बॉम्बे हाइकोर्ट ने 2006 में मुंबई के लोकल ट्रेनों में हुए बम धमाकों के मामले में जो फैसला सुनाया है वह गंभीर चिंता का विषय है. 11 जुलाई 2006 को मुंबई की सात लोकल ट्रेनों के प्रथम श्रेणी वाले डिब्बों में बम रखे गए और वेस्टर्न रेलवे लाइन के खार रोड, सांताक्रूज, बांद्रा, खार, जोगेश्वरी, माहिम जंक्शन, मीरा रोड, भायंदर, माटुंगा, और बोरिवली स्टेशनों के बीच विभिन्न स्थानों पर विस्फोट किया गया. कुल 187 लोग मारे गए और 824 लोग घायल हुए. यह भीषण आतंकवादी कार्रवाई थी.
एक विशेष ‘मकोका’ (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट) अदालत ने 2015 में उन पांच लोगों को सजाए-मौत सुनाई थी जिन्होंने कथित तौर पर ट्रेनों में बम रखे थे, और सात अन्य लोगों को उम्रक़ैद की सजा सुनाई थी. स्पेशल जज यतिन शिंदे ने अपने फैसले में लिखा था: “ये हत्या के सामान्य मामले नहीं हैं और यह हत्या का कोई आम मुकदमा नहीं है. यह बेकसूर, असुरक्षित लोगों की, नृशंस, अप्रत्याशित हत्या थी.” जज महोदय ने प्रॉसीक्यूशन की इस बात से सहमति जताई कि आरोपी “मौत के सौदागर” हैं.
मुंबई ट्रेन बम धमाके: सभी 12 बरी
अब 2025 में आ जाइए. बॉम्बे हाइकोर्ट ने सीरियल बम धमाकों के सभी 12 आरोपियों की सजा यह कहते हुए रद्द कर दी कि अभियोजन पक्ष उन सबके “अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने में बुरी तरह नाकाम रहा”. जजों का मानना था कि “आरोपियों को कठघरे में खड़ा करके मामले को हल करने का झूठा दिखावा करके यह भ्रामक धारणा बनाई गई कि मामले का समाधान कर दिया गया है. मामले को इस तरह भ्रामक रूप से बंद करने से जनता के भरोसे को कमजोर किया गया और समाज को झूठा आश्वासन दिया गया, जबकि वास्तविक खतरा कायम है”.
जजों को मामले की जांच और मुकदमे में पांच मुख्य बिंदुओं पर खोट नजर आई: आरोपियों को यातनाएं दी गईं, जिससे उनके इक़बालिया बयान अस्वीकार्य हो गए; गवाह गैरभरोसेमंद थे क्योंकि उन्होंने वारदात के बाद 100 दिनों तक पुलिस से संपर्क नहीं किया; पहचान परेड योग्य अधिकारी ने नहीं कारवाई; जो सबूत इकट्ठा किए गए उनका साक्ष्य के रूप में कोई महत्व नहीं था क्योंकि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि सबूतों को उपयुक्त संरक्षण में रखा गया, और उन्हें तब तक सीलबंद नहीं किया गया जब तक वे फोरेंसिक साइंस लैब (एफएसएल) नहीं पहुंचे. दिलचस्प बात यह है कि ‘मकोका’ कोर्ट ने शुरू में इस आरोप को खारिज कर दिया था कि आरोपियों को यातनाएं दी गईं और उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया.
महाराष्ट्र के सेवानिवृत्त अधिकारियों ने, जिनके कार्यकाल में वारदात हुए थे और जो उनकी जांच में शामिल थे, आरोपियों को बरी किए जाने पर हैरानी भरी निराशा जाहिर की है. मामले की जांच महराष्ट्र का एंटी टेररिज़्म स्क्वाड कर रहा था जिसमें ऐसे अधिकारी शामिल थे जो जांच में महारत रखने के लिए जाने जाते थे. उस समय मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे अनामी नारायण राय का कहना है कि उन लोगों ने “अति उच्च पेशेवर तरीके से काम किया. इससे जांच में कमी निकालने की बहुत कम गुंजाइश थी”.
बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला सैद्धांतिक दृष्टि से सही हो सकता है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसने कुछ व्यवहारिक पहलुओं की अनदेखी कर दी. बहरहाल, राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करके इसे चुनौती दी और 24 जुलाई को सुनाए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाइकोर्ट के फैसले को स्थगित कर दिया.
पहले भी बरी किए गए, मालिमथ था कमेटी
लेकिन चिंता की वास्तविक बात यह है कि पहले भी कई आतंकी वारदात के मामलों में आरोपी बरी किए जाते रहे हैं.
2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमले के मामले में, जिसमें 33 लोग मारे गए थे, छह लोगों को सजा सुनाई गई थी. उनमें से तीन को सजाए-मौत सुनाई गई थी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में इन सबको इस आधार पर बरी कर दिया था कि अभियोजन पक्ष ने कमजोर और बनावटी सबूतों का सहारा लिया था.
2005 में दिवाली से पहले दिल्ली में सीरियल बम धमाकों में 67 लोग मारे गए थे. इस मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, और उन पर एक दशक से ज्यादा समय तक मुकदमा चला. लेकिन आखिरकार उनमें से दो को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और तीसरे को दिल्ली की एक अदालत ने 2017 में सजा सुनाई थी परंतु पुलिस जांच में कई गंभीर खामियां बताई थी.
2006 में मालेगांव धमाकों में 37 लोगों की जान गई, नौ संदिग्धों को गिरफ्तार किया गया लेकिन 2016 में मुंबई की एक अदालत ने उन्हें इस आधार पर बरी कर दिया कि उन पर गलत आरोप लगाए गए थे.
ये फैसले हमारी दंड विधान व्यवस्था की खामियों को उजागर करते हैं. दंड विधान व्यवस्था में सुधारों की सिफारिश करते हुए 2003 में ही मालिमथ कमिटी ने कहा था कि मौजूदा वाद-विवाद प्रणाली में न्यायिक जांच प्रणाली के कुछ उपयोगी तत्व शामिल करके उसे सुधारा जा सकता है. जैसे, सच्चाई की जांच में सक्रिय रूप से भाग लेना अदालत की भी ज़िम्मेदारी हो. किसी भी दंड विधान व्यवस्था का अंतिम लक्ष्य न्याय करना ही होता है, और न्याय सच पर ही आधारित हो. इसलिए मालिमथ कमेटी ने प्रस्ताव किया था कि ‘सच की खोज’ पूरी व्यवस्था का ही लक्ष्य होना चाहिए. इसके लिए, कमिटी ने सुझाव दिया कि अदालत को यह अधिकार दिया जाना चाहिए कि वह गवाही देने के लिए किसी भी व्यक्ति को बुला सके और उसकी जांच कर सके. इसके अलावा वह सच की खोज के अपने प्रयासों के तहत जांच अधिकारियों को निर्देश दे सके.
मालिमथ कमेटी ने कहा था कि आपराधिक मामलों में मानक सबूत के लिए जो शर्त रखी गई है कि वह ‘उचित संदेह से परे’ हो, वह अभियोग पक्ष पर बड़ा दबाव बनाती है. यूरोप के कई देशों की कई कानूनी व्यवस्थाओं में सबूतों के लिए जो मापदंड रखा गया है वह अपेक्षाकृत निचले स्तर का है, यह ‘संभावनाओं की प्रमुखता’ पर आधारित है. इसलिए कमिटी ने सिफारिश की कि बीच का रास्ता अपनाते हुए मापदंड का स्तर ‘संभावनाओं की प्रमुखता’ से ऊंचा लेकिन ‘उचित संदेह से परे’ वाली शर्त से नीचा हो. कमिटी ने इसे सबूतों को ‘स्पष्ट एवं विश्वसनीय’ मापदंड कहा, हमने इन सुधारों को क्यों नहीं लागू किया?
पुलिस और अभियोजन
हमारी अभियोजन व्यवस्था में व्यापक सुधार की आवश्यकता है. मालिमथ कमेटी ने सिफारिश की थी कि “अभियोजन पक्ष के सभी सदस्यों को पुलिस विभाग से पूरा सहयोग करते हुए काम करना चाहिए”. लेकिन जो हो रहा है वह इसका ठीक उलटा है. सरकार के स्तर पर अभियोजन पक्ष को पुलिस से संस्थागत रूप से अलग कर दिया गया है. इस अलगाव के उत्साहवर्द्धक परिणाम नहीं मिले हैं. दोष-सिद्धि दर में भारी गिरावट आई है. पुलिस और अभियोजन पक्ष में तालमेल की कमी के कारण मुकदमों के परिणामों पर बुरा असर पड़ा है. अमेरिका में एकीकृत व्यवस्था लागू है और दोनों पक्ष सहज तालमेल से काम करते हैं. ब्रिटेन में 2003 के ‘क्रिमिनल जस्टिस एक्ट’ के तहत अभियोजन पक्ष अब ‘क्रिमिनल जस्टिस यूनिट’ के एक हिस्से के रूप में पुलिस थानों से काम करता है.
पुलिस जांच व्यवस्था में भी कई गुणात्मक सुधारों की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में जांच शाखा को कानून-व्यवस्था वाली शाखा से अलग करने का जो निर्देश दिया था वह विवादास्पद नहीं था. किसी राज्य ने इसका विरोध नहीं किया लेकिन इसे लागू करने से कतरा रहे हैं. राज्यों का कहना है कि इस अलगाव के लिए बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी चाहिए, जो नहीं हैं और वे इसका खर्च नहीं उठा सकते. वित्तीय व्यवस्था एक बाधा है, लेकिन यह बनावटी बाधा है, क्योंकि राज्य सरकारें वोट दिलाने वाले कार्यक्रमों पर पैसे लुटाते रहते हैं. अगर आवश्यक हो तो केंद्र सरकार राज्यों की मदद कर सकती है.
यह भी बड़े अफसोस की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में जिन संरचनात्मक पुलिस सुधारों के निर्देश दिए थे उन्हें सही ढंग से लागू नहीं किया गया है. राजनीतिक वर्ग और नौकरशाही पुलिस पर अपनी पकड़ को छोडने को तैयार नहीं है. वे अपनी जमींदारी मानसिकता से उबरना नहीं चाहते. निराशाजनक बात यह भी है कि पुलिस सुधारों के लिए न्यायपालिका का भी उत्साह ठंडा पड़ता दिख रहा है. उसने जो ऐतिहासिक निर्देश जारी किए थे, उनकी पिछले छह वर्षों की मॉनिटरिंग नहीं की है. इसका नतीजा यह है कि हम औपनिवेशिक काल वाले पुलिस ढांचे को ढोते जा रहे हैं जिसे जनता नहीं बल्कि मुख्यतः कार्यपालिका की सेवा के लिए बनाया गया था.
संपूर्ण क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में आमूल परिवर्तन कीआवश्यकता है Iकेवल कानून का शासन ही नहीं, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई की सफलता भी दांव पर लगी है.
(लेखक एक रिटायर्ड पुलिस चीफ हैं, जो पिछले 30 साल से पुलिस सुधारों के लिए काम कर रहे हैं. उनका एक्स हैंडल @singh_prakash है. व्यक्त निजी विचार हैं.)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: बिहार 19वीं सदी का अमेरिकन साउथ हो गया है. सिटीजनशिप अब वोटर्स को बाहर करने का जरिया बन गई है