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Friday, 22 November, 2024
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अमित शाह की ‘राजनीति की पाठशाला’ जेल ही शायद विपक्ष को आलस तोड़ने को मजबूर करेगी

काहिल विपक्ष बिना कुछ किए सब कुछ पा लेना चाहता है. वह अपने आरामदेह घरों और दफ्तरों में बैठे-बैठे, यूरोप की सैर का मज़ा लेते हुए चाहता है कि मीडिया उसके पास आए और विपक्ष की भूमिका निभाए.

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आखिर विपक्ष इतना बेजान क्यों है? यह सवाल किसी विपक्षी नेता से पूछिए तो वह इसके लिए सीधे मीडिया को कोसने लगेगा, ‘हम कुछ भी करते हैं तो मीडिया उसे दिखाती ही नहीं है.’ यानी, वे इन दिनों बहुत कुछ नहीं कर रहे हैं.

उनकी यह शिकायत गैरवाजिब भी नहीं है. टीवी न्यूज तो जबर्दस्त ताकत रखती ही है, और ज़्यादातर टीवी समाचार चैनेल सरकारी भोंपू बन गए हैं. ज़्यादातर भारतीयों के लिए यह याद कर पाना मुश्किल है कि भारतीय मीडिया कभी इस तरह शासक दल के खुल्लमखुल्ला प्रोपेगेंडा का औज़ार बनी हो. मास मीडिया तो संदेश को करोड़ों लोगों तक पहुंचा देती है. जब यह विपक्ष की अनदेखी करती है तब हम यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि विपक्षी दलों के पास जनता के बीच अपनी बात पहुंचाने का क्या कोई और जरिया नहीं हो सकता? उनके कार्यकर्ता, उनके काडर, उनकी छोटी-छोटी पत्रिकाएं आदि कहां हैं? पर्चों और दीवारों पर संदेश लिखने की संस्कृति कहां लुप्त हो गई?

ज़्यादातर भारतीय मीडिया अपने स्वभाव से ही सत्ता-मुखी रही है- कभी कम, कभी ज्यादा. उसे सत्ता का पलड़ा जिधर भारी दीखता है, कई नेताओं और व्यवसायियों की तरह वह भी उधर का ही रुख कर लेती है. यही हाल अपने एलीट क्लास का है. इसी तरह भारतीयों ने ब्रिटिश राज को यहां जमने में मदद की थी.

विपक्ष अगर जमीन पर काम कर रहा होता और यह एहसास पैदा कर पाता कि जमीन खिसक रही है, तो मीडिया ने भी स्वतः उसे गंभीरता से लिया होता. विपक्ष अगर पर्दे से गायब हो रहा है तो सिर्फ इसलिए नहीं कि मीडिया का मोदीकरण हो गया है, बल्कि इसलिए कि वह खुद जमीन पर कुछ खास कर नहीं रहा है. उसे यह नहीं पता चल रहा कि वह क्या कहना चाहता है और कैसे कहना चाहता है.

मसलन बेरोजगारी को ही लीजिए. पिछले दो-तीन साल से हर सर्वे कह रहा है कि यह भारतीयों के लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण है. यह मसला केंद्र और राज्य, दोनों की राजनीति को प्रभावित करता है और जातिगत आरक्षण के लिए आंदोलनों के रूप में प्रकट होता रहता है. विपक्ष सोचता है कि इस मसले को वह केवल ट्वीट करके, टीवी चैनेलों को अपनी बाइट देने के लिए बुला कर ही उठा सकता है. टीवी चैनल बाइट रेकार्ड कर भी लेते हैं तो उसे प्रायः चलाते नहीं.
तो यही हाल है, और अपने विपक्षी नेताओं की राजनीति इसी तरह चल रही है.

खबर में कोई खबर नहीं

विपक्ष स्मार्ट होता तो बेरोजगारी के मसले का हल पेश करता, रोजगार कैसे पैदा हो इसके लिए युवाओं के साथ बैठकें करता, सकारात्मक अभियान चलाता जिससे यह धारणा बनती कि रोजगार कैसे पैदा हो सकता है. यह केवल विपक्ष को ही मालूम है. विपक्ष स्मार्ट होता तो वह स्टार्ट-अप वालों और छोटे उद्योगपतियों के साथ एक के बाद एक कॉन्क्लेव करता और युवाओं तथा उद्योग जगत के बीच संवाद शुरू कराता, और इस तरह मीडिया का ध्यान अपने अभियान की ओर आकर्षित करता. ऐसे अभियान में लाखों बेरोजगार युवा अपने सीवी प्रधानमंत्री को भेजते और इसकी तस्वीर सोशल मीडिया पर जारी कर सकते थे. ट्वीट और बाइट से अभियान नहीं बनते. इनसे केवल किसी अभियान का प्रचार हो सकता है. अगर विपक्ष यह कह रहा है कि बेरोजगारी बहुत बढ़ गई है, तो वह कोई नई बात नहीं बता रहा है. उसकी बाइट में खबर बनने लायक कुछ नहीं है.

काहिल विपक्ष बिना कुछ किए सब कुछ पा लेना चाहता है. वह अपने आरामदेह घरों और दफ्तरों में बैठे-बैठे, यूरोप की सैर का मज़ा लेते हुए चाहता है कि मीडिया उसके पास आए और विपक्ष की भूमिका निभाए.


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कांग्रेस पार्टी ने 12 सितंबर को घोषणा की कि वह आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के मसलों पर 15 से 25 अक्टूबर तक देशभर में आंदोलन चलाएगी. जाहिर है, यह नरेंद्र मोदी को अपनी तैयारी के लिए एक महीने से ज्यादा का वक़्त देती है. इस आंदोलन से कुछ होने वाला नहीं है. टीवी चैनेल कांग्रेस पर हमले करेंगे, कुछ चैनल चंद तस्वीरें दिखा देंगे, और फिर हर कोई अपने-अपने घर चल देगा. उसका लक्ष्य सही नहीं है, कांग्रेस मीडिया में जगह बनाना चाहती है, मतदाताओं के दिमाग में नहीं. और दोनों में प्रायः फर्क रहता है.

कांग्रेस का दावा है कि पी चिदंबरम और डीके शिवकुमार को राजनीतिक प्रतिशोध के लिए गिरफ्तार किया गया है, कि वे दोनों बेकसूर हैं. जरा गौर कीजिए, उसने इन दोनों के समर्थन में एक भी प्रदर्शन नहीं किया है. सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को चिदंबरम से जेल में जाकर मिलने में एक महीना लग गया. जाहिर है, सामने खड़ी समस्या की गंभीरता की न तो समझ है, और न उससे तुरंत निपटने की कोई फिक्र है.

बहाने ही बहाने

विपक्षी नेताओं की यह भी शिकायत रही है कि वे भाजपा के साधनों का मुक़ाबला नहीं कर सकते. एक बार फिर यह कहा जा सकता है कि लोगों को अगर यह भरोसा हो जाएगा कि वे कुछ कर सकते हैं, तो लोग उन्हें पैसे भी देंगे. जो घोड़ा रेस हारने वाला हो उस पर पैसा कौन लगाएगा? एक बहाना और बनाया जाता है- लोग विपक्ष के साथ नहीं हैं. नोटबंदी से लेकर अनुच्छेद 370 तक, एक सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर दूसरे तक, मोदी ने लोकलुभावन कदमों की बरसात कर दी. इस तरह लोगों के दिमाग में विपक्ष के लिए जगह बची नहीं. कई लोग और आगे बढ़कर यह भी कहते हैं कि तमाम हिन्दू कट्टर हिंदुत्ववादी हो गए हैं और सेकुलर राजनीति के लिए जगह नहीं बची है.

मुश्किल यह है कि विपक्ष वैकल्पिक कार्यक्रम लेकर जनता के बीच जाता नहीं है और फिर शिकायत करता है कि जनता उसके साथ नहीं है. अगर तमाम हिन्दू कट्टर हिंदुत्ववादी हो गए हैं और मोदी को हिंदू हृदय सम्राट मानते हैं तो 2019 में भाजपा को केवल 37 फीसदी ही वोट क्यों मिले? भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को केवल 45 फीसदी वोट क्यों मिले, कम-से-कम 75 फीसदी वोट क्यों नहीं मिले? अगर मतदाता हिन्दुत्व के रंग में इतने रंग गए हैं कि अपनी नौकरी गंवाने की भी फिक्र नहीं करते, तो उन्होंने राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, बिहार और कर्नाटक में भाजपा को सत्ता क्यों नहीं सौंपी?


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सारे बहाने इसलिए हैं कि विपक्ष कड़ी मेहनत करना नहीं चाहता. लेकिन अब एक नई समस्या खड़ी हो गई है. चिदम्बरम और शिवकुमार की गिरफ्तारी के बाद विपक्ष को भारी डरावना संकेत मिल गया है. मोदी विपक्षी नेताओं को केवल अग्रिम जमानत लेने के लिए या उन्हें ईडी, सीबीआई, आयकर विभाग से निपटने के लिए वकीलों के पास दौड़ने के लिए मजबूर करके ही शांत नहीं बैठने वाले हैं. जांच एजेंसियों के रूप में भाजपा के ये हाथ-पैर विपक्षी नेताओं को जेल में बंद करने वाले हैं. इस डर से ये नेता भूमिगत हो रहे हैं. अब तो वे बाइट देने को भी आगे नहीं आ रहे. लेकिन वे समझ नहीं पा रहे कि उनका डरपोकपन ही उन्हें जेल में भेज सकता है. सरकार को अगर यह लगे कि इन नेताओं को जेल में डालना उन्हें शहीद का दर्जा दे सकता है, तो वह ऐसा करने से बचेगी. लेकिन नेता का जब जनाधार नहीं होता, जब राजनीति करने वाला असल में नेता नहीं होता, जब नेता अपने समर्थकों को खो देता है तब सरकार उससे डरना छोड़ देती है.

हमारे काहिल, सुविधाभोगी, वंशवादी विपक्षी नेताओं को राजनीति की पाठशाला मानी जाने वाली जेल में कुछ समय बिताकर शायद फायदा ही होगा. अमित शाह ने अगर उन सबको जेल में कुछ समय के लिए रहने को मजबूर कर दिया तो वे जेल और भारतीय किस्म के संडास का डर भूल जाएंगे. वे जेल में चापलूसों की जगह, जिनसे वे हमेशा घिरे रहते हैं, कुछ असली लोगों से बात कर पाएंगे. उन्हें आत्मग्लानि और क्रोध भी होगा, जो उन्हें जवाबी कार्रवाई करने की ऊर्जा देगा. यह उन्हें एकजुट भी करेगा. इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में जैसा हुआ था उस तरह विपक्ष को कुछ समय जेल में रहने की जरूरत है ताकि वे वास्तविकता से रू-ब-रू हों, और एक हो जाएं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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