नई दिल्ली: ललित कुमार को अपने ग्रीन पार्क स्थित घर में एक मंज़िल और बनवाने की अनुमति पाने में दो साल लग गए. यह अनुमति उन्हें नगर निगम से नहीं, बल्कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) से लेनी थी. उनके घर में मामूली मरम्मत के लिए भी एएसआई की मंजूरी चाहिए क्योंकि वह एक संरक्षित स्मारक से 200 मीटर के दायरे में आता है.
दिल्ली जैसे विरासत से भरे शहर में यह समस्या हज़ारों लोगों को झेलनी पड़ी है. इसका कारण है प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम (AMASR Act). 2010 में यूपीए सरकार के समय इसमें संशोधन हुआ था, जिसके अनुसार किसी भी संरक्षित स्मारक के 100 से 200 मीटर के भीतर कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकता, लेकिन अब नरेंद्र मोदी सरकार इस कानून में बदलाव लाने जा रही है ताकि विरासत संरक्षण और शहरी विकास के बीच संतुलन बैठाया जा सके.
संस्कृति मंत्रालय के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि सरकार इस मानसून सत्र में संसद में संशोधन विधेयक पेश करने की तैयारी कर रही है.
पिछले दस साल में एएसआई ने दिल्ली में संरक्षित स्थलों के पास निर्माण या मरम्मत के मामलों में 5,360 कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं. ग्रीन पार्क, विक्रम नगर और निजामुद्दीन जैसे इलाकों में रहने वाले लोगों के बीच इससे काफी नाराज़गी है क्योंकि उनके घर पुराने मकबरों और बावड़ियों के एकदम करीब हैं.
2022 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में फायर नियमों के तहत इमारत की ऊंचाई की सीमा 15 मीटर से बढ़ाकर 17.5 मीटर कर दी थी, लेकिन इसका कोई फायदा ललित कुमार को नहीं मिला क्योंकि ASI की पाबंदियां अब भी लागू हैं.
ग्रीन पार्क रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के प्रेसिडेंट ललित कुमार ने कहा, “ग्रीन पार्क में बहुत सारे स्मारक हैं और इस कानून की वजह से यहां 200 मीटर की सीमा में रहने वाले लोग निर्माण या मरम्मत के लिए भी जूझ रहे हैं.”
“भारत में 3,000 से ज़्यादा केंद्रीय रूप से संरक्षित स्मारक हैं, लेकिन हर स्मारक को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. ताजमहल और कोस मीनार को एक जैसा नहीं देखा जा सकता.”
— सुजीत नयन, अधीक्षण पुरातत्वविद्, ASI पटना सर्कल
पिछले कुछ साल में संस्कृति मंत्रालय और ASI के बीच इस मुद्दे पर कई बार बैठकें हो चुकी हैं. नवंबर 2023 में केंद्रीय संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा था कि सरकार इस दिशा में बदलाव पर विचार कर रही है ताकि संरक्षण के प्रयास लोगों की ज़िंदगी में “कम से कम दखल” डालें.
अब जो संशोधन प्रस्तावित है, उसका मकसद है कि विरासत वाले इलाकों में विकास के लिए थोड़ी लचीलापन दी जाए. अगर यह प्रस्ताव पास हो गया, तो दिल्ली जैसे ऐतिहासिक शहरों की शहरी योजना में बड़ा बदलाव आ सकता है.
एएसआई की प्रवक्ता और संयुक्त महानिदेशक (स्मारक) नंदिनी भट्टाचार्य साहू ने कहा, “AMASR कानून में कई बदलाव ज़रूरी हैं. हमने अपनी सिफारिशें दी हैं और अब इसे संसद में पेश किया जाएगा.”
उन्होंने कहा, “कानून को जनहितकारी बनाया जाएगा ताकि विरासत भी सुरक्षित रहे और आम लोगों को भी कोई दिक्कत न हो.”
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रोकें और नाराज़गी
ग्रीन पार्क में ललित कुमार का घर कई एएसआई संरक्षित स्मारकों से घिरा हुआ है — जैसे छोटी गुमटी, बड़ी गुमटी और दादी-पोती का मकबरा. इन स्मारकों को वहां रहने वाले लोग विरासत के तौर पर नहीं, बल्कि शहरी जीवन में बुनियादी सुधार की राह में रोड़ा मानते हैं. उनके घर में कोई भी निर्माण कार्य करने के लिए एएसआई से अनुमति लेना ज़रूरी है.
कुमार ने कहा, “विभाग से मंजूरी लेना आसान काम नहीं है.” वे पिछले पांच साल से निवासियों की शिकायतों को लेकर कई बार एएसआई अधिकारियों से मिल चुके हैं, लेकिन कोई खास नतीजा नहीं निकला. 2023 से उन्होंने एएसआई के हौज खास ऑफिस के चक्कर लगाए और इस साल जाकर उन्हें घर में एक मंज़िल और बनाने की मंजूरी मिली.
उन्होंने कहा, “मैंने पूरा प्रोसेस फॉलो किया, इसलिए बहुत देर हुई.”
छोटी गुमटी से ठीक सटे एक प्लॉट अभी भी खाली पड़ा है — वजह यह कि वह AMASR कानून के तहत 100 मीटर के प्रतिबंधित क्षेत्र में आता है, जहां किसी भी तरह का निर्माण पूरी तरह से मना है.

इसी तरह की समस्याएं दिल्ली के विक्रम नगर में भी देखी गई हैं, जहां एक घनी आबादी वाला इलाका फिरोज़ शाह कोटला स्मारक के पास बसा है, जो एक केंद्रीय रूप से संरक्षित स्मारक है.
विक्रम नगर RWA के अध्यक्ष राजन चौधरी ने आरोप लगाया, “जब भी कोई निर्माण शुरू करता है, अधिकारी आकर पैसे मांगने लगते हैं. संरक्षित स्मारक के नाम पर वसूली की जा रही है.”
यह समस्या सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है. देशभर में कई स्मारकों के आसपास घनी आबादी वाले मोहल्ले हैं, जहां एएसआई अक्सर बिना अनुमति के गतिविधियों को लेकर नोटिस जारी करता है.
यहां तक कि 4 जून को कर्नाटक हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि सभी स्थानीय निकायों को कहा जाए कि जब तक एएसआई की मंजूरी न हो, वे संरक्षित स्मारकों के पास किसी भी निर्माण की इजाज़त न दें.
“इस कानून पर चर्चा ज़रूरी है और चल रही है, लेकिन अगर किसी विरासत स्मारक के पास कोई बड़ी इमारत बना दी जाती है, तो स्मारक का महत्व कम हो जाएगा. स्मारक के आसपास के वातावरण को जैसा है, वैसा ही बनाए रखना चाहिए.”
– मनोज कुर्मी, अधीक्षण पुरातत्वविद, एएसआई भोपाल सर्कल
यह पुरानी खींचतान कई सालों से केंद्र सरकार की चर्चाओं में रही है, लेकिन पहले की कोशिशों के बावजूद AMASR कानून में संशोधन अब तक नहीं हो पाया.
AMASR संशोधन विधेयक पहली बार जुलाई 2017 में लोकसभा में पेश किया गया था और अगले साल पास भी हो गया, लेकिन फिर इसे राज्यसभा सांसद विनय सहस्रबुद्धे की अध्यक्षता वाली एक सिलेक्ट कमेटी के पास भेज दिया गया.
कमेटी ने 2019 में अपनी रिपोर्ट सौंपी और सुझाव दिया कि निर्माण की सीमाएं हर स्मारक के अनुसार तय की जाएं, न कि सब पर एक समान 100 मीटर की रोक लगाई जाए.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इस संशोधन की ज़रूरत सबसे पहले तब महसूस हुई, जब एएसआई ने उत्तर प्रदेश के सिकंदरा में अकबर के मकबरे के पास छह-लेन हाईवे के लिए अनुमति देने से मना कर दिया. इसके अलावा रिपोर्ट में कई अधूरे पड़े बुनियादी ढांचे के प्रोजेक्ट जैसे कि गुजरात के रानी की वाव के पास रेलवे स्टेशन, कोलकाता और अहमदाबाद मेट्रो और कोल्हापुर में पंचगंगा नदी पर पुल निर्माण का भी ज़िक्र किया गया, जिन्हें अनुमति न मिलने के कारण रोकना पड़ा.
कमेटी ने फरवरी 2019 में यह रिपोर्ट संसद में रखी, लेकिन दो महीने बाद आम चुनाव थे और लोकसभा का कार्यकाल खत्म हो रहा था, इसलिए इस रिपोर्ट पर कोई चर्चा नहीं हुई और विधेयक लैप्स हो गया.
रिपोर्ट में बताया गया कि AMASR एक्ट में संशोधन का दबाव तब सामने आया जब ASI ने उत्तर प्रदेश के सिकंदरा में अकबर के मकबरे के पास छह लेन के हाईवे को मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया.
इसके अलावा, रिपोर्ट में कई अन्य अटके हुए बुनियादी ढांचा प्रोजेक्ट्स का भी ज़िक्र किया गया, जैसे — गुजरात के रानी की वाव के पास प्रस्तावित रेलवे स्टेशन, कोलकाता और अहमदाबाद मेट्रो का काम, कोल्हापुर में पंचगंगा नदी पर पुल निर्माण. इन सभी उदाहरणों को यह दर्शाने के लिए रखा गया कि AMASR एक्ट में बदलाव की ज़रूरत क्यों है.
कमेटी ने फरवरी 2019 में अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की, लेकिन दो महीने बाद लोकसभा चुनाव होने थे और कार्यकाल समाप्त होने वाला था. इसलिए इस रिपोर्ट पर कोई चर्चा नहीं हो सकी और विधेयक स्वतः ही रद्द (लैप्स) हो गया.

इसके बाद 2023 में सुधार की मांग दोबारा तेज़ हुई, जब प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (PM-EAC) ने ‘Monuments of National Importance – Urgent Need for Rationalisation’ शीर्षक वाली रिपोर्ट जारी की.
इस रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में इस समय 3,695 राष्ट्रीय महत्व के स्मारक (Monuments of National Importance – MNI) हैं, जो सभी एएसआई के अधीन हैं, लेकिन स्वतंत्रता के बाद से अब तक इस सूची की समग्र समीक्षा नहीं हुई है. रिपोर्ट में कहा गया कि यह प्रणाली अब “बेजोड़” हो गई है और इसे तत्काल दोबारा जांचकर तर्कसंगत बनाने की ज़रूरत है.
रिपोर्ट ने सीधे तौर पर AMASR एक्ट को भी इस समस्या का हिस्सा बताया.
रिपोर्ट में कहा गया है, “राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों की पहचान और संरक्षण की समस्या का एक बड़ा कारण 1958 का AMASR कानून ही है. न तो यह कानून और न ही 2014 की National Policy for Conservation यह स्पष्ट करते हैं कि ‘राष्ट्रीय महत्व’ का मतलब क्या है.”
इस अस्पष्टता के कारण, यह तय करना और लागू करना मुश्किल हो जाता है कि किस स्मारक को प्राथमिकता दी जाए और कैसे उसकी रक्षा की जाए.
2010 के संशोधन के तहत, राष्ट्रीय महत्व के सभी स्मारकों के लिए NMA (National Monuments Authority) को बाय-लॉज़ (नियम) बनाने थे, लेकिन अब तक केवल 126 स्मारकों के लिए ही बाय-लॉज़ बनाए गए हैं, जिनमें से ज़्यादातर को अब भी एएसआई की मंज़ूरी नहीं मिली है. इस कारण, जगह विशेष के हिसाब से नियम न होने के चलते ASI सामान्य प्रतिबंधों का सहारा लेता है, जिससे संरक्षण और विकास के बीच टकराव बढ़ता है.
पिछले कुछ वर्षों में कई सांसदों ने संसद में AMASR एक्ट में संशोधन की मांग उठाई है. 2023 में तत्कालीन संस्कृति मंत्री जी. किशन रेड्डी ने लोकसभा में एक लिखित जवाब में कहा, “सरकार ने यह निर्णय लिया है कि संरक्षित स्मारकों और स्थलों के आसपास निर्माण से जुड़े कार्यों पर प्रभाव डालने वाले कानूनी मुद्दों की जांच की जाएगी, ताकि बुनियादी ढांचे के विकास के साथ-साथ देश की समृद्ध विरासत का संरक्षण भी किया जा सके.”
अब जब यह विधेयक सावन सत्र में पेश होने की संभावना है, ASI सूत्रों के अनुसार, प्रस्तावित संशोधनों में वर्तमान निषिद्ध क्षेत्रों में कुछ हद तक निर्माण की अनुमति और स्मारकों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटने का प्रावधान हो सकता है, ताकि प्रत्येक के लिए अलग नियम लागू हों.
ASI के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “वर्तमान प्रतिबंध जनहित के कार्यों और विकास परियोजनाओं को प्रभावित कर रहा है.”
लेकिन सवाल यह है कि कानून में कितनी ढील दी जाए, यह अब एक बहस का विषय बन चुका है.
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‘हर स्मारक एक जैसा नहीं होता’
जहां एक ओर एएसआई के कुछ अधिकारी मानते हैं कि हर स्मारक अलग होता है और उन पर एक जैसे नियम लागू नहीं किए जा सकते, वहीं दूसरी ओर कुछ को चिंता है कि अगर नियमों में ढील दी गई, तो इससे व्यावसायिक अतिक्रमण का रास्ता खुल जाएगा.
पटना सर्किल के पर्यवेक्षण पुरातत्वविद सुजीत नयन ने कहा, “भारत में 3,000 से ज़्यादा केंद्र संरक्षित स्मारक हैं, लेकिन हर स्मारक को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. ताजमहल और कोस मीनारों की तुलना नहीं की जा सकती, इन्हें एक ही नज़र से नहीं देखा जा सकता.”
उन्होंने यह भी बताया कि इस मुद्दे पर ASI के अलग-अलग सर्किलों में कई बार चर्चा हो चुकी है, लेकिन “सरकार की अंतिम मंज़ूरी का इंतज़ार है.”
हालांकि, ASI अब नियमों को थोड़ा लचीला बनाने की तैयारी कर रहा है, लेकिन कुछ विशेषज्ञ पहले ही चेतावनी दे रहे हैं कि इससे क्या खतरे पैदा हो सकते हैं.

PM-EAC की रिपोर्ट सामने आने के बाद, सेवानिवृत्त IAS अधिकारी और पूर्व वित्त व ऊर्जा सचिव ई.ए.एस. शर्मा ने संस्कृति मंत्रालय को एक खुली चिट्ठी लिखी.
उन्होंने लिखा, “बहुत लंबे समय से रियल एस्टेट डेवलपर पुरातात्विक स्थलों और स्मारकों के आस-पास की ज़मीनों पर नज़र गड़ाए बैठे हैं, ताकि उन्हें शहरीकरण के बहाने व्यावसायिक उपयोग में बदला जा सके क्योंकि इन इलाकों में ज़मीन की कीमतें बहुत तेज़ी से बढ़ी हैं.”
कुछ पुरातत्वविद भी इस चेतावनी से सहमत हैं कि अगर कानून को हल्का किया गया, तो स्मारकों के चारों ओर व्यावसायिक अतिक्रमण का रास्ता खुल सकता है. हालांकि, इस बात पर आम सहमति है कि कानून की समीक्षा ज़रूरी है.
एएसआई के भोपाल सर्किल के पर्यवेक्षण पुरातत्वविद मनोज कुर्मी ने कहा, “AMASR कानून पर चर्चा ज़रूरी है और वो चल भी रही है, लेकिन अगर किसी विरासत स्मारक के बगल में कोई बड़ी इमारत बना दी गई, तो स्मारक का महत्व कम हो जाएगा. स्मारक के चारों ओर का माहौल जैसा है, वैसा ही रहना चाहिए.”
उन्होंने यह भी कहा कि ASI के पास NOC जारी करने की एक सही व्यवस्था पहले से मौजूद है, लेकिन विडंबना यह है कि लागू करने की प्रक्रिया ही ठीक से काम नहीं कर रही. चाहे नोटिस भेजे जाएं या नहीं, संरक्षित स्मारकों के आसपास अतिक्रमण लगातार होता रहता है.
ASI के पूर्व ईस्टर्न ज़ोन डायरेक्टर और वरिष्ठ पुरातत्वविद फणिकांत मिश्रा ने कहा, “AMASR एक्ट को कड़ाई से लागू नहीं किया जा रहा और अतिक्रमण करने वालों पर बहुत कम मामले दर्ज होते हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “अदालती कार्यवाही भी बहुत धीमी है और मामले पूरी गंभीरता से दर्ज नहीं किए जाते. अगर जागरूकता बढ़ाई जाए, स्थानीय समुदायों को जोड़ा जाए और बफर ज़ोन बनाए जाएं, तो कानूनी ढांचे के भीतर रहते हुए प्राचीन स्मारकों को अतिक्रमण से बचाया जा सकता है.”
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