विश्वविद्यालयों की ग्लोबल रैंकिंग करने वाली लन्दन स्थित ‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ की इस साल जारी की गयी रिपोर्ट में भारत का कोई भी विश्वविद्यालय दुनिया के 300 टॉप विश्वविद्यालयों की सूची में जगह नहीं बना पाया है. बेंगलुरू के भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईसी) समेत कई आईआईटी की रैंकिंग पिछले वर्षों की तुलना में इस बार गिर गयी है. भारत का कोई भी विश्वविद्यालय कभी भी विश्व के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में पहुंच ही नहीं पाया. इससे पता चलता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारे देश के विश्वविद्यालयों की हालत कितनी ख़राब है.
भारत को छोड़कर दुनिया का शायद ही ऐसा कोई देश है जो खुद को महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर बताता है, बिना इसकी परवाह किए कि उसका कोई भी विश्वविद्यालय दुनिया के शीर्ष विश्वविद्यालयों में नहीं है. इस लेख में विश्वविद्यालयों के रैंकिंग सिस्टम को समझने की कोशिश के साथ इस बात की पड़ताल करने की कोशिश की गयी है कि भारत को इस रैंकिंग में जगह क्यों नहीं मिलती?
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विश्वविद्यालयों की ग्लोबल रैंकिंग की ज़रूरत
जैसा कि नाम से ही विदित है, विश्वविद्यालय वह स्थान है, जहां दुनियाभर के विचारों को पढ़ाया जाता है, और सभी प्रकार की समस्याओं को समझने और उनका समाधान ढूंढ़ने की कोशिश की जाती है. इस प्रकार विश्वविद्यालय भले ही किसी एक देश या शहर की भौगोलिक सीमा में स्थित होता है, लेकिन वह विश्वभर के ज्ञान को पढ़ाता है और उस पर शोध करता है. विश्वविद्यालयों की ग्लोबल रैंकिंग के मूल में यह आइडिया है कि क्या विश्वविद्यालय अपने उद्देश्यों पर खरे उतर रहे हैं.
टाइम्स हायर एजुकेशन ने विश्वविद्यालयों के चार उद्देश्य चिन्हित किए हैं: शिक्षण, अनुसंधान, ज्ञान का ट्रांसफर और अंतरराष्ट्रीय नजरिया. टाइम्स हायर एजुकेशन ने रैंकिंग मापने के लिए 13 पैरामीटर निर्धारित किए हैं. इनमें दूसरे देशों के विद्यार्थियों और शिक्षकों का अनुपात, शोध प्रबंधों के साइटेशन, पीएचडी की संख्या, प्रति स्टाफ रिसर्च पेपर की संख्या, रिसर्च से विश्वविद्यालय को होने वाली आय आदि शामिल है. इनके आधार पर 92 देशों के 1,400 विश्वविद्यालयों की रैंकिंग की गई. भारत का कोई भी विश्वविद्यालय दुनिया के शीर्ष 300 विश्वविद्यालयों में नहीं है.
भारत के विश्वविद्यालयों की दुर्दशा और आरक्षण
भारत में जब भी किसी संस्था के ख़राब प्रदर्शन की बात शुरू होती है तो यहां का सवर्ण और इलीट तबक़ा तपाक से यह कहता है कि संस्थाओं की ख़राब हालत आरक्षण की वजह से हुई है. यहां यह बता देना ज़रूरी है कि भारत के जिन उच्च शिक्षण संस्थानों की बात यहां की जा रही है, वहां प्राध्यापकों के पदों पर आज तक आरक्षण नाम मात्र का ही लागू हो पाया है. आरक्षण की व्यवस्था दरअसल उच्च शिक्षा संस्थानों में है तो, लेकिन किसी न किसी बहाने से इसे लागू नहीं किया जाता. इसका खुलासा समय-समय पर आरटीआई के माध्यम से होता रहता है. सरकार ने संसद में सवालों के जवाब में भी ये बात बार-बार स्वीकार की है.
ये भी गौरतलब है कि आरक्षण तो सिर्फ सरकारी शिक्षा संस्थानों में लागू है. इसलिए अगर शिक्षा संस्थानों की दुर्गति की वजह आरक्षण है तो निजी संस्थानों को तो शीर्ष संस्थानों की लिस्ट में जगह मिलनी चाहिए. जबकि हकीकत यह है कि भारत में निजी शिक्षा संस्थानों की हालत सरकारी शिक्षा संस्थानों की तुलना में ज्यादा ही बुरी है.
अगर भारत के विश्वविद्यालयों की दुर्दशा को समझने की कोशिश किया जाए तो इसके पीछे निम्नलिखित कारण नज़र आते हैं-
दोहरी शिक्षा नीति- आज़ादी के बाद भारत सरकार ने दोहरी शिक्षा नीति अपनाई. इसके तहत आम लोगों के लिए केवल साक्षरता यानी अक्षर ज्ञान की परिकल्पना की गयी, जबकि देश के इलीट के लिए उच्च शिक्षा की. इसमें ज्यादातर लोगों को अशिक्षित रखे जाने का इंतजाम था. इसी शिक्षा नीति के तहत सरकारों ने अस्सी के दशक तक सिर्फ़ प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा पर ही ख़र्च किया. बीच की माध्यमिक शिक्षा पर ध्यान ही नहीं दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि देश का ग़रीब, दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक, महिलाएं, किसान आदि लम्बे समय तक उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुंच ही नहीं पाए.
वहीं उच्च शिक्षा और शोध संस्थानों में इलीट तबक़े का वर्चस्व कायम हो गया. चूंकि उन्हें आम जनमानस की समस्याओं का अंदाज़ा ही नहीं था, इसलिए इन समस्याओं को दूर करने के लिए वहां शोध नहीं हो पाए. कुल मिलाकर इलीट तबक़े ने जन समस्याओं पर शोध न करके, विश्वविद्यालयों को समाज में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का औज़ार बना दिया.
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राजनीतिक दलों का विश्वविद्यालयों में हस्तक्षेप- आज़ादी की लड़ाई के समय से ही भारतीय विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप बना हुआ है, जो कि आज़ादी के बाद और बढ़ गया. राजनीतिक दलों के बढ़ते हुए हस्तक्षेप को पार्टियों से जुड़े छात्र संगठनों, शिक्षक संगठनों से लेकर कर्मचारी संगठनों में देखा जा सकता है. चूंकि आज़ाद भारत में पदों का बंटवारा मेरिट के आधार पर नहीं, बल्कि पैट्रोनेज यानी सरपरस्ती के आधार पर किया जाता है, इसलिए छात्र, शिक्षक से लेकर कर्मचारी तक अच्छा पद पाने के चक्कर में किसी न किसी दल या उनके संगठन से जुड़ जाते हैं. इसका परिणाम यह होता है कि राजनीतिक दलों की लड़ाई विश्वविद्यालयों के कैंपसों में निरंतर लड़ी जाती है, जो कि वहां के अकादमिक माहौल को ख़राब करती है. यह लड़ाई अनगिनत रूपों में लड़ी जा रही है. ये अकादमिक या वैचारिक संघर्ष नहीं, शुद्ध पार्टी पॉलिटिक्स है.
समाज का विश्वविद्यालयों के प्रति रवैया- विश्वविद्यालयों को लेकर समाज का रवैया भी दोषपूर्ण है. इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे यहां शिक्षा और ज्ञान में अंतर माना जाता है. आम समझ यह बनाई गई है कि विश्वविद्यालय सिर्फ़ शिक्षा उपलब्ध करता है, जिससे डिग्री और नौकरी मिलती है. जबकि वास्तविक ज्ञान पारम्परिक संस्थाएं जैसे परिवार, साधु-सन्यासी वग़ैरह ही उपलब्ध कराती हैं. इसी समझ की वजह से हमारे यहां चिकित्सा और इंजीनियरिंग पढ़ने वाले भी पाखंड में डूबे रहते हैं. ज्ञान की आधुनिक परंपरा पर भरोसा न होने के कारण भारत के विश्वविद्यालय पोंगापंथ के केंद्र बने हुए हैं.
संसाधनों की कमी- विकसित देशों की तुलना में भारत अपनी जीडीपी का बेहद छोटा हिस्सा शिक्षा ख़ासकर शोध पर ख़र्च करता है. लम्बे समय से यह मांग की जा रही है कि सरकार को जीडीपी का 10वां भाग शिक्षा पर ख़र्च करना चाहिए, लेकिन यह बहुत दूर का लक्ष्य है. सरकार जो संसाधन विश्वविद्यालयों को दे रही है, उसको भी विश्वविद्यालय मुक़दमेबाज़ी या फिजूलखर्ची वग़ैरह में ख़र्च कर दे रहे हैं. हाल ही में यूजीसी की एक कमेटी ने पाया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय समेत देश के आठ अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय मुक़दमों पर इतना ख़र्च कर रहे हैं कि वे दीवालिया होने के कगार पर हैं.
विश्वविद्यालयों पर मुकदमों की एक बड़ी वजह ये है कि विश्वविद्यालय प्रशासन कई बार राजनीतिक कारणों से छात्रों, शिक्षकों एवं कर्मचारियों पर विद्वेषपूर्ण कार्रवाई करता है.
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शिक्षा पर नौकरशाही का क़ब्ज़ा- भारत में शिक्षा नौकरशाही के क़ब्ज़े में हैं. इस मामले में केंद्र सरकार के विश्वविद्यालय तो थोड़ा-बहुत शुक्र मना सकते हैं, लेकिन राज्यों के विश्वविद्यालय तो अभी भी अक्सर नौकरशाही के क़ब्ज़े में ही चलते हैं. नौकरशाही के क़ब्ज़े को विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक पदों पर होने वाली नियुक्तियों में देखा जा सकता है. आईएएस, आईपीएस और सेनाधिकारी कई बार कुलपति और कुलसचिव तक बना दिए जाते हैं. इसके अलावा, पढ़ाई और शोध को वरीयता न देकर अनुशासन और सुरक्षा जैसे मुद्दे प्राथमिक बन जाते हैं.
ये सभी मुद्दे नीतिगत और संरचनात्मक हैं. बिना इन पर ध्यान दिए, भारत के विश्वविद्यालय दुनिया के शीर्ष के विश्वविद्यालयों की सूची में जगह नहीं बना सकते.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)
That truly will be the day the brahmins would understand the status of the untouchables . The Modi government is simply a tool pushing the agenda of the upper castes RSS .