NEP पर चार हिस्सों की सीरीज़ की यह तीसरी रिपोर्ट है. पहली और दूसरी रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं.
मोतिहारी/नई दिल्ली: बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले की 21 साल की एक पहली पीढ़ी की छात्रा को जब एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में दाखिला मिला, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्होंने स्थानीय कॉलेज से ग्रेजुएशन की थी. शुरू में झिझकने के बाद उनके माता-पिता ने पोस्टग्रेजुएट डिग्री के लिए इसलिए हां कर दी क्योंकि यूनिवर्सिटी घर से ज़्यादा दूर नहीं थी.
लेकिन उनकी ये खुशी ज़्यादा दिन टिक नहीं पाई.
महत्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय (MGCU), मोतिहारी में उन्होंने मास्टर ऑफ एजुकेशन (M.Ed.) प्रोग्राम में दाखिला लिया, लेकिन वहां का कैंपस और सुविधाएं उसकी उम्मीदों से कहीं नीचे निकलीं.
यह यूनिवर्सिटी पांच अलग-अलग जगहों से संचालित होती है, जिनमें से एक कैंपस कभी गोडाउन हुआ करता था. नीली टिन की दीवारों और छत से बना यह ढांचा अंदर से कमरों की भूलभुलैया जैसा है—कई कमरे बेहद खराब हालत में हैं.
छात्रा ने कहा, “यहां तो केंद्रीय विश्वविद्यालय जैसा कोई अहसास ही नहीं होता. सरकार कहती है कि हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाना है, लेकिन हमारे अपने संस्थानों का हाल देखिए—सालों से ये अस्थायी कैंपसों में चल रहे हैं, छात्रों का दाखिला तो होता है, लेकिन ढंग की सुविधाएं नहीं हैं. अपने देशी संस्थानों को मजबूत करने की बात कहां गई?”

जहां एक ओर भारत नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत देश की शिक्षा प्रणाली के अंतरराष्ट्रीयकरण के लक्ष्य को लेकर अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटियों के आगमन और IITs के विदेशों में विस्तार का जश्न मना रहा है, वहीं दूसरी ओर कई सरकारी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के छात्र और अधिकारी बताते हैं कि ज़मीन पर हकीकत कुछ और ही है क्योंकि वो इस नीति के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने में संघर्ष कर रहे हैं.
इनमें से कई संस्थान नीति की सबसे बुनियादी सिफारिशों को लागू करने में भी नाकाम हैं, जबकि नीति में कहा गया है कि सभी उच्च शिक्षा संस्थानों को “बुनियादी ढांचे और सुविधाओं” से लैस किया जाना चाहिए—जैसे पर्याप्त क्लासरूम, लैब और फैकल्टी.
महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी के मुख्य केंद्र में पढ़ाने वाले शिक्षकों का कहना है कि विश्वविद्यालय में पर्याप्त क्लासरूम नहीं हैं, जिस वजह से उन्हें रिसर्च स्कॉलरों की क्लास फैकल्टी के कमरों और स्टाफ रूम में लेनी पड़ती है.
हिंदी विभाग के एक वरिष्ठ शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “जब बुनियादी ढांचा ही नहीं है, तो एनईपी का लक्ष्य—2030 तक उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) को 50% तक बढ़ाना, जो अभी लगभग आधा है—कैसे हासिल होगा?”
दिप्रिंट ने जब 14 जुलाई को MGCU का दौरा किया, तो पाया कि 2016 में स्थापित यह संस्थान अब भी पांच अलग-अलग जगहों से संचालित हो रहा है, जिनमें से चार जगहें अस्थायी और किराए पर ली गई हैं. इन पांच में एक जगह प्रशासनिक ब्लॉक के तौर पर काम कर रही है. विश्वविद्यालय में 2020 और 2021 के बीच जिन रिसर्च और स्टडी सेंटरों का उद्घाटन हुआ था, वो भी अब तक पूरी तरह से शुरू नहीं हो पाए हैं.
उसी शिक्षक ने बताया, “हमें परमानेंट कैंपस के लिए ज़मीन मिल गई है और वहां से एक कैंपस चल भी रहा है, लेकिन वहां इतना ढांचा नहीं है कि सभी विभागों को समायोजित किया जा सके. परमानेंट कैंपस के लिए प्रस्ताव शिक्षा मंत्रालय को भेज दिया गया है. जब उसे मंजूरी मिल जाएगी, तब भी यहां पूरी तरह तैयार होने में चार-पांच साल और लगेंगे.”

नई शिक्षा नीति 2020 का ज़ोर रिसर्च, इनोवेशन और आधुनिक क्षेत्रों में रिसर्च सेंटर बनाने पर है. इसके साथ ही इसमें थ्योरी से ज़्यादा प्रैक्टिकल और हाथों-हाथ सीखने को अहमियत दी गई है.
लेकिन मोतिहारी के MGCU में रिसर्च कर रहे छात्र दिप्रिंट को बताते हैं कि लैब की सुविधाएं न के बराबर हैं, जिससे उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
नैनोबायोटेक्नोलॉजी में रिसर्च कर रहे एक छात्र ने बताया कि उनका सेंटर ज़िले के एक स्कूल के साथ शेयर किया गया है और अब उन्हें अपने लैब वर्क के लिए दो-तीन महीने लखनऊ जाना पड़ता है.
नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने कहा, “मेरे रिसर्च के लिए एक सेल-लाइन लैब चाहिए, जहां सेल बिहेवियर को एक नियंत्रित वातावरण में स्टडी किया जा सके. हमारे पास ऐसी कोई लैब नहीं है. फिलहाल हम सिर्फ कंप्यूटर पर सिमुलेशन कर सकते हैं, लेकिन कोई असली प्रैक्टिकल काम नहीं हो सकता. इसी वजह से मुझे अपने पीएचडी के बीच में यहां से जाना पड़ रहा है.”
दिप्रिंट को दिए अपने जवाब में MGCU ने कहा कि उनके पास अब तक परमानेंट कैंपस नहीं है, इसलिए वह कई किराए के शैक्षणिक भवनों और एक प्रशासनिक परिसर से काम चला रहे हैं, जिस अस्थायी कैंपस की बात ऊपर हुई है, वह भी विश्वविद्यालय ने किराए पर लिया है.
विश्वविद्यालय ने कहा, “यह अस्थायी सुविधा परमानेंट कैंपस साइट के पास है. इसे इसलिए चुना गया क्योंकि इसमें पर्याप्त बिल्ट-अप एरिया था और बाहरी स्टाफ (जैसे सुरक्षा, सफाई आदि) की भारी कमी को देखते हुए पास की जगह का ही बेहतर उपयोग करना ज़रूरी था.”
बिहार सरकार की ओर से विश्वविद्यालय के परमानेंट कैंपस के लिए 301.97 एकड़ ज़मीन प्रस्तावित है, जिसमें से लगभग 261 एकड़ ज़मीन अधिग्रहित की जा चुकी है.
बयान में कहा गया, “किसी विश्वविद्यालय के लिए ज़मीन जुटाना अपने आप में बहुत बड़ा काम होता है, लेकिन विश्वविद्यालय ने इसमें काफी हद तक सफलता पाई है. बाकी की ज़मीन के ट्रांसफर के लिए सरकार से लगातार बातचीत चल रही है और उम्मीद है कि जल्द ही यह पूरा हो जाएगा.”
एमजीसीयू ने यह भी कहा कि अस्थायी और किराए की जगहों से संचालित होने के बावजूद लैब के विकास और रख-रखाव के लिए उन्हें लगातार पर्याप्त बजट मिलता रहा है.
बयान में कहा गया, “प्रैक्टिकल क्लास ठीक से चलें, इसके लिए ज़रूरी लैब उपकरण, केमिकल्स और अन्य सामग्री उपलब्ध कराई गई है. खासकर विज्ञान जैसे विषयों के लिए लैब को बेहतर बनाने की कोशिश लगातार जारी है और परमानेंट कैंपस की डीपीआर (डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) में इसका पूरा ख्याल रखा गया है.”
हालांकि, MGCU अकेला ऐसा संस्थान नहीं है जो इन समस्याओं से जूझ रहा है. देशभर के कई विश्वविद्यालय और कॉलेज एनईपी लागू करते वक्त ऐसी ही दिक्कतों से गुज़र रहे हैं—खासतौर पर लैब इन्फ्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं की भारी कमी से.

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DU में चार साल की डिग्री का सफर
नई शिक्षा नीति 2020 के तहत किए गए बड़े बदलावों में से एक है चार साल की अंडरग्रेजुएट डिग्री का प्रावधान, जिसमें छात्रों के लिए बीच में कोर्स छोड़ने और फिर से जुड़ने के विकल्प दिए गए हैं. इस डिग्री का आखिरी साल रिसर्च पर केंद्रित होता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय इस कार्यक्रम को लागू करने वाले पहले केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शामिल रहा है. यह कोर्स 2022–2023 शैक्षणिक सत्र से शुरू हुआ था और 1 अगस्त को इसका पहला बैच चौथे साल में प्रवेश करेगा. DU के तहत दिल्ली में 90 से ज़्यादा कॉलेज आते हैं.
जुलाई में हुई कार्यकारी परिषद की बैठक में डीयू के कुलपति योगेश सिंह ने कहा कि कम से कम 60 प्रतिशत छात्र चौथे साल तक पढ़ाई जारी रखेंगे, लेकिन डीयू से संबद्ध कई कॉलेजों के शिक्षकों का कहना है कि उनके पास चौथे साल के छात्रों के लिए न तो पर्याप्त ढांचा है और न ही ज़रूरी स्टाफ.
उदाहरण के लिए किरोड़ी मल कॉलेज में कुछ बड़े क्लासरूम को दो हिस्सों में बांटकर मौजूदा छात्रों को संभालने की कोशिश की गई है.
कॉलेज के एक वरिष्ठ शिक्षक ने नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा, “जब एक ही कमरे को दो भागों में बांटकर दो क्लास एक साथ चलती हैं, तो दूसरी ओर से आने वाला शोर इतना ज़्यादा होता है कि पढ़ाना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में चौथे साल के छात्रों को कैसे समायोजित किया जाएगा, यह हमें भी नहीं पता.”
दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के अध्यक्ष ए.के. भागी ने कहा, “कॉलेजों में बुनियादी ढांचे को बेहतर करने और चौथे साल के रिसर्च से जुड़ी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए कम से कम एक अतिरिक्त फंड दिया जाना चाहिए था.”
उन्होंने कहा, “ऐसे कॉलेज जो कई सब्जेक्ट्स में पढ़ाई कराते हैं और जहां 3,000 से 4,000 से ज़्यादा छात्र हैं—वो इस चौथे साल के छात्रों के लिए संसाधन कैसे साझा करेंगे? उदाहरण के लिए मेरे विषय केमिस्ट्री में हमें अतिरिक्त लैब स्पेस और खास उपकरण चाहिए होते हैं, ताकि छात्रों को प्रैक्टिकल ट्रेनिंग दी जा सके—जो एनईपी 2020 की मूल भावना है, लेकिन इसको लागू कैसे किया जाएगा, इस पर कोई स्पष्टता नहीं है.”
रामजस कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर तनवीर एजाज़ ने बताया कि उनके कोर्स में 50% से ज़्यादा छात्रों ने चौथे साल के लिए रजिस्ट्रेशन कराया है, लेकिन कॉलेज में अभी भी ढांचे और स्टाफ की काफी कमी है.
हालांकि, यूनिवर्सिटी ने कॉलेजों को गेस्ट फैकल्टी रखने की अनुमति दी है, लेकिन एक सेमेस्टर में 50 से ज़्यादा गेस्ट टीचर नहीं रखे जा सकते. एजाज़ ने कहा, “अधिकतर विभागों में इस समय चार-पांच फैकल्टी की कमी है ताकि वे इस अतिरिक्त बैच को संभाल सकें. इससे मौजूदा शिक्षकों पर और बोझ बढ़ेगा. अब चौथे साल के छात्रों को ज़्यादातर सीनियर फैकल्टी ही पढ़ाएंगे.”
मिरांडा हाउस की प्राचार्या बिजयलक्ष्मी नंदा ने बताया कि कॉलेज ने चौथे साल के छात्रों के लिए दो नए क्लासरूम और एक रिसर्च सेंटर बनाया है, लेकिन अभी भी सात-आठ और क्लासरूम की ज़रूरत है.
कॉलेज के अनुमान के मुताबिक, कोर्स के हिसाब से 30% से 60% छात्र चौथे साल के लिए आगे बढ़ सकते हैं. सोशल साइंसेज़ में ज़्यादा छात्र रुकने की संभावना है, जबकि साइंस में कम.
नंदा ने दिप्रिंट से कहा, “फिलहाल हम साझा और सामान्य जगहों का उपयोग करके काम चला लेंगे. ढांचे का विकास एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, इसलिए ज़रूरी सुविधाएं बनने में समय लगेगा. यूनिवर्सिटी हमारी काफी मदद कर रही है.”
जिन कॉलेजों में हॉस्टल की सुविधा है, उन्हें स्टाफ और जगह की समस्या का भी सामना करना पड़ रहा है. उदाहरण के लिए मिरांडा हाउस हॉस्टल में 360 बेड हैं और चौथे साल के छात्रों को समायोजित करने के लिए एक अतिरिक्त ब्लॉक की ज़रूरत पड़ेगी.
नंदा ने कहा, “हम कोशिश करेंगे कि चौथे साल के छात्रों को जगह मिल सके, लेकिन सबको हॉस्टल में जगह देना संभव नहीं होगा. हम पहली से चौथी साल तक के छात्रों में कमरे समान रूप से बांट रहे हैं, लेकिन एक नई हॉस्टल बिल्डिंग चाहिए जिसे बनने में दो–तीन साल लग सकते हैं.”

शिक्षकों ने लैब से जुड़ी समस्याओं को भी उठाया है. दयाल सिंह कॉलेज के फिज़िक्स डिपार्टमेंट के एसोसिएट प्रोफेसर नवीन गौड़ ने कहा कि चौथे साल में मास्टर्स स्तर के पेपर शामिल हैं.
उन्होंने कहा, “मौजूदा लैब सेटअप के साथ इन विषयों की लैब कराना संभव नहीं है. हमारे पास ज़रूरी उपकरण नहीं हैं. लैब सबसे बड़ी समस्या बनने जा रही है.”
दिल्ली विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार विकास गुप्ता ने कहा कि प्रशासन ने चौथे साल की तैयारी को लेकर सभी कॉलेजों के प्राचार्यों से विस्तार से मीटिंग की है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “लगभग सभी कॉलेज तैयार हैं. डीयू के पास काफी संसाधन हैं. पिछले तीन सालों में हमने अपनी लैब और उपकरणों को बेहतर किया है. अगर किसी कॉलेज को लैब स्पेस की कमी हो रही है, तो हमने उन्हें सलाह दी है कि वे सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक क्लास और लैब चलाएं और शिक्षकों की शिफ्टिंग करें.”
उन्होंने आगे कहा, “सभी विभागों में उपलब्ध संसाधन कॉलेजों के लिए पूरी तरह सुलभ हैं. अगर किसी कॉलेज को लगता है कि उनके पास पर्याप्त शिक्षक नहीं हैं, तो विश्वविद्यालय ने उन्हें गेस्ट फैकल्टी रखने के निर्देश दिए हैं.”
अन्य संस्थानों में भी शुरुआती दिक्कतें
मोतिहारी के महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के अधिकारियों का कहना है कि एनईपी 2020 के तहत शुरू हुए अंडरग्रेजुएट कोर्स के छात्रों को चौथे साल में आने में अभी समय है, लेकिन इन संस्थानों को भी संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ रहा है.
जामिया टीचर्स एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष माजिद जमील ने कहा कि भले ही अभी सभी कोर्स में चार साल का स्ट्रक्चर लागू नहीं हुआ है, लेकिन जब ये बैच फाइनल ईयर में पहुंचेंगे तो शिक्षकों और स्टाफ की भारी कमी महसूस होगी.
उन्होंने कहा, “पिछले चार–पांच साल से विश्वविद्यालय ने स्थायी लैब स्टाफ की भर्ती नहीं की है. रेगुलर तकनीकी स्टाफ की गैरमौजूदगी में रिसर्च सुविधाएं पूरी तरह इस्तेमाल भी नहीं हो पा रहीं. फिर जब नए बैच जुड़ेंगे, तब कैसे काम चलेगा?”
जेएनयू के सेंटर फॉर इंटरनेशनल पॉलिटिक्स, ऑर्गेनाइजेशन एंड डिसआर्मामेंट की एसोसिएट प्रोफेसर मौसुमी बसु ने कहा कि भले ही विश्वविद्यालय ने चार साल का कोर्स अपना लिया है, लेकिन अभी तक विश्वविद्यालय के नियमों में एक साल का मास्टर्स प्रोग्राम शामिल नहीं है.
उन्होंने कहा, “हम जैसे रिसर्च-बेस्ड यूनिवर्सिटी में यह समझ नहीं आ रहा कि जब चार साल का अंडरग्रेजुएट कोर्स पूरा करने वाले छात्र सीधे पीएचडी में दाखिला लेंगे, जैसा कि नई शिक्षा नीति में कहा गया है, तब क्वालिटी पर क्या असर पड़ेगा. इसमें बहुत बड़ा लर्निंग गैप रहेगा, जो जेएनयू में रिसर्च की क्वालिटी को प्रभावित कर सकता है.”

एनईपी 2020 के तहत अब छात्र यदि चार साल की अंडरग्रेजुएट डिग्री एक तय सीजीपीए के साथ पूरी कर लें, तो वे सीधे पीएचडी प्रोग्राम में दाखिला ले सकते हैं.
इस बीच, हिमाचल प्रदेश के केंद्रीय विश्वविद्यालय के छात्र बताते हैं कि वहां प्रैक्टिकल और लैब से जुड़ी बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं.
मास कम्युनिकेशन और न्यू मीडिया में पीएचडी कर रहे एक छात्र ने बताया कि विश्वविद्यालय में प्रैक्टिकल ट्रेनिंग के लिए एक ढंग का स्टूडियो तक नहीं है.
नाम न छापने की शर्त पर छात्र ने कहा, “हमारे पास वीडियो प्रोडक्शन, एडिटिंग या प्रैक्टिकल सेशन के लिए कोई सेटअप नहीं है—न टेलीप्रॉम्प्टर है, न नॉइज़ कैंसलेशन की सुविधा. एक ही कमरा है जिसमें तीन–चार डेस्कटॉप कंप्यूटर हैं. हाल ही में दो कैमरे मिले हैं, वो भी कई बार मांगने के बाद. कई शिक्षक तो न्यू मीडिया टूल्स से वाकिफ भी नहीं हैं. हम बस जैसे-तैसे काम चला रहे हैं.”
यह विश्वविद्यालय 2009 में स्थापित हुआ था और अब भी अपने स्थायी कैंपस—धर्मशाला—का इंतज़ार कर रहा है. फिलहाल यह देहरा में एक स्थायी साइट और दो किराए की जगहों से संचालित हो रहा है.
छात्र ने आगे कहा, “एनईपी 2020 में कहा गया है कि छात्रों को प्रैक्टिकल अनुभव मिलना चाहिए, लेकिन जब बुनियादी सुविधाएं ही नहीं होंगी, तो अनुभव कहां से मिलेगा? ऐसी नीतियां कागज़ पर तो अच्छी लगती हैं, लेकिन अगर ढांचा न तैयार हो, तो उनका ज़मीन पर कोई असर नहीं होता.”
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