विदेश सचिव विक्रम मिस्री 18 अगस्त को दो दिवसीय दौरे के बाद नेपाल से लौटे, लेकिन एक हफ्ते से भी कम समय बाद, 20 अगस्त को काठमांडू ने फिर से भारत के साथ सीमा विवाद उठा दिया. नेपाल ने भारत द्वारा जारी उस बयान पर आपत्ति जताई जिसमें चीन के विदेश मंत्री और विशेष प्रतिनिधि वांग यी की यात्रा के दौरान लिपुलेख दर्रे का ज़िक्र किया गया था. भारत-चीन सीमा मुद्दे पर यह बयान 19 अगस्त को जारी हुआ था.
2020 की गलवान झड़प के बाद द्विपक्षीय संबंधों को सामान्य करने की प्रक्रिया के तहत भारत और चीन ने सीमा व्यापार को कई मार्गों से दोबारा शुरू करने पर सहमति जताई है, जिसमें लिपुलेख दर्रा भी शामिल है जिसे नेपाल अपना क्षेत्र बताता है.
2020 में ही काठमांडू ने एकतरफा कदम उठाते हुए संविधान में संशोधन के ज़रिए अपने नक्शे में विवादित क्षेत्र जोड़ लिए और उन्हें अपना बताया. भारत ने इस पर कड़ा विरोध जताते हुए कहा था, “दावों का यह कृत्रिम विस्तार ऐतिहासिक तथ्यों या सबूतों पर आधारित नहीं है और मान्य नहीं है. यह हमारी मौजूदा समझ का भी उल्लंघन है, जिसके तहत लंबित सीमा मुद्दों पर बातचीत की जानी है.”
अब जब नेपाल ने इसे फिर से उठाया है, तो इसका असर काठमांडू और नई दिल्ली के रिश्तों पर क्या पड़ेगा?
फिर पहुंचे शुरुआती बिंदु पर
विदेश सचिव मिस्री 17 और 18 अगस्त को नेपाल में थे. उनकी यात्रा का मकसद प्रधानमंत्री केपी ओली को भारत आने का निमंत्रण देना था. यह विशेष निमंत्रण माना गया क्योंकि प्रधानमंत्री ओली जुलाई 2024 से पद पर हैं और उनके कार्यकाल की शुरुआत से ही भारत से उनके पहले विदेश दौरे के लिए औपचारिक आमंत्रण की संभावना पर काम चल रहा था. परंपरा रही है कि नेपाल के सभी नए निर्वाचित/नियुक्त प्रधानमंत्री सबसे पहले भारत की यात्रा करते हैं, जो दोनों देशों के गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक रिश्तों का प्रतीक है.
खबरों के अनुसार, भारत की ओर से इस निमंत्रण में देरी हुई थी क्योंकि दिल्ली ओली के पिछले कार्यकाल में भारत-नेपाल संबंधों के प्रबंधन से नाखुश मानी जाती थी, खासकर सीमा विवाद के मुद्दे पर.
दिलचस्प यह है कि विदेश सचिव मिस्री की यात्रा को दिल्ली के वर्तमान प्रशासन के साथ कामकाजी सहजता बढ़ने का संकेत माना गया, क्योंकि इस दौरान कोई बड़ा विवाद सामने नहीं आया जो रिश्तों को बिगाड़ सके. बल्कि, इस यात्रा में जलविद्युत सहयोग, समग्र व्यापार और नेपाल के लिए भारत की विकास सहायता में सकारात्मक प्रगति दर्ज हुई.
जुलाई पिछले साल से जब से ओली ने पद संभाला है, भारत से कई अहम यात्राएं नेपाल हुई हैं. इस साल अप्रैल में केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान बहुपक्षीय बैठक में भाग लेने नेपाल गए और प्रधानमंत्री ओली से द्विपक्षीय बातचीत भी की. इसके कुछ हफ़्ते बाद भारत के ऊर्जा तथा आवास एवं शहरी कार्य मंत्री मनोहर लाल खट्टर नेपाल गए, जहां जलविद्युत सहयोग पर चर्चा हुई.
इन यात्राओं के अलावा, दोनों प्रधानमंत्रियों की मुलाकात संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) के दौरान पिछले साल और इस साल की शुरुआत में थाईलैंड में हुए बिम्सटेक सम्मेलन में भी हुई थी. इसलिए आम धारणा यही बनी थी कि रिश्ते बेहतर हो रहे हैं.
अब नेपाल ने फिर से सीमा विवाद उठाया है और कथित तौर पर है कि उसने भारत को कूटनीतिक नोट भी भेजा है. हम फिर वहीं लौट आए हैं, जहां से शुरू किया था और अब संभावना है कि आने वाली यात्रा पर सीमा विवाद का साया पड़ जाएगा.
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बातचीत की गुंजाइश
नेपाल के अपने दावे हैं, लेकिन नई दिल्ली की “इस मामले में स्थिति हमेशा से साफ और एक जैसी रही है. भारत और चीन के बीच लिपुलेख दर्रे से सीमा व्यापार 1954 में शुरू हुआ था और यह दशकों से चल रहा है.” विदेश मंत्रालय ने अपने बयान में दोहराया कि “क्षेत्रीय दावों का कोई भी कृत्रिम और एकतरफा विस्तार स्वीकार्य नहीं है” और सीमाओं से जुड़ा कोई भी विवाद बातचीत और कूटनीति के जरिए ही सुलझाया जा सकता है.
भारत कूटनीतिक माध्यमों से बातचीत के लिए तैयार है, लेकिन चुनौती नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ी हुई है. चाहे सत्ता में कोई भी पार्टी हो या वापसी की उम्मीद कर रही हो, लगभग सभी दल राजनीतिक फायदे के लिए अति-राष्ट्रवादी नैरेटिव को बढ़ावा देते हैं, जिससे भारत के साथ क्षेत्रीय मुद्दे केंद्र में आ जाते हैं. 2008 में सदियों पुरानी राजशाही से लोकतंत्र की ओर बदलाव के बाद से, ओली के नेतृत्व वाली नेपाल-यूएमएल (CPN-UML) समेत वामपंथी दल भारत को लेकर सख्त नज़रिया रखते आए हैं और 2008 से अब तक लगभग सभी सरकारें वामपंथी गठबंधन की रही हैं, इसलिए इस मुद्दे को जिंदा रखना हमेशा ज़रूरी माना गया है.
भारत और नेपाल जैसे करीबी देशों के लिए सीमा विवाद मौजूदा बॉर्डर मैकेनिज़्म और कूटनीतिक बातचीत के जरिए सुलझाया जा सकता है, लेकिन अगर कोई पक्ष अपने नक्शे में विवादित इलाकों को एकतरफा शामिल कर ले, संवैधानिक संशोधन कर ले और फिर उसी का हवाला देकर अपने दावे को जायज़ ठहराए, तो यह निश्चित रूप से दिल्ली को मुश्किल स्थिति में डाल देता है.
यह तय है कि कूटनीति सभी संभावित विकल्पों, यहां तक कि ट्रैक-2 जैसे प्लेटफॉर्म का भी इस्तेमाल करने की गुंजाइश बनाती है. अब बहुत कुछ प्रधानमंत्री ओली की आने वाली भारत यात्रा के दौरान होने वाली बातचीत पर निर्भर करेगा.
(ऋषि गुप्ता वैश्विक मामलों पर टिप्पणीकार हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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