बीच में डॉनल्ड ट्रंप, उनके एक तरफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ और दूसरी तरफ फील्ड मार्शल आसिम मुनीर— यह तस्वीर भारत में हम लोगों के लिए भू-राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण छवि है. दुनिया को अक्सर पुरानी हिंदी फिल्मों के गानों के चश्मे से देखने वाले मेरे जैसे शख्स को तो यह तस्वीर देखकर दिलीप कुमार-नरगिस और मुनव्वर सुलताना की 1950 की फिल्म ‘बाबुल’ का यह गाना गुनगुनाने का मन कर सकता है—‘दुनिया बदल गई, मेरी दुनिया बदल गई… ’.
लेकिन मैं न तो ऐसा कुछ करूंगा और न आपको ऐसा करने की सलाह दूंगा, क्योंकि शकील बदायुनी का यह गीत तब आपको दिल टूटने के बाद के आत्मदया से ग्रस्त उदास अकेलेपन में ले जाता था. मामला जब भारत और अमेरिका जैसी अहम ताकतों का हो तब भू-राजनीति बॉलीवुड के प्रेम-त्रिकोण से ज्यादा जटिल हो जाती है. इसमें कई बातें काम करने लगती हैं. एक बात तो यह है कि भारत-अमेरिका रिश्ते के मुक़ाबले पाकिस्तान-अमेरिका रिश्ता ज्यादा पुराना और औपचारिक रूप से ज्यादा मजबूत रहा है. एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन को ढूंढ निकालने और उसकी हत्या के बाद पाकिस्तान के प्रति अमेरिका का जज्बा भले ठंडा पड़ गया हो लेकिन दोनों के बीच जैविक संबंध बना रहा.
अमेरिका ने पाकिस्तान को कभी अपने गैर-नाटो दोस्त देशों की सूची से हटाया नहीं. और भारत कभी इस सूची में दर्ज नहीं हो सका, और न कभी वह इसकी गुजारिश करेगा.
चाहे उसका राष्ट्रपति कोई भी बने, अमेरिका भारत के आकार, हैसियत, आर्थिक वृद्धि की रफ्तार, स्थिरता, और बढ़ते ‘कॉम्प्रिहेंसिव नेशनल पावर, सीएनपीए’ (बृहद राष्ट्रीय शक्ति) के कारण हमेशा उसे अहमियत देता रहेगा. वह जानता है कि दुनिया की एकमात्र ‘महाशक्ति’ हर एक देश को जिस ‘निर्भर देश’ वाले रूप में देखना चाहती है वैसा देश भारत कभी बन नहीं सकता. पाकिस्तान उसके लिए 1954 से ऐसा ही देश रहा है, जब उसने अमेरिकी नेतृत्व वाली ‘सीटो’ (‘साउथईस्ट एशिया ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन’) संधि पर दस्तखत किया था. उस हद तक, ट्रंप के साथ मुनीर एबटाबाद कांड के बाद रिश्ते में आई सलवटों को दूर करके सामान्य स्थिति बहाल करने में कामयाब हुए हैं. इसलिए ‘दुनिया बदल गई…’ वाली उपमा यहां लागू नहीं होती.
इसके अलावा, इस उपमहादेश में इधर एक मुहावरा चल पड़ा है—‘न्यू नॉर्मल’ यानी सामान्य स्थिति का नया पैमाना. फिलहाल जो तस्वीर है वह इस उपमहादेश के मामले में अमेरिका के सोच की वास्तव में पुरानी सामान्य स्थिति की ओर वापसी दर्शाती है. 2016 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से अलग-थलग कर देना चाहिए. आज, इस इरादे को टाल दिया गया है.
भारत में, हमलोग अगर इस तात्कालिक निराशा को परे करके फिर से समझदारों की तरह सोचना शुरू करें तो मौजूदा तस्वीर हमें इस बारे में बेहतर नजरिया दे सकती है कि पाकिस्तान किस तरह अपना वजूद बचाता रहा है, कभी-कभी किस तरह फलता-फूलता रहा है, किस तरह सोचता रहा है.
हकीकत यह है कि ज्यादा दिन नहीं हुए जब पाकिस्तान का एक सेनाध्यक्ष अपने प्रधानमंत्री के साथ व्हाइट हाउस पहुंचा था. यह बात जुलाई 2019 की है, जब जनरल क़मर जावेद बाजवा इमरान खान के साथ वहां गए थे. लेकिन उस समय साफ दिख रहा था कि प्रधानमंत्री आगे थे और सेनाध्यक्ष उनके पीछे बैठे थे. आज, ऐसा हो ही नहीं सकता कि पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री किसी सरकारी दौरे पर विदेश गए हों और उनके फील्ड मार्शल उनके बराबर में साथ न बैठे हों. यह हमने तियांजिन में देखा, रियाध और दोहा में भी देखा. यथास्थिति की यह वापसी तसवीरों में ज्यादा साफ तौर पर उभर रही है, और दशकों से पाकिस्तान पर नजर रखने वाले हम जैसे कई लोगों को गलत साबित कर रही है.
इसलिए, मैंने इस कॉलम में मुनीर के ‘पांचवें सितारे’ के बारे में गलत ही लिखा था और नवाज़ शरीफ के इस पुराने बयान का जिक्र किया था कि पाकिस्तान को तीतर या बटेर में से एक को चुनना होता है कि वह फौज की हुकूमत चाहता है या चुनी हुई सरकार की. 1993 में, बड़े बहुमत में होने के बाद भी सत्ता से हटाए जाने के बाद रावलपिंडी से लाहौर लौटते हुए शरीफ ने बड़े साहस के साथ यही कहा था कि थोड़ा यह भी, थोड़ा वह भी नहीं चलेगा. आज, व्हाइट हाउस में त्रिमूर्ति की तस्वीर तीन बातें कहती हैं.
पहली: पाकिस्तान में ‘सिस्टम’ यह है—नियंत्रण फौज का रहेगा, एक आज्ञाकारी प्रधानमंत्री होगा जिसे वह ‘निर्वाचित’ करवाएगी. पहले, फौजी तानाशाहों ने ‘तयशुदा नतीजे’ वाले चुनावों में पार्टी-विहीन सरकार बनाने के प्रयोग किए. ज़िया और जुनेजो, मुशर्रफ और शौकत अज़ीज को याद कीजिए. अय्यूब और याहया खान ने भी भुट्टो को अपने गैर-फौजी मुखौटे की तरह रखा.
दूसरी: नवाज़ शरीफ साहसी तो थे मगर उनकी यह उम्मीद नेक नीयती भरा मुगालता था कि कई प्रयोगों के बाद एक दिन ऐसा आएगा जब जम्हूरियत पाकिस्तान में भी उसी तरह कायम हो जाएगी जिस तरह भारत में हुई है. वे भारत के साथ सामान्य रिश्ते की बहाली को इसकी कुंजी मानते थे. आज वे अपनी जिंदगी के सबसे दुखद दौर से गुजर रहे हैं और लाहौर के पास रायविंड में महलनुमा घर में अपने नाकाम सपने का गम मना रहे हैं. उनके भाई आज प्रधानमंत्री हैं और बेटी उस पंजाब सूबे की मुख्यमंत्री हैं, जहां पाकिस्तान की 60 फीसदी आबादी रहती है. यह सब उनके लिए अपमान और दिल तोड़ने वाली बात भी हो सकती है. यह सब उनमें हताशा और अकेलापन का वैसा ही भाव भरता होगा जैसा तख़्ता पलटने के बाद रंगून में पड़े बहादुर शाह जफर के मन में भर रहा था.
तीसरी: मेरे जैसे कई तथाकथित पाकिस्तान विशेषज्ञों की समझ गलत और मूर्खतापूर्ण तक साबित हो गई है. यह भूल का कबूलनामा है. मुनीर के पांचवें सितारे पर अपने इस कॉलम में मैंने लिखा था कि नवाज़ शरीफ ने तीतर बनाम बटेर का सवाल उठाया था, लेकिन मुनीर ने तो एक बिलकुल अनूठे जीव को पेश कर दिया, जहां किसी को नहीं मालूम था कि पाकिस्तान के अंदर किसकी सत्ता चलती है या किसकी साख है. मैंने उस जीव का वर्णन बतख की चोंच वाले प्लेटिपस नामक जानवर के रूप में उत्सुकतावश ही किया था, जो अब लुप्तप्राय हो गया है. यह तस्वीर बताती है कि मैंने वास्तविकता को नहीं पहचाना. या यह नहीं समझ पाया कि पाकिस्तान किस दिशा में सोचता है.
पाकिस्तान क्या सोचता है इसे समझने के लिए आप खुद से यह सवाल कीजिए कि वह अपने नेताओं को क्यों चुनाव जिताता रहा है (कभी-कभी बड़े बहुमत के साथ), और फिर फौजी जनरल जब उन्हें गद्दी से उतार देते हैं तब उसे कबूल क्यों कर लेता है, बल्कि इसका स्वागत क्यों करता है? यह मुल्क, इसकी विचारधारा, अपने वजूद के बारे में इसकी समझ, और राष्ट्रीय गौरव की इसकी भावना फौजी तानाशाही को कबूल करने के लिए ही बनी है. पाकिस्तान के लोग जिन्हें चुनाव जिताते हैं उन नेताओं के अधीन खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करते. उनके सबसे चहेते नेता भी जब जेल में बंद किए जाते हैं तब भी वे घरों में बैठे रहते हैं.
हमने देखा है कि वहां फौज किस तरह अलोकप्रिय होती रही है लेकिन फिर नाटकीय रूप से शिखर पर वापसी भी करती रही है. वह एक साधारण-सा नुस्खा अपनाती रही है. भारत के साथ युद्ध जैसे हालात बना दो, फिर लोग यही कहेंगे कि उनकी रक्षा फौज के सिवाय और कौन कर सकता है.
जैसा 2008 में 26/11 कांड के साथ, और अब पहलगाम कांड के साथ हुआ है. ऐसे हर मोड़ पर पाकिस्तानी फौज की साख गर्त में रही है. भारत से खतरे की थोड़ी-सी भी आशंका पुरानी स्थिति या ‘न्यू नॉर्मल’ को नहीं बल्कि शाश्वत वास्तविकता को बहाल करती है.
इसके बाद यह भी नोट कीजिए कि पाकिस्तान में चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करने वाले लगभग हर नेता ने भारत के साथ सुलह की एक कोशिश जरूर की. नवाज़ का नजरिया सबसे व्यापक था, लेकिन भुट्टो पिता-बेटी ने भी यह कोशिश की. इसके पीछे उन सबकी एक मंशा यह जरूर थी कि यह उन्हें फौजी मुख्यालय के ‘बड़े भाइयों’ के चंगुल से मुक्त करने में मदद करेगा.
और ठीक इसी वजह से ऐसी हर एक सरकार को बरखास्त किया गया, देशनिकाला दिया गया, या जेल में डाल दिया गया. और एक नेता की तो दोबारा चुनाव जीतने की उम्मीद के कारण हत्या कर दी गई. बात मुनीर, या मुशर्रफ, ज़िया या अय्यूब की नहीं है. एक संस्थान के तौर पर इस फौज को भारत के साथ अमन गवारा नहीं हो सकता. वह युद्ध नहीं जीत सकती लेकिन जनता में असुरक्षा का स्थायी डर उसे सत्ता में तो रख ही सकता है. जिन जनरलों को अमन महत्वपूर्ण लगा (जिनमें बाजवा सबसे ताजा मिसाल हैं), उन्हें फौजी संस्थान ने खारिज कर दिया या उनकी फजीहत कर दी.
मुनीर बाकी जनरलों के मुक़ाबले थोड़े ज्यादा अतिवादी और व्यवस्थित हैं. ज़िया के बाद वे दूसरे सच्चे इस्लामी, हाफ़िज़ क़ुरान (पवित्र ग्रंथ को कंठस्थ करने वाला) हैं, जो अपने भाषणों में अरबी की आयतें खूब इस्तेमाल करते रहते हैं. उन्होंने पवित्र ग्रंथों को पढ़ा है और उनमें उनकी पूर्ण आस्था ने उनका यह विश्वास पक्का कर दिया है कि भारत टूट कर रहेगा. यह या तो, उनकी नजर से, उसके अपने विरोधाभासों के कारण होगा या ‘गजवा-ए-हिंद’ की उनकी कम उग्र मुहिम के कारण होगा, जिसमें भाड़े के आतंकवादियों और चीन की सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करके भारत के जवाबी हमलों को नाकाम किया जाएगा और उसे अपने मकसद से डिगाया जाएगा.
भारत अब एक सच्चे साहिब-ए-ईमान के मुक़ाबिल है. चीन उनके साथ है, और वे अरबों को इस पेशकश के साथ रिझाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे उन्हें एक ऐसी एकमात्र फौज भाड़े पर दे सकते हैं जो लड़ने की ताकत रखती है, आधुनिक टेक्नोलॉजी को अपना सकती है, और उनके आदेशों का पालन कर सकती है. पाकिस्तान जो सोचता है उसके वे अवतार हैं, और अपने पूर्ववर्तियों से ज्यादा प्रबल हैं. अब मेरी यह बात मान लीजिए कि पाकिस्तान ‘अब्राहम समझौते’ जैसे किसी समझौते पर दस्तखत करेगा, और भारत के साथ जब कभी अमन कायम करेगा उससे पहले इजरायल को मान्यता दे देगा. यह भारत के लिए एक चुनौती है. व्हाइट हाउस में पहुंचा ‘भारी अस्थिरताकारी’ हमारी दिक्कतें ही बढ़ाने वाला है.
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