डॉनल्ड ट्रंप ने पारंपरिक कूटनीति पर सीधा हमला किया है. भारत, और ख़ासतौर पर मोदी सरकार, को उनकी इस ज़बरदस्त शेखीबाज़ी के नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं.
ऑपरेशन सिंदूर को रोकने में मध्यस्थता के उनके बार-बार के दावों पर डैमेज कंट्रोल करना पहले ही काफी मुश्किल रहा है. अब उन्होंने इसमें यह भी जोड़ दिया है कि “पांच जेट मार गिराए गए.”
उनकी ओर से फैलाए गए भ्रम की एक मिसाल यह है कि यह सब ऐसे वक्त हुआ जब एक दिन पहले ही उनके प्रशासन ने भारत को एक बड़ा फायदा दिया था—उन्होंने पहलगाम हत्याकांड के लिए जिम्मेदार ‘द रेसिस्टेंट फ्रंट’ को लश्कर-ए-तैयबा का साथी बताते हुए उसे विदेशी आतंकी संगठन (FTO) घोषित कर दिया था.
इन विरोधाभासों को आप कैसे समझाएंगे? वह रणनीतिक साझेदारों से किए वादे निभाते हैं लेकिन साथ ही उन्हें शर्मिंदा भी करते हैं. दुनिया भर में यही सवाल उठ रहा है—डॉनल्ड ट्रंप जैसी ‘समस्या’ से कैसे निपटें? आइए पहले बड़ी तस्वीर पर नज़र डालें:
अमेरिका को फिर से महान बनाने की कोशिश में डॉनल्ड ट्रंप दुनिया के उन दूरदराज़ के हिस्सों में अमेरिका विरोधी भावना में फिर से जान फूंक रहे हैं जहां वह मृतप्राय हो चुकी थी. अब तक उनका तरीका अपने सहयोगियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने और अपने तथा उनके प्रतिद्वंद्वियों के साथ छेड़खानी करना वाला रहा है.
भारत के मामले में वे बार-बार बड़े दावे के साथ कहते रहे हैं कि उनके हस्तक्षेप और उनकी मध्यस्थता के कारण ही पाकिस्तान के साथ हमारा युद्धविराम हुआ. इस तरह उन्होंने भारत और पाकिस्तान को एक ही तराजू पर तोले जाने को लेकर हमारे पुराने जख्म को फिर से कुरेद दिया है. वामपंथी झुकाव वाला और मोदी विरोधी खेमा अंदर-अंदर ही खुश हो रहा है और पूछ रहा है: शैतान के साथ पींगें बढ़ाते हुए आप आखिर क्या हासिल करना चाह रहे थे?
और क्या पता ट्रंप इस साल के अंत में भारत में होने जा रहे क्वाड शिखर सम्मेलन में शरीक होने के लिए पाकिस्तान में रुकते हुए न भारत आएं (हालांकि इसकी संभावना कम ही है)! उनके लिए कूटनीति के पुराने नियम कोई मायने नहीं रखते. भारत जिस चाल को उसे पाकिस्तान के बराबर बताने की चाल मान कर उससे चिढ़ता है, तो चिढ़े, यह उसका सिरदर्द है. यह ट्रंप के लिए नियम क्यों बने?
हाल में उन्होंने कम-से-कम चार बयान ऐसे दिए हैं जिनमें नरेंद्र मोदी और फील्ड मार्शल आसिम मुनीर का जिक्र एक ही वाक्य में किया गया. ऐसा सबसे ताजा बयान 19 जून का है, जिसमें उन्होंने कहा कि बेहद स्मार्ट पाकिस्तानी जनरल ने मेरे साथ व्हाइट हाउस में लंच लिया और भारत के प्रधानमंत्री, जो मेरे बहुत अच्छे दोस्त और कमाल के इंसान हैं… वगैरह-वगैरह.
और एक बार फिर हम मानसिक तनाव में जाने लगे क्योंकि वे फिर हमें पाकिस्तान के साथ जोड़ रहे थे. और अब तो वे मोदी को मुनीर के साथ जोड़ रहे हैं! क्या आफत आ गई? मैं तो सलाह दूंगा कि जरा गहरी सांस लीजिए, थोड़े संयम से काम लीजिए, और थोड़ा मुस्कराइए. ट्रंप अगर मुनीर और मोदी को एक साथ जोड़ रहे हैं तो इस पर किसे ज्यादा नाराज होना चाहिए? क्या बेचारे प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ को ज्यादा नाराज नहीं होना चाहिए, जिन्होंने मुनीर की वर्दी पर पांचवां स्टार लगाया और उनके हाथ में फील्ड मार्शल का बेटन थमाया? कम-से-कम कागज पर, अगर पाकिस्तान के संविधान की कोई कीमत है तो उसके मुताबिक तो फील्ड मार्शल प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह है.
ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सहजीकरण (मध्यस्थता या हस्तक्षेप की जगह मैं इस शब्द का प्रयोग करना चाहूंगा) की प्रक्रिया में शरीफ़ से अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने ही बात की. उनके समवर्ती भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर हैं. शरीफ को इस मेल की शिकायत करनी चाहिए थी. लेकिन उनकी हिम्मत नहीं हुई. पाकिस्तान की हकीकत और ढोंग की पोल जितनी रूखाई और सच्चाई के साथ ट्रंप खोलते रहे हैं वैसा अब तक किसी अमेरिकी नेता नहीं किया.
जरा स्थिर मन से सोचिए. भारत दशकों से यही कहता रहा है कि पाकिस्तान का लोकतंत्र एक छलावा है, और असली कमान तो उसकी फौज के हाथ में रहती है. पाकिस्तान के प्रति अपने लाड़-प्यार के दिखावे के साथ ट्रंप भी इस धारणा का समर्थन करते रहे हैं. एक तरह से वे आपका ही काम कर रहे हैं, आपकी पक्की धारणा की पुष्टि कर रहे हैं. उनके पूर्ववर्ती नेता कोई मूर्ख नहीं थे. वे भी इस सच्चाई को जानते थे लेकिन इतने दशकों तक वे पाकिस्तान के लोकतंत्र की बहाली और मजबूती की कोशिश करते रहे (या इसका दिखावा करते रहे). ट्रंप के लिए ये पुराने किस्म के बहाने, अगर उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X/TruthSocial में इस्तेमाल किए जाने वाले पसंदीदा शब्द का इस्तेमाल करें तो, ‘बुलशिट’ (बकवास) ही हैं. वे खुद खरी बात कहते हैं, कोई ‘बुलशिट’ नहीं. किसी देश में असली कमान जिसके हाथ में होगी, वे उसी से बात करेंगे. भविष्य में भारत का रुख भी ऐसा ही होना चाहिए.
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ट्रंप अगर अपनी घरेलू राजनीति अपनी आंतरिक चेतना से उपजे ऐसे गड्डमड्ड सोशल मीडिया पोस्टों के जरिए चलाते हैं जिनमें व्याकरण की इतनी गलतियां होती हैं कि वे हमारी यूपीएससी की प्रिलिम परीक्षा में फेल कर जाएं, तो उन्हें कूटनीति को खास तवज्जो देने की कोई वजह क्यों नजर आएगी? वे बारीक इशारों-संकेतों और इसरारों वाली, निजी बातचीत में कुछ और सार्वजनिक बयान में कुछ और कहने वाली पुरानी किस्म की कूटनीति से ‘बोर’ हो चुके हैं.
इसका निष्कर्ष यह है कि आप यह भरोसा नहीं कर सकते कि वे किसी बात को अपने तक गोपनीय रखेंगे या नहीं. उदाहरण के लिए, ‘नाटो’ के महासचिव (और नीदरलैंड के पूर्व प्रधानमंत्री) मार्क रत्ती ने उन्हें चापलूसी भरा एक पत्र भेजा तो उन्होंने तुरंत उसका स्क्रीनशॉट सार्वजनिक कर दिया. यूरोप वाले सन्न रह गए.
ट्रंप दरअसल यही चाहते हैं— लोगों को स्तब्ध करना, धौंस में रखना. दुनिया को उनकी और अमेरिका की ताकत का एहसास होता रहे और वह इसे कबूल करती रहे. दरअसल, रत्ती ने चापलूसी की हद यह कर दी थी कि उन्होंने उस पत्र में ‘नाटो’ के नेताओं से कहा था कि वे ट्रंप को अपने ‘डैडी’ जैसा मानें.
लेकिन आप जब भी दुखी हों, तब यह देखें कि उन्होंने अपने सबसे करीबी सहयोगियों के साथ क्या व्यवहार किया. कनाडा से उन्होंने कहा कि वह अमेरिका का एक राज्य बन जाए और पूरी सुरक्षा (“तुम्हें घेरे रूसी और चीनी युद्धपोतों से भी”) हासिल करे. यही नहीं, ज़ीरो टैरिफ और कम टैक्सों का लाभ भी ले. पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को तो उन्होंने अमेरिकी राज्य का गवर्नर तक कह दिया था और नये प्रधानमंत्री मार्क कार्ने को भी कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बनाने की सलाह दे दी. और कार्ने ने जब जवाब दिया— कभी नहीं! तो ट्रंप ने पलटकर कहा, ‘नेवर से नेवर’ (कभी नहीं! कभी मत बोलो). क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ट्रंप मोदी के साथ बैठे हों और उन्हें यह कह रहे हों कि आपको कश्मीर को लेकर हजार साल के युद्ध का निबटारा कर लेना चाहिए, जिसके पास जो है उसे रख ले और खुश रहे! ट्रंप ने तो संधि से बंधे अपने सहयोगी कनाडा से इससे भी बुरी बात कही.
ट्रंप पारंपरिक कूटनीति के लिए एक बागी सरीखे हैं. वे जब हमास से लड़ाई बंद करने को कहते हैं तब यह भी कहते हैं कि गाज़ा अमेरिका को भेंट में दिया जाएगा, जहां वे विशाल रिवेरा (समुद्रतटीय रिज़ॉर्ट) बनवाएंगे. और वे ‘एआई’ द्वारा बनाए गए ऐसे ‘मीम’ पोस्ट करते हैं जिनमें उस समुद्रतट पर मौज मनाने की तस्वीरें होती हैं. वे ईरान से वार्ता कर रहे होते हैं और जब इजरायल कारगर हमले कर रहा होता है तब वे भी कार्रवाई करने के लिए अपनी ओर से बमबारी करवाने लगते हैं.
इसके बाद वे अपने करीबी सहयोगी इजरायल को आदेश देते हैं कि वह ईरान को दोस्ती का संकेत देते हुए बमों से लैस अपने विमानों को वापस बुला ले. वे ईरान के साथ बातचीत फिर शुरू करना, ‘अब्राहम समझौते’ को विस्तार देना, और सऊदी अरब को भी आगे लाना चाहते हैं.
वे जेलेंस्की को सार्वजनिक तौर पर अपमानित करते हैं, उन्हें खारिज करने का दिखावा करते हैं, और उन पर दबाव डालते हैं कि अपनी सुरक्षा की कीमत खनिजों के मामले में समझौता करके चुकाएं. वे ‘नाटो’ को डराने के लिए पुतिन की तारीफ करते हैं और बाद में उनसे चिढ़ भी जाते हैं. अब वे रूसी विदेशी मुद्रा भंडार में अड़ंगा लगाने और खासकर ‘पेट्रिएट’ मिसाइलों समेत नये हथियारों के लिए यूरोप से कीमत वसूल रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडन इसी सौदे को अंतिम रूप दे रहे थे.
सारतत्व वही है, तरीका बिलकुल अलग है. इसे हम ‘ट्रंप्लोमैसी’ कहते हैं. खुली, तीखी, खरी, अनीतिपूर्ण और कभी-कभी अपमानजनक विशेषणों से लैस तारीफों से भरी कूटनीति. लेकिन इस सबके पीछे बड़ा मकसद होता है अमेरिकी वर्चस्व के बारे में अपनी धारणा को जताना. उनके समर्थक इसीलिए उन्हें पसंद करते हैं. हाल में ये समर्थक पूरी तरह घरेलू मामले को लेकर नाराज थे— एपस्टीन फाइल को जारी करने से उनके इनकार के कारण.
लेकिन अमेरिका के मित्र देश ट्रंप को किसी खफ़ा आशिक़ की तरह उन्हें खारिज नहीं कर सकते. उन्हें अमेरिका की जरूरत है. इसी सप्ताह, ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ ने एक शानदार लेख छापा है, जो यह खुलासा करता है कि यूरोप उनके परिवार और दोस्तों को उपहार देकर, अपमानों पर मुस्करा कर और चापलूसी करके उन्हें किस तरह अपने वश में कर रहा है. और उनके संभ्रमित प्रतिद्वंद्वी उनके अगले कदम का इंतजार कर रहे हैं.
चीन जैसे देश, जिनके पास महत्वपूर्ण खनिजों की ताकत है, शांत हैं. वे जानते हैं कि यूक्रेन में अमन कायम हो या नहीं, ट्रंप उन पर 500 फीसदी तो क्या, असामान्य टैरिफ भी नहीं थोप सकते. ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया, और भारत अपने ऊपर ध्यान दे रहे हैं. उदाहरण के लिए, भारत को यह सोचना है कि ट्रंप अगर पाकिस्तान में रुक कर भारत आने की, और दो देशों वाले पुराने समीकरण को फिर से उभारने की योजना बनाते हैं तब वह किस तरह की प्रतिक्रिया देगा. क्या भारत ट्रंप से यह कह सकता है कि आप फिर कभी भारत आइएगा?
दुनिया नई हकीकत का आदी हो रहा है. अमेरिका में ट्रंप के आलोचक कह रहे हैं कि उनकी नीतियां चीन को फिर से महान बना रही हैं. उन आलोचकों की बातों में दम भी है. ट्रंप की नीतियों के अवांछित परिणाम मिल रहे हैं. लेकिन हम अपने यहां यह देखें कि भारत-चीन के बीच तनाव किस तरह घट रहा है, और रूस-भारत-चीन के बीच त्रिपक्षीय संवाद शुरू करने की बातें किस तरह उभर रही हैं. हर देश यह देख रहा है कि ट्रंप के अमेरिका के साथ रिश्ते में वह अपना वजन किस तरह बढ़ा सकता है. यहां तक कि युद्ध पीड़ित लोकतांत्रिक गणराज्य कोंगो भी यह प्रदर्शित कर रहा है कि ट्रंप के साथ कैसे खेलना है. लेकिन भारत को अपने बूते तय करना होगा कि वह किस तरह खेलेगा.
दुनिया ने ट्रंप के बारे में दो बातें समझ ली हैं. एक तो यह कि उनके अगले कदम के बारे में कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता, उनसे कच्ची जबान और अटपटी नीतियों की ही उम्मीद की जा सकती है. दूसरी बात यह कि वे हमेशा के लिए गद्दी पर नहीं रहने वाले हैं. ज्यादा-से-ज्यादा 2026 तक वे कमजोर पड़ चुके होंगे. न भी हों, तो वे 2028 तक ही कुर्सी पर रह पाएंगे. एक तीसरी बात भी हमें सीखने की जरूरत है, वह यह कि उनकी नीतियों से ज्यादा उनका तौर-तरीका अस्थिरता पैदा करने वाला है. इसलिए, इन बीते दो वर्षों का सुविचार यह है कि ‘कूल-एड’ नामक अमेरिकी ड्रिंक की चुस्की लीजिए और ‘ट्रंप्लोमैसी’ का मजा लेते रहिए.
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