसी भी पैमाने पर देखें, भारत में शिक्षित बेरोजगारों की तादाद बड़ी विकराल मानी जायेगी. सीएमआइई की रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में स्नातक स्तर की शिक्षा प्राप्त लोगों की तादाद 10 करोड़ से तनिक ज्यादा है और इनमें 6.3 करोड़ लोग श्रम-बल में शामिल हैं यानि 6.3 करोड़ स्नातक युवाओं के बारे में माना जा सकता है कि वे रोजगार के लिए तैयार हो चुके हैं और जीविका कमाने का जरिया ढूंढ़ रहे हैं. इनमें 5.35 करोड़ को एक ना एक किस्म की जीविका का जरिया हासिल है. सो, अब बचती है तकरीबन एक करोड़ (कुल 94 लाख) तादाद स्नातक स्तर या इससे ज्यादा की शिक्षा हासिल कर चुके ऐसे लोगों की जिनके हाथ में कोई रोजगार नहीं. इनमें से ज्यादातर युवा हैं. सीएमआइई के ही सर्वेक्षण में यह भी लिखा मिलता है कि उच्च शिक्षा हासिल करने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ रही है और महिलाओं में बेरोजगारी की दर 17.6 प्रतिशत है यानि पुरुषों के बीच मौजूद बेरोजगारी दर (6.1 प्रतिशत) के दोगुना से भी ज्यादा. सो, बेरोजगारी के लिहाज से देखें तो फिर उच्च शिक्षा के संस्थानों में महिलाओं की बढ़ती हुई संख्या आगे को सरकार के लिए चिन्ता का एक बड़ा सबब बनकर उभर सकती है.
भीतर से खौलते ज्वालामुखी के मुहाने पर
अब जरा दोनों रिपोर्ट को एक साथ मिलाकर देश की तस्वीर बनाइये तो नजर आयेगा कि हमलोग भीतर से खौलते हुए एक ऐसे ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं जो किसी भी क्षण फट सकता है. शिक्षित युवाओं की कुल तादाद का छठा हिस्सा बेरोजगारी के चंगुल में है. और, लगभग 1 करोड़ की संख्या में मौजूद बेरोजगारों की तादाद में हम सालाना 1 करोड़ ऐसे युवाओं की तादाद और जोड़ रहे हैं जो उच्च शिक्षा के संस्थानों से कोई ना कोई डिग्री लेकर निकलते हैं. रोजगार की तलाश करते इन युवाओं में महिलाओं की संख्या अब पहले की तुलना में बहुत ज्यादा है. साथ में, ये भी सोचिए कि इन युवजन को एक तो रोजगार हासिल नहीं है दूसरे इनमें ज्यादातर को ऐसा हुनर भी हासिल नहीं कि जो उनको रोजगार के काबिल माना जा सके. बेरोजगारी के इस उभरते हुए मंजर में जरा अब आर्थिक मंदी के रंग चढ़ाकर देखिए और आप साफ दिखेगा कि देश एक ऐसे ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है जो कभी फट सकता है. नये ग्रेजुएटस् को नौकरी पर रखने की बात कौन कहें यहां तो आलम ये है कि कंपनियां अपने मौजूदा कर्मचारियों की छंटनी करने पर लगी हैं. सो, स्नातक की डिग्री लेकर निकले, हुनर से खाली मगर महत्वाकांक्षा से भरे हमारे ये नये-नवेले एक ऐसे बाजार में खड़े हैं जहां उनका स्वागत करने के लिए कोई तैयार ही नहीं.
ऐसी ही स्थिति में दुनिया के कई हिस्सों में सड़कों पर दंगे हुए हैं और सामाजिक तनाव के मंजर देखने पड़े हैं. बेरोजगारी के मोर्चे पर संगीन होती जा रही हालत को सुधारने की कोशिश करने की जगह हमलोग ध्यान भटकाने की हर जुगत आजमाने में लगे हैं. हमें तीन तलाक की चिन्ता सता रही है, कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाने-बताने की चिन्ता सता रही है, चंद्रयान को चंद्रमा पर पहुंचाने और हाऊडी मोदी की फिक्र में हम बेचैन हो रहे हैं! वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण अखबार में सुर्खियां बटोरने और कारपोरेट जगत की खुशामद में लगी हैं. ये सब तो हो रहा है लेकिन ऐसा कुछ सुनायी नहीं दे रहा जो लगे कि हम शिक्षित बेरोजगारी की विकराल होती स्थिति पर लगाम कसने के लिए कुछ कर रहे हैं. क्या हम इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि ज्वालामुखी का मुहाना एकबारगी फट जाये ? या फिर ये वक्त नौजवानों से ‘हाऊडी’(उनका कुशल-क्षेम पूछने) बोलने का है ?
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(लेखकराजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)