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Tuesday, 30 September, 2025
होमफीचररॉयल्टी विवाद ने हिंदी प्रकाशनों की खोली पोल, 88 साल में आखिरकार विनोद कुमार शुक्ल को मिला उनका हक

रॉयल्टी विवाद ने हिंदी प्रकाशनों की खोली पोल, 88 साल में आखिरकार विनोद कुमार शुक्ल को मिला उनका हक

हिंदी लेखकों के लिए, जो लंबे समय से अस्पष्ट रॉयल्टी स्टेटमेंट से निराश थे, विनोद कुमार शुक्ल की 30 लाख रुपये की रॉयल्टी एक मिसाल और चुनौती दोनों बन गई है.

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नई दिल्ली: मशहूर लेखक विनोद कुमार शुक्ल ने 2022 में एक बड़ा आरोप लगाया था कि उनके पुराने प्रकाशकों ने उन्हें धोखा दिया. यह आरोप साहित्य की दुनिया में आम तौर पर खुले में नहीं बोलते हैं. जब अभिनेता-लेखक मानव कौल ने इसे इंस्टाग्राम पर पोस्ट किया, तो वीडियो वायरल हो गई. ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता शुक्ल ने कहा था: “मुझे धोखा दिया गया.” उनका गुस्सा हिंदी प्रकाशन के पुराने नामों — राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन पर था. उन पर बिक्री के आंकड़े छुपाने और शुक्ल को उनकी रॉयल्टी न देने का आरोप था.

तीन साल बाद कहानी ने नया मोड़ लिया है. शुक्ल को हाल ही में रायपुर में 30 लाख रुपये का चेक मिला. यह रकम उनके पुराने प्रकाशकों से नहीं, बल्कि हिंद युग्म से आई, जो एक दशक पुराना प्रकाशक है और सोशल मीडिया और डिजिटल मार्केटिंग के जरिए लोकप्रिय है. हिंद युग्म का कहना है कि यह 30 लाख सिर्फ उनके उपन्यास “दीवार में एक खिड़की रहती थी” की छह महीने की रॉयल्टी है, जिसमें इस दौरान 86,000 से ज्यादा प्रतियां बिकी हैं.

उपन्यास “दीवार में एक खिड़की रहती थी” रघुवर प्रसाद और उनकी पत्नी सोंसी की रोज़मर्रा की ज़िंदगी की कहानी है, जिसमें सादगी, हल्का हास्य और प्रेम के साथ दिनचर्या पर चिंतन है. इसकी शैली पाठकों को बहुत पसंद आई और ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद इसकी लोकप्रियता और बढ़ गई.

88 साल के शुक्ल, जो रायपुर में अपने बेटे के साथ रहते हैं, के लिए यह पल खास था. यह एक तरह से न्याय भी था और यह दिखाने का मौका भी कि हिंदी प्रकाशन की दुनिया बदल रही है. उन्होंने 20 सितंबर 2025 को रायपुर में हुए घुमंतु साहित्य उत्सव में कहा: “मेरी किताबें पहले भी पढ़ी जाती थीं और अब भी पढ़ी जा रही हैं. फर्क यह है कि अब यह पढ़ने वाला वर्ग दिखाई देने लगा है.”

इस बड़ी रकम ने हिंदी लेखकों के बीच हलचल मचा दी है. कई लेखक अब भी कहते हैं कि पुराने प्रकाशक बिक्री का डेटा पारदर्शी नहीं रखते. उन्हें यह पता नहीं चलता कि उनकी किताबें कितनी बिक रही हैं और उन्हें कितनी रॉयल्टी मिलनी चाहिए.

जहां कई लेखक शुक्ल को मिली रॉयल्टी का जश्न मना रहे हैं, वहीं यह हिंदी साहित्य में हल्का खिंचाव भी ला रहा है. शुक्ला का उपन्यास 30 साल पहले आया था, लेकिन अब अचानक लोकप्रिय हो गया और हर महीने हजारों प्रतियां बिक रही हैं. बड़ा सवाल यह है कि हिंद युग्म जैसे छोटे प्रकाशक यह कैसे कर पाए जबकि बड़े नाम जैसे राजकमल प्रकाशन नहीं कर पाए? इसका जवाब सोशल मीडिया, डिजिटल मार्केटिंग, आक्रामक प्रचार और पारदर्शी अनुबंध में छिपा है, जो हिंदी प्रकाशन को नया आकार दे रहे हैं.

पुराने, अपारदर्शी रॉयल्टी बयानों से निराश लेखकों के लिए शुक्ल को मिले 30 लाख रुपये अब उम्मीद भी हैं और चुनौती भी. यह दिखाता है कि हिंदी किताबें बिक सकती हैं, लेकिन पुरानी व्यवस्था ने इसे संभव करने में बहुत कम किया.

हिंद युग्म के संस्थापक शैलेश भारतवासी ने कहा, “जब यह किताब हमारे पास आई, तब कम मार्केटिंग के बावजूद दिसंबर 2024 तक अमेजन की टॉप 30 में रही. विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद इसकी बिक्री में जबरदस्त उछाल आया. तब से यह लगातार बेस्टसेलर सूची में नंबर वन बनी हुई है.”

शुक्ल ने दिप्रिंट से कहा,  “मैं यह जोर देकर कहना चाहता हूं कि सिर्फ भारतभर के पाठकों की वजह से मैं यहां खड़ा हूं और हिंद युग्म के ज़रिए ही मैं इस मुकाम तक पहुंच पाया हूं. पहली बार मुझे लगा कि मेरी किताबें ऐसे प्रकाशक के जरिए पाठकों तक पहुंच रही हैं, जिसमें ईमानदारी और सच्चाई है.”

रॉयल्टी का मामला

घुमंतु साहित्य उत्सव पिछले चार साल से हर साल आयोजित हो रहा है — पहले बाड़मेर, भोपाल और बनारस में. इस साल रायपुर को चुना गया और इस मौके पर विनोद कुमार शुक्ल की सफलता को खास तौर पर सामने रखा गया.

हिंद युग्म के संस्थापक शैलेश भारतवासी ने कहा, “कुछ महीने पहले मैंने कहा था कि शुक्ल जी को इस साल 30–50 लाख रुपये की रॉयल्टी मिलेगी, लेकिन किताब इतनी तेज़ी से बिकी कि सितंबर तक ही यह आंकड़ा पहुंच गया. उस समय कई लोगों ने मुझ पर विश्वास नहीं किया. इसलिए हमने इसे सार्वजनिक किया — ताकि दिखा सकें कि यह संभव है और बिल्कुल सच है.”

कई सालों तक प्रकाशक अपने लेखकों से सही बिक्री का डेटा नहीं साझा करते थे. भारतवासी ने बताया कि हिंद युग्म भी 2021 तक सिर्फ सतही आंकड़े देता था, लेकिन अब नए सॉफ्टवेयर के जरिए कंपनी अपने लेखकों को पूरी बिक्री की जानकारी देती है.

उन्होंने कहा, “हम बताते हैं कि उनकी किताब कब बिकी, किस सप्लायर को गई और कितनी प्रतियां बिकीं. आने वाले समय में हम अपने लेखकों के लिए एक अलग पोर्टल भी शुरू करेंगे, जहां वे सीधे अपनी बिक्री देख सकेंगे.”

अन्य प्रकाशक भी मानते हैं कि आज पाठक ज्यादा किताबें खरीद रहे हैं और बिक्री मजबूत है.

अनबाउंड स्क्रिप्ट के संस्थापक अलिंद माहेश्वरी ने कहा: “हिंदी प्रकाशन में यह पहली बार नहीं हुआ है. पहले भी कुछ किताबें महीने में सैकड़ों-हज़ारों में बिक चुकी हैं. कई पहले संस्करण 2,00,000 प्रतियों के रहे हैं, उस समय प्रचार के साधन आज जैसे तेज़ नहीं थे.”

उन्होंने बताया कि ज्यादातर हिंदी किताबें धीरे-धीरे बिकीं और समय के साथ रफ्तार पकड़ी. “दीवार में एक खिड़की रहती थी निश्चित रूप से पिछले दो-तीन दशकों की सबसे तेज़ बिकने वाली किताबों में है. डिजिटल प्लेटफॉर्म ने इसे और तेज़ कर दिया है.”

भारतवासी ने कहा कि किताबों की बिक्री सिर्फ लेखक और प्रकाशक ही नहीं बढ़ा रहे, इंटरनेट ने भी पूरी तरह बदल दिया है कि किताबें पाठकों तक कैसे पहुंचती हैं.

उन्होंने बताया कि असली बदलाव नए पाठकों के बनने में है. “पिछले एक दशक में हमने नए पाठकों की एक बड़ी फौज तैयार की है. 2014–15 में लोग दिव्य प्रकाश दुबे और सत्य व्यास जैसे लेखकों को पढ़ना शुरू कर रहे थे. अब वही पाठक विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ रहे हैं. कोई ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि कौन-सी मार्केटिंग रणनीति काम आई, लेकिन मेरे लिए बढ़ता पाठक वर्ग ही सबसे बड़ा कारण है कि क्लासिक्स को नया पाठक मिल रहा है.”

इसका मतलब यह नहीं कि नए लेखक नज़रअंदाज़ हो रहे हैं. माहेश्वरी ने कहा: “असल में, पिछले दशक में हिंदी में पाठकों की संख्या और कंटेंट की विविधता दोनों बढ़ी हैं.”

हालांकि, माहेश्वरी ने चेतावनी दी कि सिर्फ बिक्री के आंकड़ों पर ध्यान देना ठीक नहीं है, इससे किताब की रचनात्मकता और गहराई पीछे छूट सकती है, लेकिन उन्होंने इन सफलताओं को नजरअंदाज नहीं किया.

उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, “हमारे एक प्रकाशन ‘प्रोफेसर की डायरी’ ने प्री-ऑर्डर के 10 दिन में ही 20,000 से ज्यादा प्रतियां बेचीं और अब 50,000 पार कर चुकी है. इस साल आरजे कार्तिक की किताब ‘कर दिखाओ कुछ ऐसा’ की 12,000 से ज्यादा प्रतियां बिकीं. एक और किताब ‘राष्ट्रनिर्माण में आदिवासी’ ने सिर्फ एक महीने में तीन संस्करण पूरे किए और 12,000 से ज्यादा बिकी. ये सभी लेखकों की पहली किताबें हैं, लेकिन अपवादों से परे, ज्यादातर किताबें अब भी औसतन 2,000–5,000 प्रतियां ही बिकी हैं.”

हिंदी साहित्य की दुनिया में नए रास्ते

हिंद युग्म के पास फिलहाल बड़े प्रकाशकों की तुलना में कम लेखक और किताबें हैं. पिछले साल उन्होंने कुल 3,75,000 प्रतियां बेचीं. इनमें से 80 प्रतिशत किताबें सिर्फ चार-पांच लेखकों की थीं.

जैसे अशोक कुमार पाण्डेय की लपूझन्ना, जिसकी 10,000 से अधिक प्रतियां बिकीं और जौन एलिया की शायद, जिसकी 33,000 से अधिक प्रतियां बिकीं, को व्यापक पाठक वर्ग मिला. सिर्फ विनोद कुमार शुक्ल ही नहीं, प्रकाशक ने नीलोत्पाल मृणाल, दिव्य प्रकाश दुबे और मानव कौल जैसे लेखकों को भी 20–25 लाख रुपये की रॉयल्टी दी है.

शैलेश भारतवासी ने कहा, “मैं अनुमान लगाता हूं कि दिसंबर से मार्च तक की पुस्तक मेला सीज़न में शुक्ल की किताब की दो लाख से अधिक प्रतियां बिक सकती है, इससे उनकी रॉयल्टी 60–70 लाख रुपये तक पहुंच सकती है. दीवार में एक खिड़की रहती थी का अमेज़न लैंडिंग पेज 1 जनवरी से 23 सितंबर 2025 तक 10 लाख से अधिक बार देखा गया, जिसमें 7,00,000 से अधिक यूनिक विज़िटर्स थे.”

उन्होंने कहा, “विनोद कुमार शुक्ल की अन्य किताबें, विशेषकर उनकी कविता संग्रह, उतनी नहीं बिकतीं. फिर भी सालाना लगभग 5,000–6,000 प्रतियां बिकती हैं.”

कुछ लेखक मानते हैं कि प्रकाशक अक्सर स्थापित नामों को प्राथमिकता देते हैं, जिससे नए या कम परिचित लेखक संघर्ष करते हैं, लेकिन शैलेश भारतवासी का कहना है कि यह सिर्फ प्रकाशन का मामला नहीं है, बल्कि सभी उद्योगों में ऐसा होता है.

लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने फेसबुक पोस्ट में लिखा, “मैं उस दिन खुश होऊंगा जब कोई नया या कम परिचित लेखक अपनी पहली किताब के लिए अग्रिम राशि पाए और अप्रैल–मई तक ईमानदारी से रॉयल्टी मिले. प्रकाशक वैसे भी स्थापित लेखकों को खुश करने की कोशिश करते रहते हैं.”

भारतवासी ने इस तरह की प्रतिक्रियाओं को दुर्भाग्यपूर्ण कहा. उन्होंने कहा, “ऐसी प्रतिक्रियाएं दिखाती हैं कि किसी अन्य लेखक की सफलता का जश्न मनाने में अनिच्छा है. अगर कोई निर्माता शाहरुख खान को प्रमोट करने में भारी निवेश करता है, तो यह पक्षपात नहीं है — बल्कि व्यवसायिक समझदारी है. यही तर्क यहां भी लागू होता है.”

हाल ही में दिल्ली स्थित राजकमल प्रकाशन ने साझा किया कि उन्होंने मनोहर श्याम जोशी की कसापा की 16,000 से अधिक प्रतियां बेची हैं. यह संकेत है कि नए पाठक पहले नए लेखकों को पढ़ने के बाद क्लासिक लेखकों की ओर बढ़ रहे हैं.

भारतवासी ने बताया, “कुछ महीने पहले दिव्य प्रकाश दुबे ने इस उपन्यास की सिफारिश करते हुए एक रील साझा की. उन्होंने कहा, ‘इस किताब को अपनी गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड को भेजना चाहिए.’ मैं यह नहीं कह रहा कि यही इसकी लोकप्रियता का कारण है, लेकिन यह दिखाता है कि समकालीन लेखकों को पढ़ने के बाद, पाठक क्लासिक्स की खोज करते हैं. यह ऐसे है जैसे खाने के बाद भूख मिटती है, लेकिन पढ़ने के बाद और पढ़ने की इच्छा होती है.”

हालांकि, सभी लेखक संतुष्ट नहीं हैं. कई को वह भुगतान नहीं मिला जो उनका हक था.

लेखिका ममता कालिया ने कहा, “मेरी 70 किताबें बड़े प्रकाशकों के साथ प्रकाशित हुई हैं, लेकिन मुझे 70,000 रुपये भी रॉयल्टी नहीं मिली. वे बस कहते हैं कि किताबें लौट दी गईं. यहां तक कि जब वे मुझे बेस्टसेलर कहते हैं और 28 दिनों में दूसरा संस्करण निकालते हैं, लेखक को भुगतान नहीं मिलता.”

ममता कालिया ने हिंदी प्रकाशन में पारदर्शिता और भुगतान के अंतर को उजागर किया.

उन्होंने कहा, “मेरी किताबें 15 से अधिक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं और फिर भी मुझे पैसे नहीं मिलते. मैं रॉयल्टी के हालात से संतुष्ट नहीं हूं. हिंद युग्म ने जो किया वह अन्य प्रकाशकों के लिए मजबूत संदेश है, लेकिन देखना होगा कि क्या वे अन्य लेखकों के लिए भी पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रख सकते हैं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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