scorecardresearch
Wednesday, 1 October, 2025
होमराजनीतिहरियाणा में जाट-ओबीसी जोड़ी ने ली जाट-दलित नेतृत्व की जगह — कांग्रेस का बड़ा दांव

हरियाणा में जाट-ओबीसी जोड़ी ने ली जाट-दलित नेतृत्व की जगह — कांग्रेस का बड़ा दांव

18 साल में पहली बार हरियाणा कांग्रेस ने दलितों को नेतृत्व से किया बाहर, राहुल गांधी की 'सामाजिक न्याय' वाली सोच पर उठे सवाल.

Text Size:

गुरुग्राम: हरियाणा कांग्रेस ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा को कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) का नेता और राव नरेंद्र सिंह को हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी (एचपीसीसी) का अध्यक्ष बनाकर बड़ा बदलाव किया है. अब तक पार्टी के शीर्ष पदों पर जाट-दलित नेताओं की जोड़ी रहती थी, लेकिन इस बार जाट-ओबीसी नेतृत्व की जोड़ी सामने आई है.

करीब दो दशक—सटीक कहें तो 18 साल में पहली बार हरियाणा कांग्रेस नेतृत्व में कोई दलित चेहरा नहीं होगा. 2007 से अब तक कांग्रेस में नेता विपक्ष/मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का पद जाट-दलित जोड़ी के पास रहा है.

2024 के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने हुड्डा और उदय भान की जाट-दलित जोड़ी पर भरोसा जताया था. पार्टी को उम्मीद थी कि 10 साल विपक्ष में रहने के बाद अब वह सत्ता में वापसी करेगी, लेकिन नतीजे ने न सिर्फ हरियाणा कांग्रेस बल्कि हाईकमान को भी चौंका दिया.

इसके बाद पार्टी को लगभग एक साल लगा दोनों पदों पर नए नेताओं की नियुक्ति करने में. सोमवार को नए जाट-ओबीसी नेतृत्व की घोषणा हुई.

हरियाणा कांग्रेस में जाट-दलित जोड़ी की शुरुआत 7 अगस्त 2007 को हुई थी, जब फूलचंद मुलाना को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. 2006 में भजनलाल के इस्तीफे के बाद यह पद खाली पड़ा था. 2007 में भजनलाल ने अपनी पार्टी ‘हरियाणा जनहित कांग्रेस’ बना ली. मुलाना के समय से ही हुड्डा सीएलपी नेता और मुख्यमंत्री बने रहे, जो अक्टूबर 2014 तक पद पर रहे.

इसके बाद 14 फरवरी 2014 को कांग्रेस ने सिरसा से सांसद और दलित नेता अशोक तंवर को मुलाना की जगह प्रदेश अध्यक्ष बनाया. तंवर का कार्यकाल 5 साल और 202 दिन तक चला.

2014 में हुड्डा के सीएलपी नेता पद से हटने के बाद जाट नेता किरण चौधरी ने 2014 से 2019 तक पद संभाला और जाट-दलित जोड़ी कायम रही.

फिर 4 सितंबर 2019 को दलित नेता कुमारी सैलजा ने तंवर की जगह ली और उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में हुड्डा सीएलपी नेता और नेता विपक्ष बने. यानी जाट-दलित जोड़ी बनी रही.

27 अप्रैल 2022 को दलित नेता उदय भान ने सैलजा की जगह ली और 2024 लोकसभा व विधानसभा चुनाव तक यह जोड़ी बनी रही.

सेंटर फॉर स्टडी ऑन डेमोक्रेटिक सोसाइटीज़ (CSDS)-लोकनीति के आंकड़ों के मुताबिक 2024 में हरियाणा के अनुसूचित जाति वोटर भाजपा (40%) और कांग्रेस (42%) में बंटे. विधानसभा चुनाव में 17 एससी-आरक्षित सीटों में से भाजपा ने 8 जीतीं, जबकि कांग्रेस ने 9 सीटें हासिल कीं.

इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बेहतर प्रदर्शन किया. भाजपा के ‘400 पार’ नारे का मुकाबला उसने संविधान खतरे में होने के मुद्दे से किया और दलित वोट का 68% अपने पक्ष में कर लिया. भाजपा को सिर्फ 24% दलित वोट मिले.

लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा सरकार ने दलितों की उप-श्रेणियां बनाकर सबसे गरीब वर्ग, खासकर वाल्मीकि समुदाय को साधने की कोशिश की, इससे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के दलित वोट बैंक को कड़ी टक्कर मिली.

राज्य की आबादी में 20-21% हिस्सेदारी रखने वाले दलित अब तक कांग्रेस की राजनीति का अहम स्तंभ रहे हैं, लेकिन अब इसमें दरारें दिखने लगी हैं.


यह भी पढ़ें: हुड्डा फिर से हरियाणा में विपक्ष के नेता बने, पूर्व मंत्री नरेन्द्र सिंह बने नए राज्य कांग्रेस अध्यक्ष


हरियाणा कांग्रेस नेतृत्व में दलित नदारद

कांग्रेस के शीर्ष पदों पर जाट-ओबीसी जोड़ी 47 साल बाद पहली बार बनी है. पिछली बार यह फार्मूला दिसंबर 1972 से जुलाई 1977 तक चला था. उस समय ओबीसी नेता राव निहाल सिंह प्रदेश अध्यक्ष थे और जाट नेता बंसीलाल सीएलपी लीडर थे. बंसीलाल 1968 से 1975 तक इस पद पर बने रहे.

इस साल पहली बार हरियाणा कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष ओबीसी नेता होगा. हालांकि, कांग्रेस का कभी भी कोई ओबीसी मुख्यमंत्री नहीं रहा.

1967 में राव बीरेंद्र सिंह 241 दिन के लिए मुख्यमंत्री रहे थे, लेकिन वे अपनी ‘विशाल हरियाणा पार्टी’ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.

कांग्रेस के इस फैसले से दलितों को पार्टी के शीर्ष पदों से पूरी तरह बाहर कर दिया गया है. फिलहाल हरियाणा की किसी भी पार्टी में दलित नेता शीर्ष पद पर नहीं है.

हरियाणा कांग्रेस में जाट-ओबीसी जोड़ी बनाना इसलिए भी चौंकाता है क्योंकि लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी राजनीति में सक्रिय होने के बाद से लगातार दलित नेताओं को आगे लाने की वकालत करते रहे हैं. 2010 में वे मिर्चपुर भी पहुंचे थे, जहां जाट समुदाय द्वारा दलितों पर हमले हुए थे. उस समय कांग्रेस के सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा थे और राहुल की यात्रा ने उन्हें असहज कर दिया था.

राजनीतिक विश्लेषक ज्योति मिश्रा, जो अमिटी यूनिवर्सिटी मोहाली में राजनीति विज्ञान की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, ने दिप्रिंट को बताया कि कांग्रेस हाईकमान ने राव नरेंद्र सिंह को एचपीसीसी अध्यक्ष बनाकर भाजपा की ओबीसी राजनीति की लाइन अपनाई है, लेकिन शायद उसने इसके नुकसान का ठीक से आकलन नहीं किया.

मिश्रा ने कहा, “यह फैसला पार्टी में उस दलित धागे को काट देता है, जिसे राहुल गांधी ने सालों से मेहनत से बुना है. 2007 से पहले भी दलितों की हिस्सेदारी बेहद कम थी.”

27 अगस्त 2007 को फूलचंद मुलाना के प्रदेश अध्यक्ष बनने से पहले कांग्रेस के पास सिर्फ एक बार दलित अध्यक्ष रहा—कुमारी सैलजा के पिता दलबीर सिंह, जिन्होंने 3 नवंबर 1979 से 10 जून 1980 तक 220 दिन तक पद संभाला था.

हरियाणा में अब तक कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं बना है.

राजनीतिक विश्लेषक कुशल पाल, जो इंदिरा गांधी नेशनल कॉलेज, लाडवा के प्रिंसिपल हैं, ने दिप्रिंट को बताया कि भले ही राव नरेंद्र सिंह को अध्यक्ष बनाने का फैसला भाजपा से सीख लेने जैसा लगता है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह मजबूरी भी थी क्योंकि पार्टी का ओबीसी वोट बैंक लगभग खत्म हो चुका है.

पाल ने कहा, “ओबीसी समुदाय—यादव, गुज्जर, सैनी, कम्बोज से दूरी की वजह से कांग्रेस ने दक्षिण हरियाणा, यानी गुरुग्राम, फरीदाबाद, पलवल, रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ में अपना आधार लगभग पूरी तरह खो दिया है. सिर्फ नूंह ऐसा जिला है जहां पार्टी जीत पाती है और वह भी इसलिए कि मेव मुस्लिम भाजपा को वोट नहीं देते.”

पाल के मुताबिक राव नरेंद्र सिंह की ताजपोशी से हुड्डा को निजी फायदा भी होगा. उनके बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा की रोहतक लोकसभा सीट में कोसली विधानसभा क्षेत्र आता है. यहां राव नरेंद्र सिंह की आहीर बिरादरी के वोटरों की अच्छी-खासी संख्या है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: हरियाणा में लागू हुई लाडो लक्ष्मी योजना, लेकिन लाभ पाने की शर्तें BJP के संकल्प पत्र से काफी अलग


 

share & View comments